Site icon अग्नि आलोक

सियासत की भेंट चढ़े अमीर देशों में प्रवासी

Share

आनंद प्रधान

शाहरुख खान की फिल्म ‘डंकी’ ऐसे मौके पर आई है, जब अवैध प्रवासियों/शरणार्थियों का मुद्दा एक बार फिर यूरोप से लेकर अमेरिका तक सुर्खियों में है। ‘डंकी’ उन भारतीय युवाओं की कहानी है, जो कानूनी या गैर-कानूनी किसी भी रास्ते इंग्लैंड पहुंचना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी किस्मत का ताला पश्चिम के विकसित-अमीर देशों में पहुंचकर ही खुल सकता है। इसके लिए जान जोखिम में डालकर खतरनाक और मुश्किलों से भरे ‘डंकी’ रूट से वे यूरोप/अमेरिका पहुंचने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ भारत और उसके पंजाब या गुजरात जैसे राज्यों की कहानी है?

भागे हुए अभागे: वास्तव में, यह गृहयुद्ध और आंतरिक संघर्षों में फंसे पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और एशिया से लेकर लैटिन अमेरिका के गरीब देशों के उन लाखों अभागे लोगों की कहानी है, जो हर साल ‘डंकी’ रूट से अमेरिका और यूरोप पहुंचने की कोशिश करते हैं। उनमें से अनेक रास्ते में मर-खप जाते हैं। कुछ डिटेंशन सेंटर में फंस जाते हैं और बाकी अवैध प्रवासी होने का दंश झेलते हुए कृषि से लेकर खतरनाक उद्योगों और होटल-रेस्तरां तक में दयनीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं।

पश्चिम की जरूरत: सच यह है कि इन अवैध प्रवासियों की जरूरत बूढ़े होते यूरोप के अमीर देशों को भी है, जो सस्ते युवा मजदूरों की कमी से जूझ रहे हैं। यूरोपीय संघ के देशों की कुल आबादी 2019 में 5 लाख तक घट जाती, अगर और देशों से प्रवासी नहीं आते। कारण यह कि यूरोप में मृत्यु-दर, जन्म-दर से ज्यादा है। आश्चर्य नहीं कि कोविड महामारी के दो वर्षों (2020 और 21) में यूरोप की आबादी घट गई, जब अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण प्रवासियों का प्रवाह थम गया था।

चली है लहर: इसके बावजूद इन दिनों अमेरिका से लेकर यूरोप तक कानूनी और गैर-कानूनी प्रवासियों/शरणार्थियों के खिलाफ एक लहर सी चल रही है। हाल के महीनों में अवैध प्रवासियों को निशाना बनाकर यूरोप के कई देशों में धुर दक्षिणपंथी पार्टियां सत्ता में पहुंचीं या ताकतवर हुईं।

रुख बदला: इसने उदारवादी और मध्यमार्गी दलों को भी इस मुद्दे पर अपना स्टैंड बदलने के लिए बाध्य कर दिया। ताजा उदाहरण है- यूरोपीय संघ (EU) के देशों में प्रवासियों/शरणार्थियों की संख्या नियंत्रित करने, उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखने से लेकर उन्हें जल्द से जल्द वापस भेजने जैसे मुद्दों पर नियमों को सख्त बनाने को लेकर राजनीतिक सहमति बन गई है। इसके तहत भारत, तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे देशों से आने वाले अवैध प्रवासियों या शरण मांगने वालों को यूरोपीय संघ की सीमा में घुसने नहीं देने जैसे प्रावधान हैं।

