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*त्रासदपूर्ण है मोदी सरकार की इज़रायली सत्ता से साँठ-गाँठ*

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       ~ पुष्पा गुप्ता

 गाज़ा और वेस्ट बैंक को मिलाकर इज़रायली उपनिवेशवादी हत्यारों ने 7 अक्टूबर से अब हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का कत्ले-आम किया है। इसमें महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे हैं भी शामिल हैं. हर दिन करीब 500 लोगों की हत्या और हर दिन क़रीब 175 बच्चों की हत्या।

       मारे गये फ़िलिस्तीनी लोगों में हमास के योद्धा या कमाण्डर मुश्किल से 150 भी नहीं हैं। उन तक तो इज़रायली सेना पहुँच भी नहीं पा रही है और इस प्रयास में अब तक अपने 70 से ज़्यादा सैनिकों को गवाँ चुकी है। इसी हताशा में वह बेगुनाह जनता पर बमवर्षा कर रही है, जिस प्रकार सभी कायर साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी करते हैं। अधिकांश मारे गये लोग बेगुनाह फ़िलिस्तीनी लोग हैं, जो पिछले 75 वर्षों से अपनी कौमी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं।

फ़िलिस्तीनी जनता की इस लड़ाई का समर्थन हमारे देश में महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू व इन्दिरा गाँधी जैसे लोगों तक ने किया था। बुर्जुआ वर्ग के नुमाइन्दे होने के बावजूद उन्होंने माना था कि 1948 में लाखों फ़िलिस्तीनियों को उनकी ज़मीन से दर-बदर कर और हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का कत्ले-आम कर इज़रायल राज्य की स्थापना वास्तव में फ़िलिस्तीन को गुलाम बनाने और एक सेटलर औपनिवेशिक राज्य की स्थापना करना था। वे ही नहीं बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों के बुर्जुआ हुक्मरानों ने इस बात को स्वीकार किया था, विशेष तौर पर वे पूँजीवादी देश जो एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिकी में अमेरिकी, यूरोपीय या जापानी उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त हुए थे। कालान्तर में कई यूरोपीय देशों ने भी इस बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया था कि इज़रायल के नाम पर यूरोपीय ज़ायनवादी व नस्लवादी उपनिवेशवादियों ने मध्य-पूर्व में, यानी पश्चिमी एशिया में, एक उपनिवेशवादी चौकी क़ायम की है।

आधुनिक दौर में दुनिया में आज तक, बेल्जियम के अफ्रीकी उपनिवेशों व कुछ अन्य अफ्रीकी उपनिवेशों को छोड़ दिया जाय, तो इतने नरसंहार करके कम ही उपनिवेश क़ायम किये गये हैं, जितने नरसंहार करके इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी परियोजना को फ़िलिस्तीन में स्थापित किया गया। 1948 में फ़िलिस्तीनियों का बड़े पैमाने पर कत्ले-आम किया गया था। इस समय को फ़िलिस्तीनी जनता ‘नकबा’ या ‘विपदा’ के रूप में जानती है, जब यूरोपीय ज़ायनवादी हत्यारों ने ब्रिटेन द्वारा दिये गये हथियारों के बूते करीब 15,000 निहत्थे और बेगुनाह फ़िलिस्तीनी बच्चों, औरतों और आदमियों का बर्बर नरसंहार किया था, करीब 600 फ़िलिस्तीनी शहरों को उजाड़ दिया था, अनगिन गाँवों को जला डाला था और तत्कालीन फ़िलिस्तीन के 80 प्रतिशत बाशिन्दों, यानी करीब 7 लाख लोगों को विस्थापित कर आस-पड़ोस के देशों में शरणार्थी में तब्दील कर दिया था।

