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चन्द्रोत्पत्ति और एस्ट्रोलॉजिकल साइंस~

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पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक और वैज्ञानिक विविध विचार प्राप्त होते हैं। पौराणिक कथाओं में चन्द्रमा की उत्पत्ति देवासुर संग्राम के समय समुद्र मंथन से हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, चन्द्रमा, सूर्य या सूर्य जैसे अन्य किसी शक्तिशाली नक्षत्र के पृथ्वी के समीप से गुजरने पर, उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से पृथ्वी का एक अंश टूट कर, पृथ्वी से अलग होकर, पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण, उसकी परिक्रमा करने लगा।
आईये देखें वेदों में और वैदिक श्रुतिओं में चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में क्या लिखा है। इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण की निम्नलिखित आख्यायिका अत्यन्त विचारणीय है :
तद्वेव खलु हतो वृत्रः, स यथा दृतिर्निष्पीतः, एवं संव्लीनः शिश्ये। यथा निर्धूतसक्तुर्भस्त्राएवं संलीनः शिश्ये। तमिन्द्रोऽभ्यादुद्राव हनिष्यन्।
~शतपथ ब्रा. (१/६/३/१६)

स होचाव मा नु मे प्रहासीः, त्वं वै तदेतसि यदहम् व्येव मा कुरु, ‘मामुया भूवम्’ इति। स वै ‘मेऽन्नमेधि’ इति। ‘तथा’ इति। इन्द्रः तं वृत्रं द्वेधाऽन्वभिनत् तस्य यत् सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकार। अथ यदस्यासुर्यमासतेनेमाः प्रजाः उदरेणाविध्यत्। तस्मादाहुः- वृत्र एव तर्ह्यनाद आसीद् वृत्र एतर्हि’ इति। इदं यदसौ आपूर्यते अस्मादेवैतल्लोकादादाप्यायते। अथ यदिमाः प्रजाः, अशनमिच्छन्ते- अस्मा एवैतद् वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति। स यो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेद- अन्नादो हैव भवति।
~शतपथ ब्रा. (१/६/३/१७)

तद्वा एष एवेन्द्रो य एष तपति । अथैष एव वृत्रो यच्चन्द्रमाः। सोऽस्यैव भ्रातृव्य जन्मेव। तस्माद यद्यपि पुरा दूरमिवोदितः, अथैवमेतां रात्रिमुपैव न्याप्लवते। सोऽस्य व्यात्तमापद्यते।”
~शतपथ ब्रा. (१/६/४/१८)

व्याख्या :

वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु’
-पाणिनीय धातु पाठ (४१)
अदादि धातु से ‘वेव’ शब्द बना है। तस्माद् वेव अथवा तस्य वेव इस प्रकार तत्पुरुष समास कर तद्वेव शब्द बना है। अर्थात् उस सूर्य की विद्युत तरंगात्मक किरणों की गति तीव्रता, तेजस्विता एवं व्याप्ति से उत्पन्न और प्रक्षिप्त वृत्त ‘खलु’- निश्चय ही, ‘हत:’ मारा गया जैसा हुआ। वह सूर्य से अलग फेंका हुआ ‘दृतिर्निष्पीतः ‘ जल से अलग किये हुए मत्स्य मछली के जैसा एवं संक्लीन: शिश्ये अन्तर्लीन मूच्छित के समान सोता हुआ सा था।
अथवा यथा निर्धूतसक्तुर्भवा चमड़े से ढके हुए सत्तू के पिण्ड के जैसा, एवं संव्लीन: शिश्ये- इस प्रकार सम्यक् रूप से अपने में लीन सोया हुआ सा था। तमिन्द्रोऽभ्यादुद्राव हनिष्यन् – उस वृत्त को सूर्य ने मारने की इच्छा से सब प्रकार से अपनी शक्तियों से आवृत्त कर लिया। तब स होचाव उस वृत्र ने कहा- मा नु मे प्रहासी: तुम निश्चय ही मुझको मत मारो।
तदेतसियदहम् – निश्चय ही जो यह मैं हूँ, वह तुम ही हो, तुमसे ही मेरी उत्पत्ति होने के कारण, तुम्हारा ही अंश होने के कारण, तुम ही मैं हूँ। व्येव मा कुरु- मेरा विभाग मत करो। मामुया भूवम्’ इति मैं इस काया से अलग न होऊँ। स वै ‘मेऽन्नमेधि’ इति- तब सूर्य ने कहा कि मेरे लिए अन्न वनस्पतियाँ एवं प्राणी रूप जीवन बढ़ाओ।
‘तथा’ इति तब उस वृत्र ने कहा ऐसा ही हो। इन्द्रः तं वृत्रं द्वेधाऽन्वभिनत्- तब उस सूर्य रूप इन्द्र ने उस वृत्र को दो अनुकूल भागों में अलग-अलग कर दिया। तस्य यत् सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकार उसका जो सौम्य अलग किया अंश था, उसको चन्द्रमा किया। अथ यदस्यासुर्यमासतेनेमाः प्रजाः उदरेणाविध्यत् अब जो इसका आसुर्य विशाल बड़ा भाग था, उस उदरात्मक भाग के द्वारा यह प्रजा भलीभाँति उत्पन्न हुई।
तस्मादाहुः- वृत्र एव तर्ह्यन्नाद आसीद्-इसलिए कहते हैं कि वृत्र ही अन्न का उत्पादन करने वाला और अत्र का भक्षण करने वाला अन्नाद हुआ। वृत्र एतर्हि’ इति निश्चय ही यह चन्द्र एवं पृथ्वी ही वृत्र है। इदं यदसौ आपूर्यते- अस्मादेवैतल्लोकादादाप्यायते – यह जो चन्द्रमा घटता है और पूर्ण होता है, इस पृथ्वी लोक के द्वारा ही होता है।

