Site icon अग्नि आलोक

भारत में मोहर्रम और महिलाएँ

Share

 डॉ. गीता 

  _मलिका-ए-हिंदोस्तान नूरजहाँ की वजह से हिंद के आम लोगों में मोहर्रम चलन में आया। नूरजहाँ की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। वो नवरोज़ का दिन था।नवरोज़ शिया मुसलमानों और पारसियों का त्योहार है।_

       मुग़ल सरकार में बिहार के गवर्नर रहे शेर अफ़ग़न की विधवा मेहरून्निसा शिया मुसलमान थी और त्योहार के दिन आगरे के क़िले की मीना बाज़ार में घूमने आयी थी।

       तभी नानखटाई की दुकान पर नानखटाई खाती और ठहाके लगाती मेहरू पर बादशाह जहाँगीर की नज़र पड़ी, दोनों की नज़र मिली और जहाँगीर को मेहरून्निसाँ से पहली ही नज़र में मोहब्बत हो गई।

शहज़ादा सलीम को पता नहीं था कि मेहरून्निसा विधवा है। सलीम को जब इस बात का इल्म हुआ तब वो मेहरू की मोहब्बत में बुरी तरह गिरफ़्तार हो चुका था। सलीम पहले से शादीशुदा था और उसकी उस दौर के शाही चलन के हिसाब से पहले से कई बीवियाँ थीं जिनमें राजपूत पत्नियाँ और अन्य भी थीं।

    _जहाँगीर ने मेहरू को मोहब्बतों से भरा ख़त भेज दिया। मेहरू को अच्छा लगा और दोनों छिपकर मिलने लगे। मेहरू बहुत महत्वाकांक्षी थी। रहीम कह गए थे कि खैर-ख़ून-खाँसी-ख़ुशी-बैर-प्रीत-मदपान,रहिमन दाबे ना दबै,जानत सकल जहान।_

      लिहाज़ा दोनों की मोहब्बतों का इल्म सबको हो गया।इस मोहब्बत का जहाँगीर की पत्नियों और संबंधियों ने विरोध भी किया,क्योंकि मेहरू विधवा थी।

      लेकिन कई बरसों के प्रेम प्रसंग के बाद जहाँगीर ने मेहरून्निसाँ से शादी कर ली और अपनी पत्नी सालिहा बानू बेगम से मल्लिका-ए-हिंदोस्तान का ख़िताब वापस लेकर मेहरून्निसाँ को नूरजहाँ का नाम और मल्लिका-ए-हिंदोस्तान का ख़िताब देकर नूरजहाँ के सिर पर ताज रख दिया।उस वक़्त बादशाह जहाँगीर की उम्र बयालीस बरस थी और नूरजहाँ की क़रीब चौंतीस बरस थी।

नूरजहाँ एक बहादुर महिला थीं। वो घुड़सवारी करतीं और जंगलों में शिकार पर जाया करतीं। एक बार नूरजहाँ ने चार शेरों का शिकार एक दिन में ही कर जहाँगीर समेत पूरे हिंद को चकित कर दिया था।

     _जब विद्रोही महावत ख़ान ने कश्मीर की राह में जहाँगीर को बंदी बना लिया तो नूरजहाँ ख़ुद हाथी पर सवार हो महावत ख़ान से जंग करने गईं।_

     ये अलग बात है कि महावत ख़ान ने हाथी पर बैठी नूरजहाँ को न मार, हाथी के हौदे को नूरजहाँ संग धराशायी कर दिया और नूरजहाँ को भी क़ैद कर जहाँगीर के साथ बंद कर दिया।

    लेकिन नूरजहाँ अपनी चतुराई से महावत ख़ान का चक्रव्यूह तोड़ जेल से जहाँगीर को ले निकल भागीं और फिर मुग़ल सेना भेज महावत ख़ान को दंड दिया।

नूरजहाँ ने मुग़ल सल्तनत की बागडोर संभाल रखी थी और वो जहाँगीर की तरफ़ से आदेश जारी करतीं।नूरजहाँ शिया थीं और शिया भी नवरोज़ मनाते हैं लिहाज़ा नूरजहाँ ने नवरोज़ शुरू किया और नवरोज़ की धूम जहाँगीर के ज़माने में देखने लायक होती।