     लेकिन नकबा कोई घटना नहीं थी। नकबा कभी ख़त्म नहीं हुआ और आज भी जारी है। आज भी इज़रायली सेटलर, यानी फ़िलिस्तीनियों को आज भी उनके घरों से खदेड़कर उनके घरों, ज़मीन और खेतों पर कब्ज़ा करने वाले लोग, आज भी फ़िलिस्तीनी जनता के कत्ले-आम और विस्थापन को जारी रखे हुए हैं। पिछले 75 साल बीतने के बाद आज दुनिया में 70 लाख फ़िलिस्तीनी शरणार्थी हैं। इसके अलावा, करीब 60 लाख फ़िलिस्तीनी वेस्ट बैंक और गाज़ा में रहते हैं, जो इज़रायली कब्ज़े में हैं। इन फ़िलिस्तीनियों को इनके ही देश में शरणार्थी बनाकर रखा गया है। उनके खिलाफ़ नस्लवादी अपॉर्थाइड यानी विलगाव की नीति इज़रायली ज़ायनवादियों ने थोप रखी है। उनके लिए पूरे इज़रायल में चेकपोस्ट, अलग सड़कें, अलग मुहल्ले बनाकर रखे गये हैं और वहाँ से भी इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी लगातार उन्हें बेदख़ल कर रहे हैं।

     गाज़ा की स्थिति इसमें सबसे भयावह है। 2006 में गाज़ा की बहादुर जनता के संघर्ष के कारण इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारों को वहाँ से भागना पड़ा। अन्य सेक्युलर कौमी आज़ादी के लिए लड़ने वाली शक्तियों को इज़रायल ने साम्राज्यवादियों की मदद से और अरब विश्व के समझौतापरस्त बुर्जुआ शासकों की मदद से कमज़ोर कर दिया था। इज़रायल ने ही शुरू में, 1980 के दशक में, इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप में गाज़ा में शुरू हुए हमास के आन्दोलन को खड़ा करने में हर प्रकार की मदद की, ताकि मज़दूर वर्ग और कम्युनिस्ट ताक़तें व अन्य सेक्युलर ताक़तें जो फ़िलिस्तीन में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लड़ रही थीं, वे किनारे लग जायें। लेकिन बाद में जनता के संघर्षों के दबाव में हमास का चरित्र भी बदला और 2008 में उसने मुस्लिम ब्रदरहुड से रिश्ते तोड़ लिए। वह इज़रायल के अन्त के लक्ष्य को छोड़कर 1967 के फ़िलिस्तीन-इज़रायल सीमा को स्वीकारने वाले दो राज्यों (इज़रायल व फ़िलिस्तीन) के समाधान पर आ गया। साथ ही, उसके राजनीतिक ब्यूरो के नेता खालिद मशाल के अनुसार, अब वह एक ऐसे फ़िलिस्तीनी राज्य की भी बात करने लगा जो कि अरबी मुसलमान, अरबी यहूदी और अरबी ईसाइयों को बराबर हक़ देता हो।

       यह एक उदाहरण है कि जनसंघर्षों के दबाव में हमास को भी अपने चरित्र में परिवर्तन लाना पड़ा। निश्चित ही, अभी भी हमास एक इस्लामिक संगठन ही है। मज़दूर वर्ग के नज़रिये से राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर उससे कोई एकता नहीं बन सकती है। लेकिन फ़िलिस्तीनी जनता की आज़ादी का समर्थन करने या उसके वीरतापूर्ण मुक्ति संघर्ष का समर्थन करने के लिए आपको हमास का समर्थक होने की कोई आवश्यकता नहीं है। फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष तब भी जारी था, जब हमास नाम कोई संगठन पैदा भी नहीं हुआ था और आज भी वह जारी है। किसी अन्य सेक्युलर, प्रगतिशील व क्रान्तिकारी नेतृत्व की अनुपस्थिति में जनता अपने संघर्ष को स्थगित नहीं कर देती है, वह उसे जारी रखती है, जो भी संसाधन उसके पास होते हैं और जो भी नेतृत्व निर्णायक रूप से लड़ने को तैयार होता है उसके साथ।