मीमांसा :
चन्द्रमा का जो भाग पृथ्वी की ओर है पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा का वह भाग सदैव पृथ्वी की ही ओर रहता है, इसलिए श्रुति ने अनुकूल दो भाग कहा है। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा का पृथ्वी की तरफ का भाग जितने अंश में सूर्य से प्रकाशित होने से दिखता है, उतने अंश में चन्द्रमा क्रमशः घटता और बढ़ता है।
चूँकि चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की की जा रही अनुकूल परिक्रमा के कारण ही ऐसा दर्शन होता है। इसलिए श्रुति ने कहा कि वह इस पृथ्वी लोक के द्वारा ही होता है।
अथ यदिमाः प्रजाः, अशनमिच्छन्ते- अब जो यह प्रजा अशन भोजन की इच्छा करती है। अस्मा एवैतद् वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति- वह इस वृत्र का जो उदरात्मक भाग पृथ्वी है, उससे ही उदर के लिए आहार का आहरण करते हैं। स यो हैवमेतं वृत्रमन्नादं वेद- अन्नादो हैव भवति- वह इस पृथ्वी और चन्द्रमा रूप वृत्र को अन्न का उत्पादन करने वाला और पचाने वाला जानते है, निश्चय ही वे अन्न का उत्पादन करने वाले और अन्न का उपभोग करने वाले होते हैं।
तद्वा एष एवेन्द्रो य एष तपति- वह निश्चय से यह ही इन्द्र है, जो यह तपता है, अर्थात् यह सूर्य ही इन्द्र है। अथैष एव वृत्रो यच्चन्द्रमाः – और यह ही वृत्र है जो चन्द्रमा है। सोऽस्यैव भ्रातृव्य जन्मेव – इसलिए वह इसका भ्रातृव्य जन्मा ही है, तस्माद् – यद्यपि पुरा दूरमिवोदितः.
इसलिए यद्यपि यह पहले दूर उदित हुआ दिखता है, अथैवमेतां रात्रिमुपैव न्याप्लवते किन्तु तेजी से चलता हुआ यह अमावस्या की रात्रि को भलीभाँति इसी को प्राप्त हो जाता है, और नहीं दिखाई पड़ता । सोऽस्य व्यात्तमापद्यते उस अमावस्या को वह चन्द्रमा इस सूर्य के चारो तरफ फैले हुए किरणात्मक मुख में ही समा जाता है।

चन्द्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण :
पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा जब पृथ्वी के सूर्य की तरफ से ठीक दूसरी तरफ होता है, अर्थात् मध्य में पृथ्वी होती है, एक तरफ सूर्य होता है, और एक तरफ चन्द्रमा होता है, तब पृथ्वी से सूर्य की किरणों से प्रकाशित हो रहे चन्द्रमा का पूर्ण भाग दिखाई देता है।
पृथ्वी वासियों के लिए पूर्ण चाँद दिखने की यह पूर्णिमा तिथि होती है। इस समय यह चन्द्र पृथ्वी से जिस तरफ होता है, वह सूर्य उसके ठीक दूसरी दिशा में होता है। इसलिए पूर्णिमा को पश्चिम में सूर्य डूबने के साथ पूरब में पूर्ण चन्द्रोदय होता है।
इसी तथ्य को श्रुति ने कहा कि पहले वो यद्यपि दूर उदित हुआ-सा दिखता है, किन्तु फिर वहाँ से वह पृथ्वी की परिक्रमा में तेजी से चलता हुआ लगभग पन्द्रहवें दिन सूर्य की ही दिशा में आ जाता है। अर्थात् चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में सूर्य के समीप पहुँच जाता है। तब छोटा चन्द्रमा पूरी तरह फैली हुई सूर्य की किरणों में ही समा जाता है।
इसे ही श्रुति ने कहा कि इस अमावस्या को वह सूर्य के किरणात्मक मुख में ही पड़ जाता है। यहाँ तक कि उसकी छाया भी पृथ्वी पर नहीं पड़ती और जब छाया पड़ती है, तो वही सूर्य ग्रहण होता है। इसलिए यह निश्चित है कि सूर्य ग्रहण हमेशा अमावस्या को ही होगा। इसके विपरीत पूर्णिमा को जब चन्द्र और सूर्य के बीच में पृथ्वी होती है, तब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है।
इसीलिए यह भी सुनिश्चित है कि, चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा को ही होगा।
इस तथ्य को इन श्रुतियों में और अधिक स्पष्ट किया गया है :
चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रविशति।
~ऐतरीय ब्रा.(८/२८)

निश्चय ही चन्द्रमा अमावस्या के दिन आदित्य में अनुप्रवेश करता है। अनुप्रवेश का अर्थ है अनुकूल प्रवेश करता है, अर्थात् चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में, ठीक सीध में आ जाता है। मीमांसा- इसलिए सूर्य का जितना भाग चन्द्रमा के द्वारा ढक जाने के कारण उसका प्रकाश जितने अंश में पृथ्वी तक नहीं पहुँचता अमावस्या को उतने अंश में पृथ्वीवासियों के लिए सूर्य ग्रहण होता है।
अमावस्यायां सः चन्द्रमाः अस्य सूर्यस्य व्यात्तमापद्यते। सूर्यः तं चन्द्रमसं ग्रसित्वा उदेति। स चन्द्रमाः न पुरस्तान्न न पश्चाद्ददृशे।
~शतपथ ब्रा. (१/६/४/१-१९)

अमावस्या में वह चन्द्रमा इस सूर्य के फैले हुए मुख में पड़ जाता है। सूर्य उस चन्द्रमा को निगल कर उदित होता है। वह चन्द्रमा न सामने से न पीछे से ही दिखाई देता है।
सूर्य चन्द्रमा से हजारों गुना बड़ा है और उस विशाल जाज्वल्यमान सूर्य से सब तरफ अनन्त किरणें निकल रही हैं। ऐसी स्थिति में सूर्य की अपेक्षा अत्यन्त छोटा चन्द्रमा यद्यपि अमावस्या को पृथ्वी और सूर्य के मध्य में स्थित होता है, तो भी विशाल सूर्य से आती हुई किरणों से चन्द्रमा पृथ्वी से दूरी के दृष्टिगत सूर्य की किरणों में पूर्ण रूप से गायब हो जाता है। उसकी छाया तक पृथ्वी पर नहीं आती।
इसी तथ्य को श्रुति कह रही है कि, सूर्य चन्द्रमा को निगल कर उदित होता है, और किसी भी तरफ से दिखाई नहीं देता। यद्यपि पृथ्वी से जब चन्द्रमा की दूरी कम होती है, तब • अमावस्या को पृथ्वी के जिस भूभाग में सूर्य की किरणें चन्द्रमा के अवरोध के कारण नहीं पहुँच पाती, पृथ्वी के उतने भूभाग में उतने ही अंश में सूर्य ग्रहण होता है।
सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा का प्रकाश वेदों के अनुसार सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित होता है, उसका स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है। यह तथ्य निम्न वेद मंत्र में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है :
सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमाः।
~यजुर्वेद (१८/४०)
सुन्दर सत्कर्म के सम्पादक इस चन्द्रमा की रश्मियाँ-किरणें सूर्य की ही रश्मियाँ है। चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। इस मंत्र की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार है :
सुषुम्णः इति। सुयज्ञियः इत्येतत्। सूर्यरश्मिः इति। सूर्यस्यैव हि चन्द्रमसो रश्मयः।
~शतपथ ब्रा. (९/४/१/९१)