बदलती हवा: इस मुद्दे पर EU में पिछले कई सालों से सहमति बनाने की कोशिश थी। इधर, जिस तेजी से इस मुद्दे पर सहमति बनी, साफ है कि हवा का रुख किधर है। इसका एक और सबूत है- प्रवासियों/शरणार्थियों के प्रति आम तौर पर उदार फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रों की मध्यमार्गी सरकार ने अपनी ही पार्टी/गठबंधन के एक चौथाई सांसदों के विरोध के बावजूद बीते हफ्ते एक कड़ा कानून पास कराया है। इसमें प्रवासियों की संख्या, नागरिकता और उन्हें मिलने वाली सरकारी सहायता पर नियम सख्त कर दिए गए हैं। मैक्रों ने इसके लिए फ्रांस की धुर दक्षिणपंथी नेता मरीन ल-पेन की मदद ली, जिन्हें रोकने का दावा करके वह सत्ता में आए थे। उधर, ब्रिटेन में ऋषि सुनक ने 2022 के बाद आने वाले अवैध प्रवासियों को अफ्रीकी देश रवांडा भेजने के समझौते को आगे बढ़ाने में अपनी राजनीतिक पूंजी झोंक दी है।

जहरीला आरोप : अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनावों से पहले अवैध प्रवासन को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है कि वे (अवैध प्रवासी) ‘अमेरिकी खून को जहरीला’ बना रहे हैं।

राजनीति बढ़ी : कहने की जरूरत नहीं कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक में प्रवासियों/शरणार्थियों को लेकर स्थानीय आबादी में बेचैनी बढ़ रही है, जिसे धुर दक्षिणपंथी पार्टियां और भड़काने में जुटी हैं। वे स्थानीय लोगों को प्रवासियों/शरणार्थियों की कथित बढ़ती आबादी का डर दिखाकर राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश कर रही हैं। इसके कारण यूरोप से लेकर अमेरिका तक में वैध और अवैध दोनों तरह के प्रवासियों के साथ हिंसा के मामले बढ़े हैं।

तथ्य अलग हैं : 2022 के आंकड़ों के मुताबिक, यूरोप के 27 देशों की कुल आबादी 44.7 करोड़ में सिर्फ 5.3 फीसदी यानी 2.38 करोड़ लोग यूरोप के बाहर से आए हैं। संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय प्रवासी संगठन के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में दुनिया भर में प्रवासियों की कुल संख्या 28.1 करोड़ और 2023 में शरणार्थियों की कुल संख्या 3.64 करोड़ थी, जिसकी तुलना में यूरोप पहुंचने वाले प्रवासियों/शरणार्थियों की संख्या कुछ नहीं है। रिपोर्टों के मुताबिक, 2022 में यूरोप में लगभग 99.3 लाख गैर यूरोपीय प्रवासी काम कर रहे थे।

बढ़ता ब्लैक मार्केट: गैर यूरोपीय मजदूरों की मांग इसलिए बढ़ रही है क्योंकि पूर्वी यूरोप के अपेक्षाकृत गरीब देशों से आने वाले मजदूर धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। स्वीडन के खेतों में काम करने के लिए कम मजदूरी के कारण अब बुल्गारिया जैसे देशों से श्रमिक नहीं आ रहे हैं तो उसे विएतनाम और थाईलैंड की ओर देखना पड़ रहा है।

प्रवासी हैं मजबूरी : यही हाल होटल-रेस्तरां, कंस्ट्रक्शन, कॉल सेंटर, लॉजिस्टिक/वितरण और डोमेस्टिक हेल्प जैसे उद्योगों या सेवाओं का है, जहां प्रवासियों के बिना काम नहीं चल सकता। सच यह है कि इन श्रमिकों के लिए यूरोप में एक भूमिगत ब्लैक मार्केट पैदा हो गया, जो प्रवासी विरोधी मुहिम के बावजूद लगातार फल-फूल रहा है।

धुर दक्षिणपंथी राजनीति के प्रवासी विरोधी दुष्प्रचार को परे रख दें तो इतिहास का सबक यह है कि माइग्रेशन समस्या नहीं, अवसर है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक की समृद्धि में प्रवासियों की अहम भूमिका इसकी गवाह है। विकसित-अमीर देश प्रवासियों के लिए अपने दरवाजे बंद करके और उन्हें दुश्मन की तरह पेश करके अपना नुकसान ज्यादा कर रहे हैं।

Exit mobile version