शिवानन्द तिवारी,पूर्व सांसद
मुझे उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री नीतीश जी कश्मीर पर बनी विवादित फ़िल्म को बिहार में प्रदर्शित करने के पूर्व उसको स्वयं देख लेंगे. मैंने सोशल मीडिया के माध्यम से उनसे यह अनुरोध भी किया था. इस फ़िल्म का निर्माण एक खास एजेंडा के तहत किया गया है. यह सत्य है कि सन् 90 में कश्मीर में बसे पंडितों को वहाँ भगाने के मक़सद से आतंकवादियों ने उनके विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया था. इस अभियान से पंडितों की रक्षा करने की जवाब देही वहाँ के सरकार की थी.उस समय कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला की सरकार थी. वहाँ के गवर्नर भाजपा के दुलरूवा जगमोहन जी थे.. केंद्र में भाजपा समर्थित वीपी सिंह की सरकार थी. वह सरकार क्या कर रही थी ! उस समय कश्मीर में जो कुछ हुआ वह राज्य और केंद्र दोनों सरकारों की अपराधिक विफलता थी. इस फ़िल्म के ज़रिए सरकारों की विफलता छुपा दी गई है. देश की जनता को यह बताया जा रहा है कि वहाँ के मुसलमानों ने पंडितों का नरसंहार किया.पंडितों की हत्या, हालाँकि एक हत्या भी दुर्भाग्य पूर्ण है, की संख्या और पलायन के आँकड़ों का नक़ली पहाड़ खड़ा किया गया है. जबकि मार्च, 2010 में जम्मू कश्मीर की सरकार ने वहाँ की विधानसभा में भी बताया था कि उस समय क़रीब डेढ़ लाख पंडितों ने वहाँ से पलायन किया था और 219 पंडितों की हत्या हुई थी. संख्या का पहाड़ इसलिए खड़ा किया गया है ताकि मुसलमानों की के विरुद्ध हिंदुओं के मन में नफ़रत की आग को ज़्यादा से ज़्यादा तेज किया जा सके.यह फ़िल्म इतिहास की 30 बरस पुरानी कहानी अपने राजनीतिक एजेंडा के तहत पेश कर रही है. लेकिन अगर और अतीत में ज़ाया जाए और सन् 47 की बात की जाए तो जम्मू की आबादी में मुसलमानों का बहुमत था. उनके ख़िलाफ़ जिस प्रकार का नरसंहार चलाया गया वैसा नज़ीर इतिहास में शायद ही मिले. गांधी जो उस घटना के बाद पहली मर्तबा कश्मीर गए थे, उन्होंने कहा था कि दो लाख लोगों की गिनती नहीं मिल रही है ! लगभग पाँच लाख मुसलमानों का पलायन जम्मू से हुआ था. इस प्रकार वहाँ मुस्लमान अल्पमत में आ गए थे.सवाल यह है कि इतिहास का किस प्रकार इस्तेमाल किया जा रहा है. आग लगाने के लिए या जलती आग को बुझाने के लिए. मोदी सरकार देश में आग लगाने के लिए इस फ़िल्म का इस्तेमाल कर रही है. खेद है कि इस आग की आंच को तेज करने के लिए मेरे मित्र नीतीश कुमार ने भी एक लुकाड़ी अपने हाथ में थाम लिया है.
शिवानन्द तिवारी,पूर्व सांसद