‘सुषुम्ण:’ का अर्थ है सुन्दर सत्कर्म करने वाला। ‘सूर्यरश्मिः इति’ अर्थात् ‘सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा:’ इस शब्द का अर्थ है कि सूर्य की ही रश्मियाँ चन्द्रमा की रश्मियाँ हैं। इसका अर्थ हुआ कि सूर्य की किरणों से ही चन्द्रमा प्रकाशित होता है, और सूर्य की किरणें ही चन्द्रमा से प्रत्यावर्तित होकर हमें दिखाई देती हैं। चन्द्रमा में स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है।
श्रुतियों में यह तथ्य भी स्पष्ट किया गया है कि चन्द्रमा में जो काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, वे पृथ्वी से सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण चन्द्रमा के उखड़कर अलग होने में हुए गड्ढे ही काले धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
एतद्वा इयम् भूमिः अमुष्यां दिवि देवयजनमदधात् यदेतच्चन्द्रमसि कृष्णमिव।
~ऐतरेय ब्रा. (४/२७)
निश्चय ही यह भूमि का ही त्रुटितांश है, जो इस द्युलोक में सूर्य देव ने सत्कर्म की स्थापना के लिए स्थापित किया, वह ही यह चन्द्रमा में कृष्णत्व है।
स यदस्यै पृथिव्या अनामृतं देवयजनमासीत् तच्चन्द्रमसि न्यदधत तदेतच्चन्द्रमसि कृष्णम्।
~शतपथ ब्रा. (१/२/५/१८)
वह जो इस पृथ्वी के लिए पृथ्वी का अनामृत – खण्डित किया गया रूप देव यजन सूर्यदेव का कर्म था, वह ही यह चन्द्रमा में कालेपन के रूप में स्थित है।
यदस्याः पृथिव्याः यज्ञीयमासीत्तदमुष्यां दिवि अदधात् तदश्चन्द्रमसि कृष्णत्वत्म्।
~तैतिरीय ब्रा. (१/१/३/३)

जो इस पृथ्वी का यज्ञीय भाग था, अर्थात् पृथ्वी से अलग किया भाग था, वह ही इस द्युलोक में स्थापित किया गया, वह यह पृथ्वी से अलग किये जाने का प्रतीक रूप चन्द्रमा में कृष्णत्व है, वह इस पृथ्वी का टूटा हुआ भाग ही चन्द्रमा में कालेपन के रूप में दिखता है।
यद्दश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम्।
~मंत्र ब्रा. (१/५/१३)
यह जो चन्द्रमा में कृष्णत्व है, वह पृथ्वी का हृदय है। यहाँ उस मूल आख्यायिका के ही तथ्य को दर्शाते हुए यह स्पष्ट किया गया कि सूर्यदेव ने पृथ्वी पर जीवन एवं अन्नरूप सत्कर्म के लिए जो पृथ्वी से चन्द्रमा को अलग कर स्थापित किया। वह उस समय, पृथ्वी से चन्द्रमा के उखड़ने में जो गड्ढे हुए थे, वे पृथ्वी के चिह्न ही चन्द्रमा में काले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। हृदय इसलिए क्योंकि यह टूटा हुआ भाग सदैव पृथ्वी की ओर ही रहता है।
पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वह त्रुटितांश वैसे-वैसे पृथ्वी की तरफ उतना ही घुमता रहता है जिससे वह भाग सदैव पृथ्वी की ओर बना रहे।

नक्षत्र चाँद्रमास व्यवस्था :
अपनी धुरी पर घूमती हुई पृथ्वी से मध्य आकाश में छोटे-छोटे तारे पृथ्वी के घूमने की विपरीत दिशा में पूरब से पश्चिम जाते हुए दिखाई देते हैं। पृथ्वी के एक बार पूरा घूम जाने पर अर्थात् २४ घंटे बाद, जिस समय जिन तारों को जहाँ देखा था, दूसरे दिन भी उसी समय वह तारे लगभग उसी जगह दिखाई देते हैं।
इस प्रकार २४ घंटे में वृत्ताकार मध्य आकाश के तारे हमारे सामने से घूम जाते हैं।
सूर्य की परिक्रमा करती हुई पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण इनकी स्थिति में वार्षिक परिवर्तन भी स्पष्ट दिखाई देता है। गुरु, शुक्र आदि सभी ग्रह भी इन नक्षत्र समूहों के समीप से प्रतिदिन उसी समय पर कुछ-कुछ अपने स्थान परिवर्तन के साथ दिखाई पड़ते हैं। उनका यह स्थान परिवर्तन पृथ्वी की वार्षिक परिक्रमण गति और उन-उन ग्रहों की स्वयं की गति के कारण होता है।
इसी तरह नक्षत्र मृगशिरा आदि ग्रीष्म ऋतु में रात्रि में जिस समय जिस जगह दिख रहे होते हैं, प्रतिदिन उसी समय ठीक उसी जगह नहीं दिखते अपितु अपनी पूर्वदिन की जगह से अगले दिन थोड़ा हटकर दिखाई देते हैं। इस प्रकार छ: माह बाद हेमन्त ऋतु में १२ घंटे के अंतराल पर दिखाई पड़ते हैं। उनमें हो रहा यह स्थान परिवर्तन पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण होता है।
तथ्य यह है कि ये तारे छोटे-छोटे नहीं अपितु हमारे सूर्य के समान बहुत बड़े-बड़े होने पर भी बहुत दूर होने के कारण छोटे-छोटे दिखाई देते हैं और सूर्य के समान प्रकाशमान होने पर भी मात्र टिमटिमाते हुए लगते हैं। अति दूरी पर होने पर भी पृथ्वी की चाल के क्रम से विपरीत चलते हुए दिखते हैं। जैसा कि वेद मंत्रों में आप ने स्पष्ट देखा कि पृथ्वी की द्विविध चाल है।
अपनी धूरी पर दैनिक, और सूर्य की परिक्रमा करती हुई वार्षिक। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में हजारों हजार वर्ष पहले ऋषिओं ने जो सत्य देखा और लिखा, आज का विज्ञान भी वही कहता है।
पृथ्वी के एक बार पूरा घूम जाने में पूरे मध्य आकाश का जो मंडलाकार भाग आँखों के सामने से घूम जाता है, उसमें टिमटिमाते हुए तारों-नक्षत्रों का समूह पृथ्वी की निश्चित गति के विपरीत उसी गति में पूर्व से पश्चिम चलता हुआ दिखता है, और २४ घंटे बाद हर तारामंडल की पूर्णता पर अपने उसी स्थान पर पुनः होता है। इन टिमटिमाते तारों युक्त इस मध्य आकाश के पूर्ण मंडल को वेद मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने नक्षत्र मंडल कहा है।
इस पूरे नक्षत्र मण्डल को २७ समान भागों में इन तारों से बनने वाली काल्पनिक आकृतियों, कृत्तिका आदि २७ नामों से बाँटा गया है। पुनः इन नक्षत्रों के चार-चार छोटे-छोटे विभाग इनके चरण कहलाते हैं। इस प्रकार २७x४=१०८ नक्षत्र-चरणों का पूर्ण नक्षत्र मंडल या नभ मंडल होता है।इन्हीं १०८ चरणों के नक्षत्र मंडल की माला के भीतर पृथ्वी सहित सभी ग्रह घूम रहे है। इन १०८ चरणों से ही इन सभी ग्रहों की स्थिति एवं गति की गणना होती है।
इसी की प्रतीकात्मक हमारी धारण की जाने वाली, गणना की और जप की माला भी १०८ दानों की होती है। क्योंकि धरती के साथ हम सभी भी इन १०८ नक्षत्र चरणों के भीतर चक्कर काट रहे हैं। कोई चाह कर भी इस माला के भीतर से बाहर नहीं जा सकता है। धरती की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा भी प्रतिदिन इन नक्षत्रों के बीच से जाता हुआ स्पष्ट दिखता है।

