‘इन 3 प्रस्तावित कानूनों का उद्देश्य किसी को दंड देना नहीं, बल्कि सबको न्याय देना है। अभी न्याय इतनी देरी से मिलता है कि लोगों का इससे भरोसा ही उठ गया है। तीनों विधेयकों के कानून बनते ही 3 साल तक की सजा वाले मामले समरी ट्रायल के जरिए सुने जाएंगे। इससे सेशन कोर्ट में 40% तक मुकदमे कम हो जाएंगे।‘
11 अगस्त को लोकसभा में ये बात केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कही। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को मजबूत करने के लिए अमित शाह ने सदन में 3 विधेयक भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य विधेयक और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता पेश किए। गृहमंत्री ने दावा किया कि इन कानूनों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य न्याय प्रक्रिया को तेज करना है।
अमित शाह ने नए बिल में 6 बड़े दावे किए हैं…
दावा 1: जल्द न्याय
पुलिस 90 दिन में आरोप पत्र दाखिल करेगी। कोर्ट इसे 90 दिन और बढ़ा सकेगा। 180 दिनों में जांच पूरी कर केस ट्रायल के लिए भेजना होगा। ट्रायल पूरा होने के बाद कोर्ट को 30 दिन में फैसला देना होगा। 3 साल से कम सजा वाले क्राइम की सुनवाई समरी ट्रायल कोर्ट में होगी। इससे 40% तक मुकदमे कम हो जाएंगे।
दावा 2: डिजिटल रिकॉर्ड्स
डिजिटल रिकॉर्ड्स को वैधता दी जाएगी। केस दर्ज होने से लेकर कोर्ट के फैसले तक पूरा सिस्टम डिजिटल होगा। इसका एक मकसद पेपर लेस कार्रवाई को भी आगे बढ़ाना है।
दावा 3: फोरेंसिक जांच को बढ़ावा
किसी केस में जांच से लेकर हर तरह के अनुसंधान फोरेंसिक साइंस के जरिए होंगे। 7 साल या ज्यादा सजा वाले अपराध में फोरेंसिक टीम मौके पर जरूर जाएगी।
दावा 4: जीरो FIR
देश में घटना चाहे कहीं हुई हो, केस किसी भी थाने में कहीं भी दर्ज करवा सकते हैं। पहले जीरो FIR में धाराएं नहीं जुड़ती थीं, अब नई धाराएं भी जुड़ेंगी। 15 दिन में जीरो FIR संबंधित थाने को भेजनी होगी।
दावा 5: पेशी के बिना भी मुकदमा चलेगा
अब दाऊद जैसे अपराधियों पर ट्रायल कोर्ट में पेशी के बिना भी केस चलाना संभव होगा। इस कानून का मकसद फरार अपराधियों के खिलाफ भी मुकदमा चलाकर सजा सुनाना है।
दावा 6: सिफारिश का स्कोप नहीं
सजा में छूट देने के सियासी इस्तेमाल को कम करने की कोशिश हो रही है। मौत की सजा को सिर्फ आजन्म कारावास और आजन्म कारावास को 7 साल तक की सजा में बदलना संभव होगा। सरकार पीड़ित को सुने बगैर 7 साल या अधिक सजा वाले केस को वापस नहीं ले सकेगी।
हमने लीगल एक्सर्ट्स से पूछा कि सरकार ने नए कानूनों को लेकर जो दावे किए हैं, क्या इन्हें पूरा करना संभव है…
नए कानून से न्याय मिलने में आसानी होगी: कपिल संखला, सुप्रीम कोर्ट के वकील
अगर कोशिश नहीं करेंगे तो कुछ नहीं होगा। सिस्टम जितना मजबूत होगा न्याय मिलना उतना आसान होगा। डिफेंस लॉयर के तौर पर हमारे जैसे वकीलों को समस्या होगी, लेकिन किसी कानून के लिए ज्यादा जरूरी ये है कि वो अच्छी नीयत के साथ लागू किए जाएं। इन बिल के कानून बनते ही दो मुख्य चुनौतियां होंगी…
1. एजेंसी से लेकर कोर्ट पर केस की जल्द सुनवाई पूरा करने का दबाव होगा। इससे किसी एक पक्ष को कम और दूसरे को ज्यादा समय देने जैसी शिकायतें सामने आ सकती हैं।
2. संविधान में साफ लिखा है कि क्रिमिनल लॉ का रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट होगा, यानी कानून जिस दिन बनेगा उसी तारीख से लागू होगा। ऐसे में जिन मामलों की सुनवाई हो रही है या जो पुराने केस हैं उनकी जांच और सुनवाई में निश्चित रूप से दिक्कत आएगी।
हालांकि, इनके अलावा नए कानूनों में वॉट्सऐप और इंटरनेट के सबूतों को मान्यता मिलेगी। इससे केस की सुनवाई में तेजी आएगी। भले 40% केस कम न हों, लेकिन भारत में अटके केस को सॉल्व करने में तेजी जरूर आएगी। कुछ लोगों का मानना है कि डिजिटली सबूत पेश करना और प्रोसीडिंग चलाना मुश्किल होगा, लेकिन कोरोना काल में हमने देखा कि ये संभव है।
नए कानून में ट्रायल का समय फिक्स होना जरूरी: विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील
देश में लगभग 5 करोड़ मुकदमे हैं। इनमें जिला और तालुका स्तर पर 4.44 करोड़ मुकदमे हैं। वहीं, कुल केस में 3.33 करोड़ क्रिमिनल मामले हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि नए कानूनों से 40% मुकदमे कम हो जाऐंगे। साथ ही 3 साल में पीड़ितों को न्याय मिलना संभव होगा। इसकी 3 वजह बताई जा रही हैं..