भारत में भी मीडिया इज़रायल को पीड़ित पक्ष के रूप में दिखला रहा है और एक ऐसी छवि पेश कर रहा है मानो इतिहास 7 अक्टूबर को हमास के नेतृत्व में हुए हमले के साथ ही शुरू हुआ। वह यह नहीं बता रहा है कि गाज़ा पर पिछले 16 वर्षों से भी अधिक समय से इज़रायल ने ज़मीन, हवा और समुद्र तीनों ओर से एक नाकेबन्दी थोप रखी है। गाज़ा की जनता तक न तो पर्याप्त मात्रा में भोजन पहुँचने दिया जाता है, न ईंधन और न ही अन्य आवश्यक वस्तुएँ और सेवाएँ। नतीजतन, दुनिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या घनत्व रखने वाली यह ‘खुली जेल’ फ़िलिस्तीनियों के लिए एक कब्रगाह बनी हुई है, जहाँ फ़िलिस्तीनी बच्चे-बूढ़े और जवान एक धीमी मौत मर रहे हैं। 7 अक्टूबर को फ़िलिस्तीनी जनता ने जेल तोड़ी और अपने औपनिवेशिक उत्पीड़कों, यानी ज़ायनवादी इज़रायल पर हमला बोला। इस हमले के विरुद्ध इज़रायली उपनिवेशवादियों को “आत्मरक्षा” का उतना ही अधिकार है, जितना कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भगतसिंह व उनके साथियों व अन्य क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ था, या अल्जीरिया में अल्जीरियाई मुक्ति योद्धाओं के हमले के विरुद्ध फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों को था जिन्होंने हथियारों के दम पर अल्जीरिया पर कब्ज़ा कर रखा था।

      हत्यारे, नस्लवादी उपनिवेश–वादियों द्वारा आत्मरक्षा का तर्क दिया जाना न सिर्फ़ बकवास है, बल्कि अश्लील होने की हद तक मज़ाकिया है। अगर आप ज़ोर-ज़बर्दस्ती से किसी दूसरे राष्ट्र की ज़मीन पर कब्ज़ा करते हैं, उसके लोगों का नियमित और व्यवस्थित तौर पर नरसंहार करते हैं, अपने हथियारों की ख़रीदारों के सामने नुमाइश करने मात्र के लिए उन पर बम बरसाते हैं और नये-नये हथियारों का प्रयोग करते हैं, तो आपको उन लोगों द्वारा हिंस्र प्रतिरोध के लिए तैयार रहना चाहिए। यह हिंस्र प्रतिरोध न सिर्फ़ ऐसी दमित कौम का हक़ है, बल्कि इसके अलावा उनके पास और कोई विकल्प भी नहीं है।

     लेकिन दुनिया भर का साम्राज्यवादी मीडिया और हमारे देश का गोदी मीडिया चीज़ों को सिर के बल खड़ा कर देता है। हर जगह फ़ासीवादी और प्रतिक्रियावादी शासक साम्राज्यवादी लूट और कब्ज़े के पक्ष में होते हैं, तब तक जब तक कि इस कब्ज़े का निशाना वे ख़ुद न हों। लेकिन जनता को सच्चाई जाननी चाहिए। मज़दूर वर्ग को हर जगह दमित-शोषित जनता के साथ खड़ा होना चाहिए। गाज़ा में जो हो रहा है, उसके बारे में अगर हम तटस्थ रहेंगे, यह सोचेंगे कि हज़ारों किलोमीटर दूर हो रहे नरसंहार से हमारा क्या मतलब, तो कल हमारे देश के फ़ासीवादी और प्रतिक्रियावादी हुक्मरान जब हमारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे, तो हम भी अकेले होंगे। सर्वहारा वर्ग के अन्तरराष्ट्रीयतावाद का यह बुनियादी उसूल होता है कि हम दुनिया में कहीं भी होने वाले अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलन्द करते हैं। जो सर्वहारा वर्ग ऐसा नहीं करता वह स्वयं भी शोषित और दमित रहने के लिए अभिशप्त होता है।