यहाँ नक्षत्र मंडल का २७ विभाजन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि २७ की संख्या सम नहीं है। वेदों में इस नक्षत्र मंडल का २७ नक्षत्रों में विभक्त होना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस विषम संख्या का वैदिक मधु माधव आदि आर्तव महीनों का इन २७ विभागों से कोई सम्बंध प्रतीत नहीं होता है। १२ महीनों की दृष्टि से नक्षत्रों पर सूर्य के दिखाई पड़ने के आधार पर यदि इन आर्तव मासों की रचना की जाती तो इस नक्षत्र मंडल के १२ विभाग किये गये होते जो बहुत ही आसान था।
किन्तु इस प्रकार का सरल विभाग न करके अत्यन्त जटिल २७ विभाग करना निश्चित रूप से काफी मंथन कर किया गया प्रतीत होता है। वेदों में २८वें अभिजित् नक्षत्र का भी उल्लेख है, किन्तु गणना में वह २८वाँ नक्षत्र भी इन्हीं २७ नक्षत्रों के भीतर आ जाता है जिसका विस्तृत विवेचन अथर्ववेद में उल्लिखित नक्षत्रों के स्वरूप वर्णन के समय करेंगे। वेदों का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट होता है कि, इन सभी नक्षत्रों का नामकरण और वर्गीकरण चन्द्रमा के साथ उनकी युति को लेकर किया गया है।
इस सम्बंध में यह मंत्र इस रहस्य से पर्दा उठाता हुआ दिखता है :
अथो नक्षत्रणानामेषामुपस्थे सोम अहितः।
~ऋगवेद (१०/८४/०२)
नक्षत्रों के उपस्थ में अच्छी तरह भली भाँति चन्द्रमा को स्थापित किया। इस नक्षत्र मंडल के २७ विभाग करने का रहस्य यह है कि इनमें से १२ नक्षत्रों पर चन्द्रमा की पूर्णिमा तिथियाँ जो इस विभाजन के समय सर्वप्रथम आयीं उनसे ही चंद्र पूर्णमास का नामकरण किया गया।
वह इस प्रकार क्रमशः १कृत्तिकापूर्णमासी, २ मृगशीर्ष पूर्णमासी, ३ पुष्य पूर्णमासी, ४ मघा पूर्णमासी, ५ फल्गुनी पूर्णमासी, ६ चित्रा पूर्णमासी ७ विशाखा पूर्णमासी, ८ ज्येष्ठा पूर्णमासी, ९ अषाढ़ा पूर्णमासी, १० श्रवण पूर्णमासी, ११ भाद्रपद पूर्णमासी, १२ अश्विन पूर्णमासी।

ध्यान रहे वैदिक ग्रन्थों में जगह-जगह इन्हें चन्द्र पूर्णमास कहा गया है।
जैसे— कृतिकापूर्णमासः, फल्गुनीपूर्णमासः, चित्रापूर्णमासः इत्यादि। बाद में मृगशीर्षपूर्णमास को आग्रहायण भी कहा गया है। जिससे लोकमान्य तिलक ने विषुव के बाद मृगशीर्ष नक्षत्र पर पूर्णिमा कब पड़ती थी इसकी गणना कर इसे लिखे जाने के काल का निर्धारण किया है। लेकिन यहाँ यह तथ्य विशेष रूप से ध्यातव्य है कि, वैदिक नक्षत्रों में पहला नाम कृतिका नक्षत्र का है।
इसका मतलब यह हुआ कि जब यह चन्द्र नाक्षत्रमास व्यवस्था बनायी गयी तो विषुव के बाद पड़ने वाली प्रथम पूर्णिमा कृतिका पूर्णिमा ही होती थी।
अधिकमास :
यहाँ वासंतिक विषुव संपात पर फल्गुनी नक्षत्र पर यदि पूर्णिमा कला हुई तो उसके बाद के घटना क्रम पर विचार करते हैं। जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि स्थिर नक्षत्रों के सम्बन्ध में सूर्य की परिक्रमा करती हुई पृथ्वी से सूर्य जिस नक्षत्र पर दिख रहे होते हैं, पूर्ण परिक्रमा के उपरान्त पुनः सूर्य जब उसी नक्षत्र के उसी बिन्दु पर दिखाई दें तो इतने समय को एक नाक्षत्र सौर वर्ष कहते है, उसका मान दिनादि ३६५ दिन ६ घंटा १२ मिनट ३६ सेकण्ड है।
अर्थात् जब फल्गुनी नक्षत्र पर विषुव सम्पात में पूर्णिमा कला हुई तब सूर्य भाद्रपद नक्षत्र पर दिख रहे थे। और इतने दिनों बाद पुनः सूर्य उसी बिन्दु पर भाद्रपद नक्षत्र पर दिखेंगे। किंतु चन्द्रमा वहीं से पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ इतने दिनों में पृथ्वी की १२ परिक्रमाएँ पूर्ण कर १३वीं परिक्रमा में होगा किन्तु वहाँ चन्द्रमा की पूर्णिमा कला नहीं होगी।
क्योंकि चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा ही एक चान्द्रमास होता है और ऐसी १२ परिक्रमाओं का एक चान्द्र वर्ष और इन १२ परिक्रमाओं में लगने वाला समय ३५४ दिन ८ घंटा ४८ मिनट ३८ सेकेण्ड होता है। यह उक्त नाक्षत्र सौर वर्ष से १० दिन २२ घंटा ३३ मिनट ३६ सेकेण्ड कम होता है। इस प्रकार १२ वें चान्द्रमास में आने वाली फल्गुनी पूर्णिमा, नाक्षत्र सौर वर्ष से इतने समय पूर्व ही आ जायेगी।
उसके बाद आने वाली १३वीं चित्रा नक्षत्र पर पड़ने वाली पूर्णिमा सूर्य के भाद्रपद नक्षत्र के उसी बिन्दु पर दिखने के १८ दिन १४ घंटा २ मिनट २३ सेकेण्ड बाद आयेगी। यही द्वितीय नाक्षत्र वर्ष की पहली पूर्णिमा होगी। द्वितीय नाक्षत्र वर्ष में फल्गुनी पूर्णिमा २१ दिन २१घंटा ७ मिनट १२ सेकेण्ड पहले ही आ जायेगी। और चित्रा पूर्णिमा ७ दिन १५ घंटा २८ मिनट ५१ सेकेण्ड नाक्षत्र सौर वर्ष की पूर्णता के बाद आयेगी। स्पष्ट है कि तीसरे नाक्षत्र सौर वर्ष में १२ से एक अधिक अर्थात् १३ पूर्णिमा कलायें होंगी।
इस तृतीय वर्ष में एक अधिक अर्थात् १३ पूर्णिमा कलायें होने पर भी यह १३वीं पूर्णिमा कला सूर्य के भाद्रपद नक्षत्र के निर्धारित बिन्दु पर दिखने के ३ दिन ७ घंटा ४ मिनट ४५ सेकेण्ड पहले ही आ जायेगी। इसलिए यह पूर्णिमा कला वर्ष के प्रथम चरण में ही कहीं आयेगी, और वह अपने निश्चित नक्षत्र पर न होकर, उस नक्षत्र के पहले ही आ जायेगी, और इस प्रकार यह एक अधिकमास चाँद्र वर्ष में जुट जाने से यह चान्द्र वर्ष नाक्षत्र सौर वर्ष में परिणत हो जायेगा।
यहाँ विशेष रूप से इस अधिकमास के विषय में यह समझना है कि, इन नक्षत्रों पर पूर्णिमा के निर्धारण के साथ ही, जब निर्धारित नक्षत्र पर पूर्णिमा होने के बाद अगली पूर्णिमा अगले निर्धारित नक्षत्र के आने के पहले ही आये, तो ऐसी स्थिति में उसे नाक्षत्र अधिकमास मानने की व्यवस्था की गयी। जैसे विशाखा नक्षत्र पर पूर्णिमा होने के बाद अगली पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र पर होनी चाहिए।
किन्तु यदि यह पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र आने के पहले ही आ जाये, तो अधिक ज्येष्ठ मास होगा। उसके बाद आने वाली अगली पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र पर ही होगी।

