गांव में रहने वाला किसान आज बदहाल है। धरती के पेट में पानी नहीं है तो किसान, उसके खेत और पशु सब प्यासे हैं। तीन अरब-खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था से किसान की यह दुर्दशा नहीं मिटेगी। खेती के औद्योगीकरण से भी नहीं, क्योंकि उपज के लिए पानी और विषैले पदार्थों से मुक्त धरती तो उसे चाहिए ही होगी और जलवायु परिवर्तन के इस दौर में बाढ़ और सुखाड़ पर तो बस किसका है! जब विकास के पैमाने कॉरपोरेट जगत को साथ लेकर, उसके विकास के लिए गढ़े जा रहे हों, तो विकास भी तो उसी का होगा। और उसके विकास का अर्थ है पूंजी और ज्यादा केंद्रीकरण। राजसत्ता की निर्भरता का उस पर बढ़ जाना. दूसरे शब्दों में पूंजी, शासन व समाज पर मुट्ठी भर पूंजीपति वर्ग का कब्जा। ऐसे में हो सकता है कि विश्व मंच पर भारत की गिनती मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश में होने लगे पर गांवों में बैठा व्यक्ति और समाज भी आत्मनिर्भर हो जाएगा, इस हद तक कि प्रशासन अनुचित तरीके से उसके हितों को नुकसान पहुंचाने की हिमाकत न कर सके?
नीलम गुप्ता
मौजूदा सरकार का दावा है कि जल्द ही देश तीन अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला दुनिया का तीसरे नंबर का देश हो जाएगा। इस दावे को पुख्ता करने के लिए वह बेरोज़गारी कम हो जाने और गरीबी की दर भी बहुत नीचे आ जाने के नए-नए दावे आए दिन कर रही है। वह भी बिना ताज़ा जनगणना के, असंगठित क्षेत्र के रोज़गार और उसमें कामगारों के राष्ट्रीय आंकड़ों के। फिर भी इन दावों को सही मान लिया जाए, तो भी क्या वास्तव में हमारा देश आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाएगा? क्या हमारी बेरोज़गारी बस एक या दो प्रतिशत ही रह जाएगी?
प्रति व्यक्ति आय सरकार के हिसाब से 2.14 लाख हो भी जाए तो क्या! क्या दूर-दराज, सड़क, बिजली, पानी से वंचित गांव के वासी की सालाना आय भी इतनी हो पाएगी या फिर वह जंगलो की अवैध कटाई और खानों के अवैध उत्खननकारी ठेकेदारों के अवैध कामों पर ही अपनी रोज़ की जिल्लत भरी गुजर-बसर करते हुए, धंधे से मिली किसी न किसी बीमारी से अपना दम तोड़ता रहेगा?
इस सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या हम दूसरी आज़ादी हासिल कर पाएंगे? दूसरी आज़ादी माने, आर्थिक आज़ादी. अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए गांधी जी हमेशा कहा करते थे आर्थिक आज़ादी के बिना राजनीतिक आज़ादी अधूरी है। आर्थिक आज़ादी के बिना राजनीतिक आज़ादी टिक नहीं पाती। बांग्लादेश में पांच अगस्त को हुआ हिंसक सत्ता परिवर्तन इसका ताज़ा सबूत है। भारत का लोकतंत्र अभी तक मजबूत रहा है, तो इसलिए कि हमारे असंगठित क्षेत्र को सरकार के बही-खातों में भले ही जगह न दी गई हो और आज तक नहीं दी जा रही, पर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी वही रहा है।
अंग्रेजों ने अपनी राजनीतिक सत्ता इसी हड्डी पर चोट करके मजबूत की थी। उसने कपड़ा मिलों के जरिये हमारे घरेलू उद्योगों को चोट पहुचाईं। हमारे यहां के परंपरागत बुनकर क्षेत्र को खत्म कर अपने मिलों के सस्ते कपड़े के जरिये बाजार पर कब्जा करना चाहता था। पर गांधी उसकी चाल को समझ गए और चरखे के जरिये जो घर-घर में खादी का उत्पादन शुरू हुआ, लोगों ने बता दिया कि अंग्रेज हमें बाजार से क्या बाहर करेंगे। हमने तो अपना ही अलग बाजार बना लिया है, जिस तक उसकी कोई पहुंच नहीं है। सचमुच, आज उसी का नतीजा है कि हमारे पास खादी भी है और बनारस, कर्नाटक, बंगाल, बिहार और बाकी सभी प्रदेशों के बुनकर का कपड़ा भी। हमारा परंपरगत हस्तशिल्प आज भी जिंदा है। सीमित मात्रा में ही सही पर रोज़गार भी दे रहा है।