साथ ही, हमें यह भी समझना होगा कि हमारे देश के हुक्मरानों के इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारी औपनिवेशिक सत्ता के साथ पिछले तीन दशकों के दौरान अपवित्र गठबन्धन बने हैं। हमें कुचलने के तौर–तरीके भारत की पुलिस और सेना को सिखाने इज़रायल की पुलिस व खुफिया एजेंसी मोसाद के लोग नियमित तौर पर भारत आते हैं। भारत के भीतर प्रतिरोध को कुचलने के लिए खुफिया पेगासस ऐप भी भारतीय सरकार को इज़रायली ज़ायनवादियों से ही मिला है। साथ ही, “दंगा नियंत्रण” के नाम पर मज़दूरों को कुचलने से लेकर कश्मीर और उत्तर–पूर्व में दमित कौमों के उत्पीड़न के तमाम तौर–तरीके भारतीय हुक्मरान अपने इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारे बन्धुओं से ही सीख रहे हैं। ज़ायनवादी इज़रायली उपनिवेशवादी केवल फ़िलिस्तीनी जनता के दुश्मन नहीं हैं, वे पूरी दुनिया के सभी दमित–शोषित जनताओं के दुश्मन हैं।

इज़रायल कोई देश नहीं है। यह एक सेटलर औपनिवेशिक परियोजना है। इसे अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने मध्य-पूर्व में अपने हितों की रक्षा के लिए एक गुण्डा पोस्ट के रूप में खड़ा किया गया है। निश्चित ही, हिटलर ने लाखों यहूदियों का कत्ले-आम किया। इन यहूदियों को यूरोप में यहूदी-विरोधी नस्लवाद का सामना करना पड़ा। ऐसे यहूदियों ने हिटलर के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी। इनमें एक अच्छी-ख़ासी आबादी मज़दूरों व मेहनतकश यहूदियों की भी थी। और इनमें से कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी भी थे। जिन प्रगतिशील व क्रान्तिकारी यहूदियों ने हिटलर और नात्सियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी वे हमेशा ज़ायनवाद के विरुद्ध थे। ज़ायनवाद का अर्थ यहूदी लोगों की विचारधारा नहीं है। यह यहूदी लोगों के बीच मौजूद धुर–दक्षिणपन्थी, मज़दूर–विरोधी, प्रतिक्रियावादी और नस्लवादी पूँजीपतियों व टुटपुँजिया वर्गों की विचारधारा थी। क्रान्तिकारी व प्रगतिशील यहूदी जनता ने हमेशा से इसका विरोध किया और आज भी कर रहे हैं। वे हर जगह और हर मंच पर स्पष्ट कर रहे हैं कि ज़ायनवाद का यहूदी जनता से कोई लेना-देना नहीं है।

     वे बार-बार बता रहे हैं कि यहूदियों के नाम पर फ़िलिस्तीनियों का ज़ायनवादी हत्यारों द्वारा कत्ले-आम उन्हें मंज़ूर नहीं है। पूरी दुनिया में ऐसी प्रगतिशील यहूदी आबादी सड़कों पर उतरकर इज़रायल का विरोध कर रही है। लेकिन साम्राज्यवादी मीडिया और हमारे देश का गोदी मीडिया इसे छिपा ले जाता है। वह इज़रायल के झूठे प्रचारों का यहाँ प्रसारण करता है, ताकि हमारे देश में आम मेहनतकश जनता इज़रायल के साथ हमदर्दी रखने लगे। इससे ज़्यादा त्रासद कोई बात नहीं हो सकती है क्योंकि हमने स्वयं 200 साल की औपनिवेशिक गुलामी झेली है और अगर हम ही किसी बर्बर, नरसंहारक और नस्लवादी औपनिवेशिक सत्ता का समर्थन करेंगे, तो इससे ज़्यादा शर्मनाक और त्रासद बात और क्या हो सकती है?