क्षयमास :
यहाँ यह भी ध्यान रहना चाहिए कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा गोल वृत्त में नहीं करती है, अपितु उसका परिक्रमा मार्ग दीर्घ वृत्ताकार है। जैसा कि वैदिक कालचक्र के वर्णन के समय आर्तव सौर मासों और वर्ष का वेद मंत्रों के अनुसार वर्णन करते हुए स्पष्ट किया गया है।
वहाँ यह भी बताया गया है कि इस दीर्घ वृत्ताकार पृथ्वी के परिक्रमा मार्गात्मक कालचक्र का दर्शन करने वाले ऋषि का नाम इसी कारण दीर्घतमा हो गया। इस परिक्रमा मार्ग पर पृथ्वी जब सूर्य के नजदीक से घूम रही होती है, ऐसी परिस्थिति में जिस नक्षत्र पर पूर्णिमा हुई उसकी अगली पूर्णिमा अग्रिम पूर्णमास हेतु निर्धारित नक्षत्र के बीतने पर उसके बाद वाले मास हेतु निर्धारित नक्षत्र पर आये तो उसके क्षयमास की व्यवस्था बनायी गयी।
जैसे पुष्य नक्षत्र पर पूर्णिमा होने के उपरान्त उसकी अगली पूर्णिमा मघा नक्षत्र पर आनी चाहिए। किन्तु वह मघा नक्षत्र के बजाय फल्गुनी नक्षत्र पर आती है, तो माघ क्षयमास होगा। और जब कभी भी क्षयमास होता है, तो यह निश्चित है कि, उस क्षयमास के पहले एक अधिकमास हुआ होगा, और क्षयमास के बाद भी उसी वर्ष में पुनः एक अधिकमास होगा। यह क्षयमास कम से कम १३ वर्षों के अन्तराल के बाद ही आता है।
इस प्रकार इस नक्षत्र मंडल के २७ विभाग करके उनके २७ नाम और उन २७ नक्षत्रों के चार चरणों की व्यवस्था और उन नक्षत्रों में से १२ नक्षत्रों पर पूर्णिमा की व्यवस्था, उनमें उक्त क्रम से अधिकमास और क्षयमास की व्यवस्था द्वारा चान्द्रवर्ष को नाक्षत्र सौरवर्ष में परिणत होते रहने की दिव्य व्यवस्था की गयी, इसी तथ्य को समझाने के लिए ही वेद ने कहा :
अथो नक्षत्रणानामेषामुपस्थे सोम आहितः।
~ऋग्वेद (१०/८५/०२)
नक्षत्रों के उपस्थ में अच्छी तरह, भलीभाँति चन्द्रमा को स्थापित किया।
पौर्णमासिक नाक्षत्र चन्द्रमास नामकरण- इसीलिए ऋषियों ने जिन नक्षत्रों पर चंद्रमा अपनी पूर्ण कला पर पहुँचा, उसी नक्षत्र के नाम से उस महीने का नाम रखा। उसी तिथि को उस चाँद्र महीने की पूर्णता मानते हुए उस चाँद्र माह की पूर्णमासी तिथि कहा गया है.
१. चित्रा नक्षत्र पर पूर्णिमा कला हो तो माह का नाम चैत्र तिथि चैत्र पूर्णमासी अर्थात् चैत्रमास पूर्ण।
इसी प्रकार :
२. विशाखा नक्षत्र पर पूर्णिमा वैशाख,
३. ज्येष्ठा नक्षत्र पर पूर्णिमा ज्येष्ठ,
४. आषाढ़ा नक्षत्र पर पूर्णिमा आषाढ़,
५. श्रवण नक्षत्र पर पूर्णिमा श्रावण,
६. भाद्रपद नक्षत्र पर पूर्णिमा भाद्र,
७. अश्विनी कुआर नक्षत्र पर पूर्णिमा आश्विन कुमार,
८. कृत्तिका नक्षत्र पर पूर्णिमा कार्तिक,
९. मृगशिरा नक्षत्र पर मार्गशीर्ष,
१०. पूषा नक्षत्र पर पूर्णिमा पौष,

११. मघा नक्षत्र पर पूर्णिमा माघ और १२. फाल्गुनी नक्षत्र पर पूर्णिमा फाल्गुन को भी समझना चाहिए।

