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 प्रेम की थाती देने वाली मीराबाई ने भक्ति को अद्भुत परिभाषा दी

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हिंदू धर्म परंपरा में श्रीकृष्ण के बहुत से भक्त हुए हैं. बहुत से लोगों के बारे में दावा किया जाता है कि उन्हें श्रीकृष्ण की कृपा मिली है. लेकिन मीराबाई एक ऐसी अनन्य भक्त हुई जिन्होंने सारी शास्त्रीय परंपरा को किनारे छोड़ दिया और जो कुछ किया उसी से भक्ति की परिभाषाएं बन गई. बाकी सभी भक्तों ने अलग अलग संप्रदायों का सहारा लिया. अलग अलग तरीके अपनाए. भजन पूजन और साधना की, लेकिन मीरा ने जो कुछ किया वही साधना बन गया. गोपियों को भी श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम था. लेकिन गोपियां वो थी जिन्होंने श्रीकृष्ण को देखा था. बचपन में उनके साथ खेली थीं. मीरा ने महज एक मूर्ति देखा. बचपन में ही खुद को उसी मूर्ति को समर्पित कर दिया. कोई कामना नहीं थी. सिर्फ अपन इष्ट में लीन हो जाने की इच्छा थी. प्रभु की आराधना करने वाले बहुतायत भक्त प्रभु की कृपा मांगते हैं. अपने लिए सुख और ऐश्वर्य मांगते हैं. मीरा का तो विवाह ही राजपरिवार में किया गया. वहां सारे सुख थे, लेकिन सब छोड़ कर मुरलीवाले के पीछे चल दीं. आराधना में जो कुछ लिखा वो हिंदी साहित्य की थाती बन गई. भक्तों का भजन बन गया. जबकि मीरा तो सिर्फ अपने लिए गा रही थी.

‘सत्याग्रही’ मीरा
युगों के अंतर का भी मीरा के लिए कोई अर्थ न था. कलयुग में उन्होंने द्वापर के कृष्ण से नाता जोड़ा तो किसी शक्ति को उसे तोड़ने नहीं दिया. रीतियों-कुरीतियों को ऐसे तोड़ दिया जैसे इन बातों का कोई अस्तित्व ही न हो. राजस्थान समेत देश के बड़े हिस्से में पति के मरने के बाद व्याहता के सती हो जाने की परंपरा थी. मीरा की ‘हालत’ हुए उनके व्याहता पति के कुल के कर्णधारों ने मीरा को सती हो जाने की सलाह भी दी. मीरा तैयार नहीं हुईं. आखिर अखंड सुहागन जो थीं –

“गिरधर गास्यां सती न होस्यां मन मोह्यो घणनामी…”

कहा जाता है कि चित्तौड़ की गद्दी पर ही विक्रमादित्य के बैठने के बाद मीरा पर बहुत अत्याचार किए गए. चरणामृत बता कर उन्हें विष दिया गया. विश्वास इतना गहरा था कि पी गईं और कुछ भी न हुआ. सारे अत्याचार सह कर तकरीबन साल भर तक चित्तौड़ में बनी रही. फिर चित्तौड़ छोड़ दिया और ब्रज आ गईं. जब उन पर ये सारे अत्याचार किए जा रहे थे तो मीरा महज 18 या 20 साल की थीं. लक्ष्य के प्रति उनके इस समर्पण को देख और समझ कर महात्मा गांधी ने मीरा को सत्याग्रही बताया. कहें भी क्यों नहीं मीरा ने सीधे राणा को कूड़ा भी बताने में किसी तरह का भय नहीं माना –

नहीं भावे थारो देसड़लो रंगरूड़ो राणा
थांरा देसा में साध नहीं छै लोग बसौ सब कूड़ो.

आचरण ही शास्त्र बन गया
भक्ति, दर्शन और शास्त्रीयता के जानकार उनकी भक्ति को अपनी-अपनी कसौटियों पर कस कर देखते हैं. फिर दावें करते हैं कि नवधा भक्ति की सभी नवौं लक्षण मीरा में दिखते हैं. जबकि मीरा कोई लक्षण नहीं दिखा रही थी. किसी मार्ग पर नहीं थी. शास्त्रों की जगह सीधे ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़ लिया. उसे ही रोम रोम में इस कदर बसा लिया कि खुद जो कुछ कहा वही शास्त्र बन गया. मीरा के पद कबीर सूर और तुलसी जैसे भक्त कवियों की रचनाओं से किसी तरह कमतर नहीं माने जाते. मीरा का काव्य किसी भी तरह से कथानक पर आधारित नहीं है. इसका आधार तो सिर्फ अनुभूति है. वाह्य जगत की किसी भी घटना से उनकी किसी पंक्ति का कोई लेना देना ही नहीं है.