       साथ ही, हर मेहनतकश और मज़दूर को यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि गाज़ा और समूचे फ़िलिस्तीन की संघर्षरत जनता के साथ एकजुटता रखने का मुसलमान होने से भी कोई रिश्ता नहीं है। साम्राज्यवादी प्रचार के असर के कारण कम ही लोग जानते हैं कि फ़िलिस्तीन में अरबी यहूदी और अरबी ईसाई भी रहते हैं, वे भी उतनी ही शिद्दत से फ़िलिस्तीन की आज़ादी के पक्षधर हैं जितनी शिद्दत से फ़िलिस्तीनी मुसलमान। फ़िलिस्तीनी मुसलमान आज से नहीं बल्कि सदियों से अरबी यहूदियों और अरबी ईसाइयों के साथ सामंजस्य में रहते आये हैं। यह बेवजह नहीं है कि इज़रायली राज्य की सीमाओं के भीतर और साथ ही गाज़ा और वेस्ट बैंक में अरबी यहूदियों और अरबी ईसाइयों के साथ भी इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारे उसी किस्म का नस्लवादी और दमनकारी बर्ताव करते हैं, जैसा वे फ़िलिस्तीनी मुसलमानों के साथ करते हैं।

आपको शायद पता भी होगा कि गाज़ा पट्टी पर अपने नये नरसंहारक हमले के दौरान की जा रही भयंकर बमबारी में इज़रायल ने गाज़ा के ईसाई लोगों और उनके चर्चों को ख़ास तौर पर निशाना बनाया है। हम इस पूरी बात को समझने में तब ग़लतियाँ कर बैठते हैं, जब हम इसे मुसलमानों और यहूदियों के बीच के टकराव के रूप में देखते हैं, जबकि वास्तव में यह एक ग़ुलाम और उपनिवेश बनायी गयी कौम और इज़रायली ज़ायनवादी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के बीच का संघर्ष है। यह एक गुलाम देश का गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवादियों के विरुद्ध संघर्ष है।

      आज जब इज़रायल गाज़ा के अस्पतालों, संयुक्त राष्ट्र द्वारा चलाये जा रहे पनाहघरों और स्कूलों व चर्चों तथा मस्जिदों को निशाना बना रहा है, तो इज़रायल के समर्थन में प्रचार करने वाला साम्राज्यवादी मीडिया यह कहता है ऐसा इज़रायल को इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि हमास के योद्धा नागरिकों को ढाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं या उन्होंने इन अस्पतालों, चर्चों, मस्जिदों या स्कूलों को अपने छिपने की जगह बना रखी है। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार, ऐसी सूरत में भी आप किसी अस्पताल, स्कूल या पूजा घर को निशाना नहीं बना सकते हैं। यूँ तो यह इज़रायली दावा भी झूठा है और कई विदेशी एजेंसियों या अन्य देशों द्वारा चलाये जा रहे अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टरों ने वीडियो आदि के ज़रिये इसका सुबूत भी पेश किया है। लेकिन एक झूठ को सौ बार दुहराकर “सच” बनाने के नात्सी तर्क को ही ज़ायनवादी भी मानते हैं।

 वास्तव में, ज़ायनवादी विचारधारा और राजनीति के एक नस्लवादी विचारधारा और राजनीति होने के कारण नात्सियों की फ़ासीवादी विचारधारा व राजनीति से गहरा सम्बन्ध था। ज़ायनवादियों के बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सीधे नात्सियों से रिश्तों के प्रमाण मौजूद हैं। इसी से पता चलता है कि ज़ायनवादियों का यहूदी लोगों के कल्याण आदि से कोई लेना-देना नहीं है, वरना उनके लाखों यहूदियों का नरसंहार करने वाले नात्सियों से रिश्ते न होते। दरअसल, किसी अस्पताल में यदि कोई तथाकथित आतंकवादी भी छिपा हो, तो भी कोई राज्य या सरकार उस अस्पताल पर बमबारी नहीं कर सकता है। कल्पना करें कि आपका कोई रिश्तेदार किसी अस्पताल में भर्ती है। सरकार घोषणा करती है कि उसी अस्पताल में कोई आतंकवादी छिपा है और वह उस पर बम गिराने जा रही है। क्या यह सही होगा? अन्तरराष्ट्रीय कानून इसी वजह से इसकी इजाज़त नहीं देता है और ऐसी स्थितियों के समाधान के दूसरे तरीके होते हैं जो सरकारों द्वारा अपनाये जाने चाहिए और अपनाये जाते भी रहे हैं।