चन्द्रमा पृथ्वी की और पृथ्वी के साथ-साथ सूर्य की परिक्रमा करता है। यहाँ इस खगोल में जिस पिण्ड की, जिस पिण्ड से उत्पत्ति हुई है। वह पिण्ड अपने उस उत्पादक मूल पिण्ड की परिक्रमा करता रहता है।
इसका कारण यह है कि, वृहद् भागात्मक मूल पिण्ड में गुरुत्वाकर्षण की अधिकता होती है। इसलिए उस गुरुत्वाकर्षण के बल के कारण यह उससे उत्पन्न हुआ पिण्ड अपने उस मूल पिण्ड से बधा हुआ उसकी परिक्रमा करता रहता है। इसलिए सूर्य से निकले हुए पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। इसी कारण से सूर्य से निकले हुए पिण्ड सूर्य के ग्रह हैं, और सूर्य उनका ग्रही है।
चन्द्रमा पृथ्वी से अलग हुआ पृथ्वी का ही एक भाग है, और पृथ्वी सूर्य से निकली है, इस प्रकार पृथ्वी सूर्य का ग्रह है, और चन्द्रमा पृथ्वी का ग्रह एवं सूर्य का उपग्रह है। सूर्य से निकले हुए मुख्य पिण्ड है बृहस्पति, शनि, पृथ्वी, मंगल, शुक्र, बुधा चन्द्रमा पृथ्वी से निकला हुआ पिण्ड है। इसलिए चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ, सूर्य की परिक्रमा कर रही पृथ्वी के साथ साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता रहता है।
इन ग्रहों के ग्रह सूर्य के उपग्रह हैं, किंतु वे उपग्रह जिस ग्रह से उत्पन्न हुए हैं, उस ग्रह के तो ग्रह ही हैं। अन्य ग्रहों की अपेक्षा अपने ग्रह का प्रभाव ग्रही ग्रह पर अधिक पड़ता है। इसी कारण से पृथ्वी पर चन्द्रमा का प्रभाव सर्वाधिक है।

चन्द्रमा का अपने अक्ष पर घूर्णन व चान्द्रमास जिस प्रकार पृथ्वी अपने अक्ष पर प्रत्येक अहोरात्र में एक बार घूम जाती है, चन्द्रमा उस प्रकार अपने अक्ष पर नहीं घूमता है। बल्कि चन्द्रमा का जो भाग पृथ्वी की ओर सीधा है, अर्थात् पृथ्वी से उखड़ा हुआ पृथ्वी का हृदय रूप चन्द्रमा का कालिमांस युक्त भाग, सदैव पृथ्वी की ओर ही बना रहता है।
चन्द्रमा के द्वारा की जा रही पृथ्वी की परिक्रमा में भी, उसकी उस स्थिति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता। इस प्रकार से पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा, पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करने के साथ स्वाभाविक रूप से एक बार घूम जाता है। चूँकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है, इसलिए पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा स्वाभाविक रूप से पृथ्वी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा कर लेता है।
अपनी गति की दृष्टि से चंद्रमा पृथ्वी की एक परिक्रमा साढ़े सत्ताइस (२७.५) दिन में ही पूरी कर ले, किंतु पृथ्वी के भी सूर्य की परिक्रमा में लगातार आगे बढ़ते रहने के कारण वह पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग साढ़े उनतीस (२९.५) दिन में पूरी करता है। चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा का यह काल ही एक चान्द्रमास है।

चन्द्रकलाएँ और उनसे चान्द्रमास की उत्पत्ति इस प्रकार पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा जब सूर्य और पृथ्वी के मध्य में आ जाता है, तब सूर्य की तरफ का चन्द्र गोलार्ध तो सूर्य के सामने होने से प्रकाशित होता है, किंतु पृथ्वी से हमें दिखने वाला पृथ्वी की तरफ का चन्द्र गोलार्ध पूरी तरह अंधकार में होता है, जिससे चंद्रमा हमें नहीं दिखाई देता। क्योंकि पृथ्वी की भाँति चंद्रमा भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है, उसका अपना कोई प्रकाश नहीं होता, जैसा कि यह वेद वचन है :
सूर्यरश्मिश्चन्द्रमाः।
~यजुर्वेद (१८/४०)
सूर्य की किरणें ही चंद्रमा पर हैं।
अर्थात् सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित है। वह प्रकाशित भाग सूर्य की तरफ होने से हमें नहीं दिखाई देता और जो भाग हमारे सम्मुख होता है, वह सूर्य के विपरीत दिशा में होने से पूर्ण रूप से अंधकार में होता है, इसलिए वह भी हमें नहीं दिखाई देता। इस प्रकार सूर्य और पृथ्वी के बीच पहुँचा हुआ चन्द्रमा जिस रात्रि में हमको पूर्ण रूप से नहीं दिखाई देता, चन्द्रमा की इस कला को अमाकला कहते हैं। यह अमाकला ही अमावस्या की तिथि होती है।
इसके ठीक विपरीत पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा जब पृथ्वी से सूर्य की विपरीत दिशा में होता है, पृथ्वी बीच में होती है, तब पृथ्वी से दिखने वाला चंद्र गोलार्ध प्रकाश में होता है। यही पूर्णिमाकला होती है, इसे ही पूर्णमासी कहते हैं। यहाँ यह भी समझना चाहिए कि सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथ्वी का टूटा हुआ जो भाग, दूर गये हुए चन्द्रमा के रूप में स्थित है, उसमें पृथ्वी से खण्डित पृथ्वी से उखड़ा हुआ भाग ही पृथ्वी से सदैव सम्मुख होता है।
पृथ्वी से उखड़ने के समय उखड़ा हुआ भाग स्वाभाविक रूप से ऊँचे-नीचे विशाल गड्ढों से युक्त है। पृथ्वी से दिखने वाला यह चन्द्रमा के गोलार्ध में बड़े-बड़े गड्ढों से युक्त भाग ही पूर्णिमा तिथि में पूर्णचन्द्र दर्शन में हल्की कालिमा के रूप में दिखाई देता है जिसका विस्तार से वर्णन चन्द्रोत्पत्ति प्रकरण में किया जा चुका है।

