श्रवण गर्ग
सत्ता के गर्भ में आकर ले रहे अज्ञात भय की किसी अपेक्षित घड़ी में जन्म लेने की प्रतीक्षा तो थी पर प्रसव-पीड़ा समय-पूर्व ही होती नज़र आ रही है. आश्चर्य यह है कि जनता भी आश्चर्यचकित नहीं है. उसके पीछे कारण भी हैं.
‘नोटबंदी’ और ‘लॉक डाउन’ जैसे अचानक से फटने वाले बादलों की आपदा से गुज़र जाने के बाद जनता भी ‘अनुभवी और जानकार’ बन गई है. जो कुछ भी चलता हुआ दिखाई दे रहा है, वह ‘जो आगे हो सकता है’ से अलग नहीं माना जा सकता.
आगे होने वाला एक लंबे काल तक चल सकता है. आशंकाएं निर्मूल साबित हो जाएं तो उससे ज़्यादा सुखद और क्या हो सकता है ? लगता नहीं.
‘न्यूज़ क्लिक’ जैसी छोटी सी कंपनी और कार्यक्रमों के बदले मानदेय के भुगतान के आधार पर उसके साथ जुड़े चार दर्जन पत्रकारों और अन्य लोगों से उनके घरों और पुलिस ठिकानों पर की गई पूछताछ के मामले को सिर्फ़ मीडिया की आज़ादी पर हमले तक ही सीमित करके ही नहीं देखा जाना चाहिए.
इसे भी कोई संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि ‘न्यूज़ क्लिक ‘ के ख़िलाफ़ हुई कार्रवाई के इर्द-गिर्द ही ‘आप’ सांसद संजय सिंह की गिरफ़्तारी किसी अन्य मामले में हो गई. अब भय व्यक्त किया जा रहा है कि आगे आने वाले दिनों में ऐसी ही कुछ और भी घटनाएं सुनने-देखने और भोगने को मिल सकती हैं.
‘न्यूज़ क्लिक’ के ख़िलाफ़ दाखिल एफ़आईआर में कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं. ‘न्यूज़ क्लिक’ ने सभी आरोपों को बोगस करार दिया है.
चर्चा का मुद्दा यहां यह है कि जो हुकूमत अपने 10 सालों के अस्तित्व के अंतिम चरण में चारों ओर से अपार संकटों में घिरी हो, उसके मुखिया और पार्टी को मीडिया और विपक्ष के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए ? उसे अपना लोकतांत्रिक चेहरा प्रकट करना चाहिए या उसके कदमों से अधिनायकवाद की पदचाप सुनाई पड़ना चाहिए ?
पश्चिम के प्रजातांत्रिक मुल्कों का निष्पक्ष मीडिया, मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारत की गिनती उन उन मुल्कों में करता रहा है, जहां या तो आंशिक (Partial) लोकतंत्र है या फिर सिर्फ़ चुनावी (Electoral) प्रजातंत्र क़ायम है ! पूर्ण प्रजातंत्र नहीं है.
अमित शाह ने 2 साल पहले दावा किया था कि प्रधानमंत्री निरंकुश या तानाशाह नहीं हैं. वे सभी की बात धैर्यपूर्वक सुनकर ही फ़ैसले लेते हैं. पिछले दो सालों में काफ़ी कुछ बदल गया है. क्या अमित शाह अपने उक्त दावे को आज भी उतने ही विश्वास के साथ दोहराना चाहेंगे ?
अगर सब कुछ ठीक चल रहा है तो फिर विपक्षी दलों और मीडिया में आपातकालीन परिस्थितियों वाला डर क्यों व्याप्त है ? क्या इंदिरा गांधी की तरह मोदी भी सत्ता छूटने की आशंकाओं से घबरा गए हैं ?
राहुल गांधी की ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को प्राप्त हुए अभूतपूर्व जन-समर्थन, 28 दलों के विपक्षी गठबंधन, एक के बाद एक राज्य में होती भाजपा की पराजय, संसद के विशेष सत्र और महिला विधायक की असफलता, बिहार के जाति जनगणना से मुखर हुआ पिछड़े वर्गों का असंतोष, मणिपुर की अनियंत्रित होती स्थिति और पार्टी-नेतृत्व को मध्यप्रदेश-राजस्थान में अपने ही नेताओं से मिलतीं चुनौतियां अंगुलियों पर गिनाए जा सकने वाले ऐसे कुछ मुद्दे हैं, जिनसे मोदी को एक साथ जूझना और अकेले लड़ना पड़ रहा है. चीन और कनाडा सहित इनमें कुछ और भी विषय जोड़े जा सकते हैं.