      लेकिन इज़रायल को फ़िलिस्तीनियों की नस्ली व एथनिक सफ़ाई का एक बहाना चाहिए, उनका नरसंहार करने का एक बहाना चाहिए ताकि मध्य-पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवादियों का एक लठैत, एक गुण्डा बैठा रहे और उनके आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त करता रहे।

     गाज़ा के साथ खड़े होना आज दुनिया के हर इन्साफ़पसन्द, तरक्कीपसन्द और जागरूक इन्सान के लिए ज़रूरी क्यों है? क्योंकि गाज़ा का इज़रायली ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष केवल मध्य-पूर्व का एक क्षेत्रीय मसला नहीं है। फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध-युद्ध और मुक्ति संघर्ष आज विश्व की राजनीति में सबसे ज्वलनशील पदार्थों में से एक है। फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष आम तौर पर समूचे साम्राज्यवाद-पूँजीवाद को कमज़ोर बना रहा है और आज विश्व पूँजीवाद के नाक का नासूर बना हुआ है। फ़िलिस्तीनी जनता इज़रायली उपनिवेशवादी राज्य की स्थापना के समय लाखों की संख्या में पूरे अरब विश्व में बिखेर दी गयी थी। आज समूची अरब जनता फ़िलिस्तीनी जनता के दुख-दर्द को शिद्दत से महसूस करती है।

इज़रायल के साथ समझौतापरस्ती करने के कारण लेबनॉन, जॉर्डन, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, आदि सभी देशों की जनता अपने हुक्मरानों से नफ़रत करती है। इज़रायल समूची अरब जनता के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रतीक है, उसका पिट्ठू है और यह बात बिल्कुल सही भी है। इज़रायली बर्बरता और नस्लवाद के विरुद्ध उसकी घृणा अथाह है। अरब विश्व में उठने वाले किसी भी जनज्वार में फ़िलिस्तीनी मुक्ति का सवाल हमेशा शामिल रहा है और हमेशा शामिल रहेगा। इसलिए नहीं कि वे मुसलमान पहचान को साझा करते हैं।

      इसलिए कि वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी नफ़रत को साझा करते हैं। साम्राज्यवाद और ज़ायनवादी नस्लवादी विचारधारा के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध पूरी दुनिया में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ रही जनता के लिए दशकों से प्रेरणास्रोत रहा है और आगे भी रहेगा।

साम्राज्यवादी हमेशा ही मुक्ति के लिए लड़ने वाली जनता को आतंकवादी बताती है। क्या ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने शहीदे-आज़म भगतसिंह और उनके साथियों को आतंकवादी नहीं करार दिया था? इसमें कोई नयी बात नहीं है। लेकिन दुनिया भर में आज अगर तमाम देशों में लाखों-लाख आम लोग फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष और गाज़ा के लोगों के समर्थन में और इज़रायली ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ रैलियाँ निकाल रहे हैं, तो यह साफ़ है कि साम्राज्यवादियों के लाख प्रचार के बावजूद जनता अन्तत: सच्चाई को पहचान जाती है। आज पूरी दुनिया में इज़रायली ज़ायनवादी राज्य आम लोगों के लिए नफ़रत और घृणा की चीज़ है, वह अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद के एक टुच्चे लठैत और गुण्डे से ज़्यादा कोई औक़ात नहीं रखता जो पश्चिमी साम्राज्यवाद द्वारा दिये गये जनसंहार के हथियारों और अरब विश्व के जनविरोधी हुक्मरानों की चुप्पी और समझौतापरस्ती के कारण अरब विश्व की जनता को आतंकित करने, दबाने और कुचलने का काम कर रहा है। वह बेहद डरपोक सेटलर उपनिवेशवादियों का राज्य है, जो पश्चिमी साम्राज्यवाद की मदद के बिना एक घण्टे भी नहीं टिक सकता है। यही वजह है कि इज़रायल के तमाम यूरोपीय यहूदी जो अपने मूल देशों की नागरिकता भी रखते थे, 7 अक्टूबर के बाद ही बड़ी संख्या में पोलैण्ड, यूक्रेन, हंगरी, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में वापस भाग गये! यह भी सोचने की बात है कि इज़रायल के तमाम उपनिवेशवादी ज़ायनवादी दोहरी नागरिकता क्यों क़ायम रखते हैं!