पृथ्वी से प्रत्यक्ष सामने, पृथ्वी से टूटा हुआ, चन्द्रमा का गोलार्ध पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे चन्द्रमा की स्थिति में निरन्तर हो रहे परिवर्तन के कारण क्रमश: भित्र-भित्र कोणान्तरों में पहुँचने के कारण पृथ्वी से विभिन्न मात्रा में दिखाई देता है। पूर्णिमा तिथि से वह क्रमशः प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा क्षीण होता हुआ अमावस्या को पूर्णरूप से नहीं दिखता। इसी प्रकार प्रतिरात्रि क्रमशः अमावस्या से आगे बढ़ता हुआ थोड़ा-थोड़ा दिखने से प्रारम्भ कर प्रतिरात्रि बढ़ता हुआ अमावस्या से लगभग १५ वें दिन पूर्णता को प्राप्त कर पूर्णिमाकला से युक्त पूर्णिमा तिथि बनाता है।
जब चन्द्रमा भूमि की परिक्रमा करता हुआ, भूमि और सूर्य के बीच में प्राप्त होता है, तब पृथ्वी से प्रत्यक्ष दिखने वाला चन्द्रमा का गोलार्ध, सूर्य सम्मुख गोलार्ध का पृष्ठ भाग होता है। इसलिए पूर्ण रूप से अंधकार में होता है। सूर्य की किरणें सीधी रेखा में चलती हैं। इसलिए वे सूर्य की तरफ के गोलार्ध को ही प्रकाशित करती हैं। उसके विपरीत गोलार्ध में निशा होती है। इसलिए इस स्थिति में चन्द्रमा का पृथ्वी के सम्मुख दिखने वाला निशायुक्त गोलार्ध नहीं दिखाई देता। इस समय चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है, अतएव इसे अमावस्या कहते हैं। जैसा कि श्रुति कहती है :
चन्द्रमा वा अमावस्यायामादित्यमनुप्रविशति।
~ऐतरेय ब्रा. (८/२८)
निश्चय ही चन्द्रमा अमावस्या को आदित्य-सूर्य के मुख में प्रविष्ट हो जाता है।
अमावस्यायां सः चन्द्रमा अस्य सूर्यस्य व्यात्तमापद्यते। सूर्यः तं चन्द्रमसं ग्रसित्वा उदेति। स चन्द्रमाः न पुरस्तान्न न पश्चाद्ददृशे।
अमावस्या को वह चन्द्रमा इस सूर्य के फैले हुए मुख में चला जाता है। सूर्य उस चन्द्रमा को निगल कर उदित होता है। इसलिए वह चन्द्रमा न सामने से और न ही पीछे से दिखाई देता है। मीमांसा – सूर्य चन्द्रमा से हजारों गुना बड़ा है। जब चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ सूर्य और पृथ्वी के बीच में आता है, तब सूर्य के अत्यधिक बड़ा होने के कारण सूर्य की सीधी और तीरछी चलने वाली किरणों से पृथ्वी से दूर होने से पृथ्वी तक उसकी छाया भी नहीं पड़ती, अथवा कुछ नजदीक होने पर जितने अंश में पृथ्वी पर उसकी छाया पड़ती है, पृथ्वी के उस भाग में अमावस्या की तिथि पर सूर्य ग्रहण दिखाई देता है। इसलिए सूर्यग्रहण हमेशा अमावस्या को और चंद्रग्रहण पूर्णिमा को होता है।

चक्र या वृत्त को मापने का कोणात्मक परिमाण वेद में वृत्त के केन्द्र से परिधि को कोणात्मक ३६० विभागों में बाँटा गया है। इसे ही अंश कहा जाता है। पुनः उस एक अंश को ६० भागों में विभक्त करने पर एक भाग को कला कहा जाता है। पुनः उस कला के एक भाग को ६० भागों में बाँटने पर एक भाग को विकला कहा जाता है। उसे अंकों में इस प्रकार जानना चाहिए :
१ वृत्त या चक्र = ३६०° अंश
१ अंश = ६०’ कला
१’ कला = ६०” विकला
मध्यकालीन ज्यातिषियों ने वृत्त या चक्र के समान कोणात्मक १२ विभाग किये और उनके एक-एक भाग को राशि कहा। चूँकि वृत्त ३६०° अंश का होता है, इसलिए एक राशि ३०° अंश । यहाँ क्रमशः अंश, कला और विकला के चिह्नों को, जो प्राचीन काल से ज्योतिष ग्रन्थों में प्रचलित हैं, शून्य के साथ लगाकर प्रदर्शित किया जा रहा है.
अंश का चिह्न = 0°
कला का चिह्न = o’
विकला का चिह्न =0
चन्द्रमा की शुक्लपक्षीय कलायें एवं शुक्ल पक्ष जैसा कि बताया जा चुका है कि, पृथ्वी की परिक्रमा चन्द्रमा २९.५ दिन में एक बार पूरी कर लेता है, जब चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में होता है, तो अमावस्या तिथि होती है। चन्द्रमा प्रत्येक अहोरात्र अर्थात् २४ घण्टे में लगभग १२° अंश मार्ग चलता है, इस द्वादश अंश मार्ग में लगने वाले समय को एक चान्द्र तिथि कहते हैं। चन्द्रमा के परिक्रमण-मार्ग के द्वादश अंशात्मक ३० विभाग होते हैं। अमावस्या से अगली रात्रि तक चन्द्रमा भूमि की परिक्रमा करता हुआ अपने उस स्थान से बारह अंश आगे हटकर पूर्व दिशा में पहुँच जाता है।
तो भी अत्यन्त थोड़ी तिरछी प्रकाश की किरणों से पृथ्वी से दिखने वाले चन्द्रभाग का स्पर्श होने पर भी चन्द्रमा नहीं दिखता। क्योंकि सूर्यास्त काल का अनुवर्तन करता हुआ वह किञ्चित् प्रकाश स्पर्शित चन्द्रांश सूर्य के अस्त होने के साथ शीघ्र ही अस्त हो जाता है। अमावस्या से दूसरी रात्रि में चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य की मध्यवर्ती काल्पनिक रेखा से २४° अंश पूर्व दिशा में आगे चला जाता है तब उस रात्रि में लोगों को चन्द्रमा सायं काल पश्चिम दक्षिण के कोने पर सूर्य की किरणों से प्रकाशित हुआ, सूर्य की दिशा में खण्डित वृत्ताकृति के सातवें अंश के बराबर दिखाई पड़ता है।
उस दिन भी दैनिक गति के कारण से पृथ्वी सूर्य की मध्यवर्ती काल्पनिक ऋजुरेखा से अधिक दूर न गये हुए होने के कारण शीघ्र ही अस्त हो जाता है। इस प्रकार से प्रत्येक रात्रि में चन्द्रमा अपनी पूर्व रात्रि से १२° अंश पूर्व में जाता हुआ काल्पनिक ऋजुरेखा से कोणान्तर में जैसे-जैसे दूर जाता है वैसे-वैसे ही पृथ्वी से दिखने वाला चन्द्रमा का गोलार्ध प्रति रात्रि अधिकाधिक प्रकाशित होता है। सप्तमी या अष्टमी रात्रि में जब कोणान्तर ९०° अंश हो जाता है, तब पृथ्वी के सम्मुख स्थित चन्द्र गोलार्ध का आधा भाग मध्याकाश में प्रकाशित हुआ सायं काल से ही दिखता है, और पश्चिम दिशा में गति करता हुआ, मध्यरात्रि पश्चिम में अस्त होता है। यह शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि होती है। पुनः प्रत्येक अहोरात्र को १२° अंश आगे बढ़ता हुआ जब अमा से कोणान्तर १८०° अंश हो जाता है जो अमा से १५ वें दिन पड़ता है, उस रात्रि पृथ्वी से दिखने वाला सम्पूर्ण चन्द्र गोलार्ध सूर्य की किरणों के सीधे सामने होने के कारण, सम्पूर्ण प्रकाशित होता है।
यही चन्द्रमा की पूर्णिमाकला होती है, इसे ही पूर्णमासी तिथि कहते हैं। चूँकि अमावस्या के बाद होने वाली प्रत्येक रात्रि, चन्द्रमा के प्रकाशितांश दर्शन से शुरू होती है। इसलिए अमावस्या के बाद प्रतिप्रदा से लेकर पूर्णिमा तक के पक्ष को शुक्ल पक्ष कहा जाता है।