हम अपने परंपरागत कपड़ा उत्पादों को बड़ी शान के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंचा पा रहे हैं, तो इसीलिए कि उस समय चरखे व करघे के जरिये गांधी ने हमारे स्थानीय, परंपरागत सामुदायिक घरेलू उद्योग को व्यापकता दी, स्थिरता दी. लोकशक्ति को संगठित कर अंग्रेजोंं की सत्ता को चुनौती देने के लिए खड़ा किया। चरखा व खादी इस हद तक आज़ादी का प्रतीक बन गए कि अंग्रेजों को आखिर देश छोड़कर जाना ही पड़ा। तो, राजनीतिक आज़ादी के पीछे आर्थिक ताकत और संगठित लोकशक्ति भी रही।
आर्थिक दृष्टि से दूसरी गहरी चोट अंग्रजो ने कृषि क्षेत्र में हमारे स्थानीय सामुदायिक परंपरगत जल प्रबंधन को प्रशासन के हाथों में सौंपकर पहुंचाई थी। उस समय हर गांव में सिंचाई व पीने के पानी के कम से कम भी चार-पांच तालाब जरूर हुआ करते थे। उनकी स्थानीय सामुदायिक सामजिक व आर्थिक व्यवस्था का आधार। उसी से गांव खेती व पशुपालन में स्वावलंबी होते थे, समृद्ध होते थे। सामुदायिक व्यवस्थागत परंपराएं समाज को सत्ता के सामने खड़े होने और उसका मुकाबला करने की हिम्मत देती थीं। बड़े बांध, नहर और चैक डैम की प्रशासनिक व्यवस्था, जो आज़ादी के बाद और भी मजबूत हुई, उससे ग्रामीण समुदाय कमज़ोर होते चले गए. परंपागत ग्रामसभाओं का अस्तित्व खत्म हो गया और उसी के साथ ही खत्म होता चला गया वर्षा जल का स्थानीय संरक्षण और प्रबंधन।
ग्रामीण प्रबंधन की स्थानीय परंपराओं के कमज़ोर होने के साथ ही गांवों की समृद्धि धूमिल पड़ने लगी और समाज कमज़ोर। कमज़ोर समाज को धमकाना व डराना अंग्रेज नुमाइंदों के लिए आसान हो गया। उनके संसाधनों को लूटना आसान हो गया। गांव बदहाल होने लगे और अंग्रेज मजबूत। आज़ादी के बाद भी गांव बदहाल होते ही चले गए। भारत सरकार के नुमाईदे तो और भी बड़े लुटेरे निकले. कानून उनका साथ देने वाला। नतीज़ा, उनके अपने कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गए, प्राकृतिक संसाधन क्षरित।
गांव में रहने वाला किसान आज बदहाल है। धरती के पेट में पानी नहीं है तो किसान, उसके खेत और पशु सब प्यासे हैं। तीन अरब-खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था से किसान की यह दुर्दशा नहीं मिटेगी। खेती के औद्योगीकरण से भी नहीं, क्योंकि उपज के लिए पानी और विषैले पदार्थों से मुक्त धरती तो उसे चाहिए ही होगी और जलवायु परिवर्तन के इस दौर में बाढ़ और सुखाड़ पर तो बस किसका है!
वैसे भी जब विकास के पैमाने कॉरपोरेट जगत को साथ लेकर, उसके विकास के लिए गढ़े जा रहे हों, तो विकास भी तो उसी का होगा। और उसके विकास का अर्थ है पूंजी और ज्यादा केंद्रीकरण। राजसत्ता की निर्भरता का उस पर बढ़ जाना. दूसरे शब्दों में पूंजी, शासन व समाज पर मुट्ठी भर पूंजीपति वर्ग का कब्जा। ऐसे में हो सकता है कि विश्व मंच पर भारत की गिनती मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश में होने लगे पर गांवों में बैठा व्यक्ति और समाज भी आत्मनिर्भर हो जाएगा, इस हद तक कि प्रशासन अनुचित तरीके से उसके हितों को नुकसान पहुंचाने की हिमाकत न कर सके?