     इसलिए क़ायम रखते हैं क्योंकि सबसे ज़्यादा आत्मविश्वास से लबरेज़ दिखने वाले दमनकारी हुक्मरान भी जानते हैं कि दुनिया में कोई भी दमन स्थायी नहीं होता, दुनिया में कोई भी देश हमेशा के लिए गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है, चाहे ये दमनकारी कितने ही नरसंहार क्यों न करें, कितनी ही क्रूरता और बर्बरता क्यों न करें।

      इज़रायल कोई देश नहीं है। जिस देश को आज साम्राज्यवाद इज़रायल के नाम पर प्रचारित करते हैं, वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है, जिस पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने एक सेटलर उपनिवेशवादी चौकी बिठा रखी है। पश्चिमी साम्राज्यवादियों की इस उपनिवेशवादी चौकी का नाम इज़रायल है। इस चौकी को चलाने के लिए 1917 में ही यूरोप के नस्लवादी श्रेष्ठतावादी विचारधारा रखने वाले और यहूदी बुर्जुआ वर्ग व टुटपुँजिया वर्ग से आने वाले प्रतिक्रियावादी ज़ायनवादियों ने ली थी। इनका मकसद था आयरलैण्ड में ब्रिटिश बस्ती व चौकी (जिसे अल्स्टर कहा गया था) की तर्ज़ पर फ़िलिस्तीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक बस्ती और चौकी, एक यहूदी अल्स्टर बिठाना। फ़िलिस्तीन को ही इसके लिए क्यों चुना गया? ज़ायनवादियों ने अपने नस्लवादी यहूदी राज्य के लिए पहले लातिन अमेरिका व अफ्रीका के कुछ देशों पर भी विचार किया था। लेकिन 1908 में मध्य-पूर्व में तेल मिला। यह कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसलिए अब ज़ायनवादी आन्दोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में एक समझौता हुआ कि यह यहूदी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य फ़िलिस्तीन की जनता को बेदख़ल करके बनाया जाये। इसके लिए ब्रिटेन ने ज़ायनवादी हत्यारे गिरोहों को फ़िलिस्तीन ले जाकर बसाना शुरू किया, उन्हें हथियारों से लैस किया और फिर 1917 से 1948 के बीच हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का इन ज़ायनवादी धुर-दक्षिणपन्थी गुण्डा गिरोहों द्वारा कत्ले-आम किया गया और लाखों फ़िलिस्तीनियों को उनकी जगह-ज़मीन से बेदख़ल किया गया।

यह प्रक्रिया आज भी जारी है। यही कारण है कि हम इसे सेटलर उपनिवेशवादी राज्य कहते हैं। इज़रायल नाम की कोई कौम या देश नहीं है। यह केवल और केवल एक सेटलर उपनिवेशवादी राज्य है जो मध्य–पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद के हितों, विशेषकर तेल से जुड़े हितों, की हिफ़ाज़त के लिए खड़ा किया गया है।