चन्द्रमा की कृष्णपक्षीय कलायें और कृष्णपक्ष पूर्णिमा कला के उपरान्त पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा, प्रति रात्रि १२° अंश कोणान्तर में क्षीण होता है। क्योंकि चन्द्रमा प्रति रात्रि पूर्णिमा तिथि की काल्पनिक ऋजु रेखा से १२° अंश पश्चिम चला जाता है, तदनुसार ही चन्द्रमा की कला भी पूर्व दिशा में क्षीण हो जाती है। अर्थात् पृथ्वी के सम्मुख स्थित चन्द्र गोलार्ध का १ / १४° अंश पूर्व दिशा में नहीं प्रकाशित होता। प्रत्येक रात्रि को उसी प्रकार क्रमशः पूर्व दिशा में क्षीण होता हुआ चन्द्रमा उसी प्रकार विलम्ब से उदित होता है।
क्रमशः प्रतिदिन पूर्णिमा की काल्पनिक ऋजु रेखा से पश्चिम बढ़ते हुए चन्द्रमा का कोणान्तर जब ९०° अंश पर पहुँचता है तो उस पूर्णिमा के बाद आने वाली ७वीं या ८वीं रात्रि में चन्द्रमा मध्य रात्रि को आधा क्षीण हुआ उदित होता है। यह कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि होती है। इसी प्रकार जब चन्द्रमा पूर्णिमा तिथि की काल्पनिक ऋजुरेखा से १६८° अंश चलकर १३वीं या १४वीं रात्रि को सूर्य और पृथ्वी की सीधी काल्पनिक रेखा में आने से मात्र १२° अंश दूर रह जाता है, तब यह कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि होती है।
इस रात्रि को चन्द्रमा प्रातः सूर्योदय से थोड़ा पूर्व खण्डाकार पश्चिम दिशा में उदित होकर सूर्योदय के साथ ही अस्त होता है। चूँकि पूर्णिमा तिथि के बाद चन्द्रमा प्रत्येक रात्रि में रात्रि आरम्भ होने के पश्चात् उदित होता है, और क्रमशः प्रति रात्रि विलम्ब से उदित होता हुआ क्षीण भी होता जाता है। इस प्रकार पूर्णिमा के बाद अंधकार से रात्रि के आरंभ होने के कारण अमावस्या तक के इस पक्ष को कृष्णपक्ष कहते हैं। इस सम्बंध में श्रुतियाँ इस प्रकार हैं :
अथो चन्द्रमा वै भान्तः पञ्चदशः स च पञ्चदशाहान्यापूर्यत पञ्चदशापक्षीयते तद्यत्तमाह भान्त इति भाति हि चन्द्रमाः।
~शतपथ ब्रा. (८/४/१/१०)
निश्चय ही चन्द्रमा पञ्चदश तिथियों में रात्रि के आरम्भ से प्रकाशित होता है। वह पञ्चदश दिनों तक प्रतिदिन आपूरित होता हुआ पञ्चदशवीं रात्रि को पूर्णता को प्राप्त होता है। इसी प्रकार पूर्णता को प्राप्त पूर्णिमा से प्रतिदिन क्षीण होता हुआ पञ्चदशवें दिन की रात्रि को पूर्णरूप से क्षीण होकर अमावस्या तिथि को नहीं दिखता है। उसे ही यह कहते हैं कि प्रतिदिन नव नव रूपों में चन्द्रमा प्रकाशित होता है।
चन्द्रमा वै पञ्चदशः।
एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते पञ्चदश्यामापूर्यते।
~तैतरीय ब्रा.(१/५/१०/५)
चन्द्रमा निश्चय ही पञ्चदश तिथियों वाला है, यह प्रतिदिन क्रमशः क्षीण होता हुआ पञ्चदशवीं तिथि को पूर्ण रूप से क्षीण होकर नहीं दिखता। इसके बाद इसी प्रकार क्रमशः प्रतिदिन बढ़ता हुआ पञ्चदशवीं तिथि को पूर्ण होता है.
षोडशकलो वै चन्द्रमाः।
~षड्विंस ब्रा. (४/६)
निश्चय ही चन्द्रमा षोडश कलाओं वाला है। वह इस प्रकार कि प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक १४ कलायें एक अमा कला और एक पूर्णिमा कला इस प्रकार कुल १६ कलायें होती हैं।
चन्द्रमा वै जायते पुनः।
~तैतरिय ब्रा० (३/९/५/४)
निश्चय ही चन्द्रमा पुनः उत्पन्न होता है। निश्चय ही चन्द्रमा पूर्णिमा तिथि से क्षीण होता हुआ अमावस्या में पूर्ण विलीन हो जाता है, तदुपरान्त अगले दिन रात्रि के आरम्भ में पुनः उत्पन्न होता है।
चन्द्रमा द्विपात्तस्य पूर्वपक्षापरपक्षौ पादौ।
~गोपथ ब्रा. (पूर्व भाग २ / ८)

द्विपाद चन्द्रमा के पूर्वपक्ष और अपरपक्ष- ये दो पाद हैं.
रात्रिर्वै चंन्द्रमाः।
~शतपथ ब्रा. (१२/७/४/४१)
निश्चय ही रात्रि ही चन्द्रमा है।
चन्द्रमा का प्रकाश रात्रि में ही दिखता है। इसलिए चन्द्र कलाओं का महत्व और उनका परिगणन रात्रि के चन्द्र प्रकाश ज्ञान के लिए ही किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि, श्रुति यहाँ यह तथ्य स्पष्ट कर दे रही है कि, चन्द्रकलाओं से ऋतुओं के ज्ञान का कोई सम्बंध नहीं है। रात्रि का परिगणन चन्द्रकलाओं से ही करना चाहिए। इसीलिए चन्द्रप्रकाश से प्रारम्भ होने वाली रात्रि को शुक्ल पक्ष और चन्द्रोदय से रहित प्रारम्भ होने वाली रात्रि को कृष्ण पक्ष कहते हैं।

   चान्द्रमास :

इस प्रकार पूर्णिमा से पूर्णिमा पर्यन्त चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की, की गयी एक पूर्ण परिक्रमा को एक चान्द्रमास कहते हैं। इसलिए पूर्णिमा तिथि को एक चान्द्रमास पूर्ण होने के कारण पूर्णमासी तिथि कहते हैं।
इस परिगणन का दूसरा प्रकार यह है कि, अमावस्या कला के दूसरे दिन से अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से मास का आरम्भ कर अमावस्या तिथि को मास की पूर्णता करते हैं। इस प्रकार चान्द्र पूर्णिमान्त और अमान्तमास प्रचलित है।

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