गोपियों से तुलना
युगों का अंतर है. फिर भी मीरा का सशक्त प्रेम इसे सहज ही पार कर लेता है. राधा से तो मीरा की तुलना होती ही है. रुक्मिणी का जिक्र आने पर भी मीरा की चर्चा कर ली जाती है. किसका प्रेम कितना था, इस पर भी बहस चल पड़ती है. लेकिन इन सारी तुलनाओं के बीच देखने की जरुरत है कि मीरा तो महज अपने हृदय में बसने वाले गिरधारी की थी. न कभी रास रचाया न ही उनके साथ महल में रही. प्रेम और उनके समर्पण की ऊर्जा है जिसने उन्हें श्रीकृष्ण की पटरानी बना दिया. यही नहीं खुद मीरा को राधारानी से कोई द्वेष या ईष्या भी नहीं है. यहां तक कि राधा की ओर से वे कान्हा को कहती है कि अगर बंशी राधा ने ले ही ली है तो वे मुंह से गाएं और हाथों से गायों को घेर कर लाएं –

श्रीराधे रानी दे डारो बाँसुरी मोरी।
जा बंसी में मेरी प्राण बसत है, सो बंसी गई चोरी॥
काहे से गाऊँ प्यारी काहे से बजाऊँ, काहे से लाऊँ गईयाँ फेरी।
मुख से गावो कान्हा हाथों से बजाओ, लकुटी से लाओ गईयाँ घेरी॥
हा हा करत तेरे पैयाँ परत हूँ, तरस खाओ प्यारी मोरी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बंसी लेकर छोरी॥

अनन्य प्रेम से अद्वैत का भाव
मीरा ने दूसरे कृष्ण भक्तों की तरह कोई अलग मत या संप्रदाय नहीं बनाया. न ही बने बनाए किसी धार्मिक खेमे में शामिल हुईं. बस प्रेम और प्रेम की वो तीव्रता जिसमें प्रिय को ही राम और हरि भी मान लिया. उनके कृष्ण सिर्फ कृष्ण ही नहीं रह गए. बहुत से पदों में उन्होंने राम या हरि के तौर पर कृष्ण को गाया है. प्रेम में पूरी तरह पग चुकी महान मीरा की इस अभिव्यक्ति की तुलना अद्वैत करते है. हालांकि फिर से बताने की जरुरत नहीं है कि मीरा किसी भी मत का पालन नहीं कर रही थीं. हां उन्होंने अपने कृष्ण को अनेक नामों से संबोधित जरूर किया-

हरि बिन कूण गति मेरी।
तुम मेरे प्रतिकूल कहिए मैं रावरी चेरी॥
आदि अंत निज नाँव तेरो हीया में फेरी।
बेरी-बेरी पुकारि कहूँ प्रभु आरति है तेरी॥

या फिर मीरा खुद को राम की दासी बताने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती-

लगी मोहि राम खुमारी हो।
रमझम बरसै मेहंड़ा भीजै तन सारी हो॥
चहूँदिस चमकै दामणी गरजै घन भारी हो।
सत गुरु भेद बताइया खोली भरम किवारी हो॥
सब घट दीसै आतमा सबही सूँ न्यारी हो।
दीपग जोऊँ ग्यान का चढूँ अगम अटारी हो।
मीरा दासी राम की इमरत बलिहारी हो॥

बचपन
हिंदू कलैंडर के मुताबिक माना जाता है कि मीरा का जन्म शरद पूर्णिमा को विक्रमी संवत 1561 में हुआ था, ये ईस्वी के हिसाब से 1504 या 1503 हो सकता है. बचपन से ही भक्ति के संस्कार थे. कहा जाता है कि माता से किसी समय इन्होंने कई बार पूछा कि उनका दूल्हा कौन है, तो माता ने गिरधर की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया और तभी से मीरा ने उन्हें अपना पति मान लिया. ये भी उल्लेख मिलता है कि पूर्व जन्म में ये गोपिका थीं और उस समय उन्हें कृष्ण नहीं मिले तो कलिकाल में इनका पुनर्जन्म हुआ. हालांकि ये दंतकथा अधिक लगती है क्योंकि उस समय तो कृष्ण किसी गोपिका को नहीं मिले थे. इसी तरह इस लोक को छोड़ने को लेकर भी कई कथाएं हैं. एक मान्यता है कि ये कृष्ण का गान करते हुए उन्ही के विग्रह में लीन हो गई थीं. ये दंतकथा भी हो तो ठीक ही लगती है क्योंकि मीरा तो हमेशा से कृष्ण में ही लीन रही हैं.

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