यही वजह है कि दुनिया में हर जगह इंसाफ़पसन्द लोग गाज़ा के साथ खड़े हैं, इज़रायली उपनिवेशवादी प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवादी हत्यारों द्वारा फेंके हुए टुकड़ों पर पल रहा है। गाज़ा की जनता का अदम्य साहस, अकल्पनीय बर्बरता और क्रूरता के सामने भी घुटने न टेकने का दम और साम्राज्यवाद और नस्लवाद के खिलाफ़ लड़ते जाने की ज़िद पूरी दुनिया में संघर्षरत मेहनतकशों, मज़दूरों, दमित राष्ट्रों, दमित समुदायों व नस्लों तथा जातियों के लिए एक प्रतीक है, एक मिसाल है। यह दिखलाती है कि जनता कभी हारती नहीं है। जब तक वह जीतती नहीं, तब तक वह हारती भी नहीं है। वह लड़ती रहती है।

     वह नहीं थकती क्योंकि उसके दिल में आज़ादी की न दबायी जा सकने वाली चाहत है। दमनकारी हत्यारे थक जाते हैं, क्योंकि उनके घृणित दिमाग़ में केवल दमन, अन्याय और नरसंहारों को अपने मुनाफ़े की ख़ातिर जनता पर थोपने की चाहत है।

      हमारे देश में इस मामले की पूरी जानकारी न होने के कारण उतने बड़े पैमाने पर अभी तक इज़रायल द्वारा जारी गाज़ा की जनता के नरसंहार के विरुद्ध बड़े प्रदर्शन नहीं हो सके हैं। हमारे देश में भी जगह-जगह सैंकड़ों प्रदर्शन हुए हैं, जिन्हें दबाने की मोदी सरकार ने पूरी कोशिश की है। लेकिन ये प्रदर्शन और भी बड़े होंगे, यदि फ़िलिस्तीनी जनता के वीरतापूर्ण संघर्ष और घृणित इज़रायली नस्लवादी ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के बारे में बड़े पैमाने पर लोगों को जानकारी दी जाये। हमारे देश में भी इंसाफ़पसन्द लोगों की कोई कमी नहीं है। लेकिन हमें फ़िलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के इतिहास और उसके वर्तमान के बारे में और ज़ायनवादी इज़रायली उपनिवेशवाद की गन्दी सच्चाई के बारे में पूरे देश की जनता को बताना होगा। यह क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है कि समूची मेहनतकश जनता को वह सच से अवगत कराये और उसके आधार पर उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करे। यह काम आज हमें करना ही होगा।

इस समस्या का समाधान फ़िलिस्तीनी जनता की कौमी मुक्ति और एक समाजवादी फ़िलिस्तीन के निर्माण के साथ ही होगा। चाहे यह कुछ वर्षों बाद हो या कुछ दशकों बाद। इज़रायली उपनिवेशवादी राज्य पहले नहीं था। वह आगे भी नहीं रहेगा। एक सेक्युलर, जनवादी और समाजवादी फ़िलिस्तीन होगा जहाँ मुसलमान, यहूदी और ईसाई व अन्य समुदायों की जनता साथ में रहेगी। आज इस दिशा में प्रगति के लिए कोई नेतृत्वकारी राजनीतिक ताक़त नहीं है। लेकिन आज का तात्कालिक कार्यभार फ़िलिस्तीनी जनता के लिए उनकी कौमी आज़ादी है। इस कौमी आज़ादी के बाद अपना भविष्य किस प्रकार और कैसे निर्मित करना है, यह फ़िलिस्तीनी जनता तय करेगी।

      निश्चित ही, फ़िलिस्तीनी सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता इस कौमी आज़ादी की लड़ाई में भी आगे की कतारों में खड़ी है और उसके आगे समाजवाद के लिए संघर्ष में भी वह नेतृत्वकारी भूमिका में होगी। आज का कार्यभार जो इतिहास के एजेण्डे पर पहला बिन्दु है, वह है इज़रायली उपनिवेशवादी राज्य का समूल नाश, साम्राज्यवादी दमन और लूट का फ़िलिस्तीन से सफ़ाया और एक सेक्युलर और जनवादी फ़िलिस्तीन की स्थापना।

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