नहीं, बिल्कुल नहीं। उसके स्वावलंबन और स्वायत्तता का मूल तत्व तो संसाधनों व सत्ता का विकेंद्रीकरण व सामुदायीकरण है। ऐसा होने पर समाज खुद ही अपने लिए रोज़गार का प्रबंधन करता है। आज के गांव इन दोनों से ही महरूम है। तो, तीन अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था से देश के कुछ और लोग धनिकों की श्रेणी में निश्चित ही आ जाएंगे पर गांव आत्मनिर्भर नहीं हो पाएंगे।
दौर आज तकनीक का है। वह कौशल मांगती है और कौशल का अभाव हमारे यहां किस हद तक है, इसका उल्लेख तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने 2024 के बजट भाषण में खुद ही कर दिया। औद्योगिक संस्थानों को प्रशिक्षण की जिम्मेदारी दी जा रही है, पर वे कुछ को ही तो खपा पाएंगे। उनमें से भी कुछ को ही अपने संस्थानों में रोज़गार दे पाएंगे। बाकी का क्या होगा?
दूसरा, तकनीक तो हर तीसरे महीने बदल जाती है। अपग्रडेशन न हो तो व्यक्ति व उपकरण दोनों अपने आप ही बाजार से बाहर हो जाते हैं। दोनों ही महंगे सौदे हैं। तो कौशल के साथ-साथ कौशल संवर्धन और पूंजी आज के रोज़गार की सतत मांग है। हमारा युवा वर्ग तो उसमें एकदम कोरा है, तभी तो वह सड़कों पर है।
शिक्षण, प्रशिक्षण के हमारे सभी संस्थानों से जो युवा निकल कर आ रहे हैं, वह रोज़गार क्षेत्र के बाज़ार में अयोग्य साबित हो जाते हैं। अंदाज लगाइए, उनकी निराशा का जिन्होंने लाखों रुपये इस भरोसे के साथ संस्थान को दिए कि वहां से निकलकर उन्हें एक सम्मानजनक रोज़गार मिल जाएगा। पर चयन परीक्षाओं में कंपनियां उन्हें भर्ती लायक मानती ही नहीं। यह स्थिति सरकारी व गैर सरकारी दोनों ही संस्थानों की है। तो दोष किसका है? इन सभी संस्थानों का नियमन किसको करना है? सरकार को। वो तो नहीं कर पा रही है न वह! ऐसे में प्रति वर्ष 80 लाख रोज़गार देने के उसके संकल्प के मायने?
कुल मिलाकर, सरकार के अर्थव्यवस्था व विकास के ढांचे में सामूहिक समाज तो है ही नहीं। वह उसके हिस्सों को अलग-अलग कर उठाती है और विकास के अपने खाकों में इस तरह से फिट करती है कि उसके अपने व कॉरपोरेट जगत के राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ सधते रहें, क्योंकि अपने उन हितों के भीतर ही वह इन हिस्सों को पनपने की सीमित छूट देती है। इसलिए वे कभी खुलकर अपना विस्तार नहीं कर पाते। फिर चाहे वह खेती हो या युवा वर्ग अथवा शिक्षा और रोज़गार।
इसके अलावा उद्योगवाद की फितरत दूसरों की कीमत पर अपना विकास करने की है उद्योगवाद शोषण को कम नहीं करता। शोषण की इस प्रक्रिया में समाज अपनी स्वतंत्रता भी खो देता है। गांधी जी ठीक ही कहते थे कि आर्थिक गरीबी हमारे समाज का नैतिक पतन है। जो समाज लाखों करोड़ों लोगो को बेरोज़गार रखता हो, उसकी आर्थिक व्यवस्था हमें बिल्कुल स्वीकार नहीं है। फिर भले ही वो वृद्धि दर के ऊंचे आकड़े क्यों न दर्शाती हो।
*(नीलम गुप्ता वरिष्ठ पत्रकार हैं।