1. समरी ट्रायल होगा और छोटे मामले जल्द खत्म होंगे।
2. छोटे मामलों को सामुदायिक सेवा के दंड से खत्म किया जाएगा।
3. ट्रायल के लिए अधिकारियों के लिए समय-सीमा तय होगी, इससे तय समय के भीतर फैसले होंगे।
हालांकि सिर्फ इन कानूनी बदलावों से ऐसा हो पाना संभव नहीं दिखता है। इसकी दो वजह हैं…
1. सुनवाई खत्म होने के बाद फैसला देने का समय निर्धारित हो रहा है, लेकिन कोर्ट में सुनवाई खत्म करने को लेकर समय सीमा तय नहीं है। इससे ये भी हो सकता है कि किसी मामले की सुनवाई 5 साल तक चले। ऐसे में जब तक ट्रायल की समय-सीमा फिक्स नहीं होती, न्याय समय पर मिलना संभव नहीं है।
2. अभी पूरी कानूनी व्यवस्था में सबसे बड़ी अड़चन ये है कि गलत मुकदमा दायर करने वालों को दंडित करने का नियम लागू नहीं होता है। किसी केस में कानून या समय सीमा का पालन नहीं करने और बेवजह स्थगन देने वाले मजिस्ट्रेट के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं होती है।
इसलिए प्रस्तावित कानूनों में कुछ बातों को शामिल करना जरूरी है। जैसे- अगर किसी ने सही समय पर जांच पूरी नहीं की तो क्या होगा? अगर मुकदमे में सही समय पर फैसला नहीं हुआ तो क्या होगा? अगर बेल मिलने का आधार मजबूत हो और इसके बावजूद बेल नहीं मिली तो क्या होगा?
आपराधिक कानून जिस दिन नोटिफिकेशन होता है, उस दिन से लागू होते हैं। इसलिए नए मुकदमों में इन कानूनों के तहत केस दर्ज होंगे, लेकिन पहले के मामलों में ऐसा नहीं होगा।
ये 2 काम करने पर ही पेंडिंग केस खत्म होंगे…
1. IPC के तहत अपराध कानून लागू होने के बाद ही दर्ज होंगे। CrPC के तहत पुराने मामलों में भी नए कानूनों के तहत जांच हो सकती है। जिन छोटे मामलों में ट्रायल शुरू हो गया है, उन पुराने मामलों के लिए भी प्रस्तावित नए कानून में ये जोड़ा जा सकता है कि उनको समरी ट्रायल या सामुदायिक सेवा दंड के जरिए खत्म किया जा सकता है।
2. सरकार को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के इस्तेमाल के जरिए पुराने मामलों में ये देखना होगा कि पहली बार अपराध करने वाले आरोपी कौन हैं और कितने मामले छिटपुट अपराधों से जुड़े हैं? इसके बाद सामुदायिक दंड सेवा प्रावधान के आधार पर फर्स्ट टाइम अपराधों के मामलों का बल्क में निपटारा किया जा सकता है।
फोरेंसिक और डिजिटल तरीके अपनाने से न्याय में तेजी के बजाय देरी न हो जाए…
किसी कानून को लागू करने की व्यावहारिकता और सिद्धांत में फर्क है। नए कानून में 7 साल से ज्यादा सजा के मामलों में वीडियो रिकॉर्डिंग और फोरेंसिक जांच की बात कही गई है, लेकिन भारत में पुलिस और कानून व्यवस्था पर सरकारें काफी कम खर्च करती हैं।
भारत में फोरेंसिक लैबोरेटरीज में पहले से क्षमता से ज्यादा मामले हैं। ऐसे में बिना उस सिस्टम को मजबूत किए नए कानूनों को लागू करने से मुकदमों में सजा दर बढ़ाना मुश्किल होगा। अभी हजारों गंभीर मामले फोरेंसिक रिपोर्ट के अभाव में पेंडिंग चल रहे हैं।
अभी ऑनलाइन FIR सिर्फ छोटे मामलों में दर्ज करने का प्रावधान है। जैसे- मोबाइल चोरी या कागज गुम होने के मामले। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि पीड़ित को इंश्योरेंस का फायदा या डुप्लीकेट सिम मिलने में आसानी हो सके। इन मामलों में पुलिस को ज्यादा जांच नहीं करनी होती है। अब जब गंभीर मामलों में भी ऑनलाइन केस या जीरो FIR दर्ज होने लगेंगी तो पुलिस सिस्टम पर बोझ बढ़ने के साथ फिजूल के मामलों को दर्ज कराने का चलन बढ़ सकता है।
पुलिस की जांच का जो व्यावहारिक ढांचा है, वो फोर्स और सुविधाओं के अभाव में बेहद कमजोर है। नई कानून व्यवस्था के तहत लोगों को जो अधिकार दिए गए हैं, इससे भले ही केस आसानी से दर्ज हो जाएं, लेकिन उनकी जांच करना पुलिस के लिए मुश्किल होगा।
तीनों प्रस्तावित कानून के पास होने पर संशय क्यों?
सबसे ज्यादा इस कानून के पास होने को लेकर ही संशय है। इसकी वजह यह है कि अगर सरकार शीतकालीन सत्र में ये कानून नहीं पास करा पाती है तो लोकसभा के चुनाव आ जाएंगे। इस तरह ये बिल लैप्स हो सकते हैं। अगर राज्यों के साथ परामर्श किए बगैर इन्हें पारित कराने की कोशिश हुई तो फिर इनके क्रियान्वयन में विवाद और संदेह बढ़ेगा।