जनता के बीच लोकप्रियता को लेकर ‘गोदी मीडिया’ द्वारा किए जा रहे सर्वेक्षणों में दावे किए जा रहे हैं कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ही आज भी जनता की पहली पसंद हैं. सर्वेक्षणों में यह नहीं बताया जा रहा है कि मोदी किस आधार पर फिर सत्ता में आ सकते हैं.
भाजपा की घटती लोकप्रियता और एक सशक्त विपक्षी गठबंधन के बीच होने वाले मुक़ाबले में NDA को प्राप्त हो सकने वाली सीटों की संख्या सर्वेक्षणों में नहीं बताई जा रही है. अगर बताई भी जा रही है तो यह साफ़ नहीं किया जा रहा है कि भाजपा को बहुमत जितनी सीटें किन राज्यों से प्राप्त होंगी.
हक़ीक़त यह है कि लोकसभा की 543 सीटों में लगभग 300 सीटें ऐसे राज्यों में केंद्रित हैं जहां विपक्ष की राज्य सरकारें हैं. दक्षिण भारत (150 सीटें) के किसी भी राज्य में भाजपा की सरकार नहीं है और न ही वहां कोई भी सत्तारूढ़ दल एनडीए का हिस्सा है.
इसके अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, पंजाब, दिल्ली और हिमाचल (120 सीटें) में विपक्षी सरकारें हैं. एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने जा रहे हैं. इन राज्यों में 65 सीटें हैं. इनमें दो राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़) में अभी कांग्रेस है (कुल 36 सीटें). यूपी (80), महाराष्ट्र (48), गुजरात (26) अलग हैं.
आपातकाल (1975-77) के दौरान भी एक बड़ी संख्या इंदिरा गांधी के ऐसे समर्थकों की थी, जो विपक्षी दलों और मीडिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई का समर्थन करते थे.
उनका मानना था आपातकाल की अवधि में देश ने काफ़ी तरक़्क़ी की है, भ्रष्टाचार कम हुआ है, काम वक्त पर होने लगे हैं, ट्रेनें समय पर चलने लगीं हैं और देश में अनुशासन क़ायम हुआ है. जेलों में बंद लोग मानकर चल रहे थे कि आपातकाल लंबा चलने वाला है.
इंदिरा गांधी ने जब जनवरी 1977 में आपातकाल ख़त्म कर चुनाव करवाने की अचानक घोषणा कर दी तो किसी को यक़ीन नहीं हुआ. घोषणा से पहले गुप्तचर एजेंसियों ने उन्हें यक़ीन दिलाया था कि जनता के बीच लोकप्रियता के चलते वे चुनावों में जीत जाएंगी. इंदिरा गांधी ने तब अपने कुछ अत्यंत नज़दीकी लोगों से कथित तौर पर कहा था कि वे हारने वाली हैं फिर भी चुनाव करवा रहीं हैं. वे अंततः हार भी गईं.
जनता की नब्ज पर मज़बूत पकड़ रखने वाले मोदी जानते हैं कि उनके 2014 और 2019 के तिलिस्म में विपक्षी दलों को एकजुट कर राहुल गांधी ने सेंध लगा दी है. इंदिरा गांधी की तरह मोदी भी समझते होंगे कि लोकप्रियता को लेकर चलने वाले सर्वेक्षणों की ज़मीनी सचाई और असली आंकड़े अलग हैं.
सवाल सिर्फ़ यह बच जाता है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी क्या चुनाव समय पर करवाए जाएंगे ? भाजपा को अगर बहुमत नहीं मिलता है तो क्या इंदिरा गांधी की तरह मोदी विपक्ष में बैठने को तैयार हो जाएंगे ? या फिर सत्ता में बने रहने के लिए वे कोई भी कदम उठा सकते हैं ?
संकटों के इतने मोर्चों पर एक साथ लड़ने के बीच भी मोदी द्वारा इस दावे को लगातार दोहराते रहने के पीछे कि वे ही फिर से प्रधानमंत्री बनने वाले हैं–कोई तो अदृश्य ताक़त या मंत्र काम कर रहा होगा ? क्या उस ताक़त या मंत्र की जड़ें विपक्षी दलों के नेताओं और मीडियाकर्मियों के ख़िलाफ़ की जा रही कार्रवाई में नहीं तलाशी जा सकतीं ?