शशिकांत गुप्ते
सुना है राजनीति एक क्लासिक फिल्म है
हीरो: बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज अपना नाम बदलता है
हीरोइन: हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्स्ट्रा: लोकसभा और राजसभा के मैम्बर
फाइनेंसर: दिहाड़ी के मज़दूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनांस करते नहीं,
करवाये जाते हैं)
संसद: इनडोर शूटिंग का स्थान
अख़बार: आउटडोर शूटिंग के साधन
यह फिल्म मैंने देखी नहीं
सिर्फ़ सुनी है
क्योंकि सैन्सर का कहना है —
‘नॉट फॉर अडल्स।
प्रख्यात साहित्यकार कवियत्री स्व. अमृत प्रीतम रचित उक्त कविता राजनैतिक व्यवस्था पर व्यंग्य है।
साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार ही समाज को आईना दिखा सकता है। आईना दिखाना एक मुहावरा है।
आईना दिखाना मतलब यथार्थ से अवगत कराना।
समय परिवर्तनशील है।अमृता प्रीतमजी ने जब उक्त कविता लिखी उस समय की राजनैतिक स्थिति और आज की स्थिति में बहुत अंतर है।
आज सियासी फ़िल्म के लिए फाइनांस धनकुबेर करतें हैं।
मजदूर,कामगार,और खेतिहर लोग तो इस इतंजार में है कि, उनके निवाले पर टैक्स कब लगेगा? आमजन तो अब रूखी-सुखी रोटी के निवालें भी गिन कर खाना पड़ सकतें हैं?
वर्तमान में इनडोर में शूटिंग पर सैंसर लगाने की पहल हो रही है।
आउटडोर शूटिंग सिर्फ अति उत्साही धार्मिक नायकों के लिए होती है।
अधर्मियों की परिभाषा बहुत व्यापक की जा रहा है। अधर्मी शब्द खलनायक का पर्यायवाची शब्द बन गया है।
इनदिनों एक बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिल रहा है। जो भी खलनायक कितना ही खल-दुष्ट हो,जो Manipulation में माहिर हो, विभिन्न जाँच एजेंसियों की निगाह में हो, उसका हॄदय परिवर्तन हो जाए और उसमें समर्पण की भावना जागृत हो जाए तो वह नायक बनने के लिए योग्य हो जाता है।
दूध पर टैक्स भी लग जाएं लेकिन ऐसे लोगों के लिए दूध पर्याप्त मात्रा में है। यह दूध अदृश्य दूध है। मतलब यह दूध दिखता नहीं लेकिन किसी भी दुराचारी को दूध का धुला कर देता है।
वर्तमान सियासी फ़िल्म में किसी स्तर के संवाद बोलने की छूट सिर्फ नायकों को ही है। बाकी सभी के लिए अघोषित सेंसरशिप है।
यह फ़िल्म फ्री फ़ॉर आल घोषित तो है,लेकिन इस फ़िल्म को देखकर इसकी समीक्षा करने का अधिकार किसी को नहीं है। समीक्षा करना दण्डनीति अपराध भी घोषित हो सकता है।
प्यार,खेल,युद्व के साथ राजनीति में सब जायज है।
दर्शकों को सिर्फ आदेश का पालन करना है। दिग्दर्शक कहे ताली बजाओ,थाली बजाओ,दीये जलाव,टार्च की रोशनी करो यह सारे निर्देश मौन बनकर स्वीकार करो।
प्रश्न करना गुनाह है?
शशिकांत गुप्ते इंदौर