     धूम का मेला उठता। नूरजहाँ ईरानी मूल के पूर्वजों की संतान थीं। ईरान में नवरोज़ को फ़सल का भी त्योहार माना जाता है और मान्यता  है कि नवरोज़ के दिन काने दज्जाल नाम के शैतान का वध होगा और वो वहाँ होगा जो हज़रत-ए-लूत का इलाक़ा था।

     नूरजहाँ को मालूम था कि नवरोज़ के दिन की बरकत थी कि, उन्हें ताज मिल गया, इसलिए वो नवरोज़ पर हीरे-जवाहरात भी लुटातीं। जहाँगीर के दौर में नवरोज़ के दिन किला और शहर शराब पीकर मस्त रहता, मय के दरिया बहते।

इसी तरह शिया मुसलमानों में मोहर्रम के दस दिन ख़ास होते हैं। नूरजहाँ के मलिका-ए-हिंदोस्तान बनने से पहले हिंद में इतनी कसरत से मोहर्रम का चलन नहीं था। जो ईरानी अधिकारी और सैनिक मुग़ल सेना में थे बस वही मोहर्रम मनाते और आम प्रजा मोहर्रम के बारे में नहीं जानती।

     _क्योंकि नूरजहाँ शिया मुसलमान थीं लिहाज़ा उन्होंने क़िले के भीतर मोहर्रम मनाना शुरू किया।मोहर्रम में मातम होता है और मजलिसें होती हैं।_ 

      महिलाएं अपनी चूड़ियाँ तोड़ देती हैं और घरों के चूल्हे ठंडे रहते हैं। सीनाज़नी भी होती है। ये सब क़िले के भीतर शुरू हुआ और शिया अधिकारियों और सैनिकों समेत उनका परिवार मोहर्रम मनाने लगा।

    नूरजहाँ ने ताज़िए का जुलूस निकलवाया जो शहर आगरा में निकला।

आम प्रजा ताज़िया देख चकित हुई और क्योंकि क़िले से मलिका ने जुलूस निकलवाया था लिहाज़ा धीरे-धीरे सुन्नी मुसलमानों समेत हिंदुओं ने भी मोहर्रम में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और ताज़िया भी बनाकर जुलूस निकालने लगे।

     _क्योंकि हिंदोस्तान की प्रजा धर्मभीरू है लिहाज़ा देखा-देखी ताज़िए बना मन्नत भी मानने लगी। एक बार नूरजहाँ ने दसवीं मोहर्रम को बड़ी धूम का मेला उठवाया और दसवीं मोहर्रम के मेले की दाग़बेल पूरे हिंद में जगह-जगह पड़नी शुरू हो गई और मोहर्रम मनाया जाने लगा,जुलूस निकलने लगे।_

       जहाँगीर और नूरजहाँ के बाद बादशाह शाहजहाँ के ज़माने में भी नौरोज़ और मोहर्रम की रवायत कायम रही। लेकिन औरंगज़ेब के ज़माने में किले के भीतर नौरोज़ बंद हो गया, औरंगज़ेब का मानना था कि नौरोज़ के दिन शराब पीकर बदकारियाँ होने लगी हैं और उसका बुरा नतीजा होता है।

      लिहाज़ा औरंगज़ेब ने क़िले के भीतर नवरोज़ मनाने पर पाबंदी लगा दी। बाहर जिसका मन होता वो मनाता लेकिन सरकारी ख़र्च पर नवरोज़ पर पैसा बहाना औरगंज़ेब को मुनासिब नहीं लगा।

औरंगज़ेब ने फ़रमान जारी किया कि क्योंकि मोहर्रम में ताज़िया जुलूस निकालने के दौरान सड़कों पर शिया-सुन्नी और हिंदू-मुस्लिम दंगे और फ़साद होते हैं लिहाज़ा सड़कों पर मोहर्रम के ताज़िए का जुलूस और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर रोक लगायी जाती है।

     _निजी रूप से घर में मोहर्रम मनाने पर कोई रोक नहीं रहेगी।इस फ़रमान के बाद जनता अंदरख़ाने नाराज़ हुई क्योंकि दसवीं मोहर्रम के मेले की धूम का सबको इंतज़ार होता और उस दिन व्यापार भी ख़ूब होता,लेकिन बादशाह के फ़रमान की वजह से किसी ने ताज़िया या जुलूस निकालने का साहस नहीं किया।_

     औरंगज़ेब के वक़्त का हिंदोस्तान आज के हिंदोस्तान से बड़ा था लेकिन हर हिस्से में मोहर्रम के जुलूस और मेले बंद हो गए।

      ऐसे में रेगिस्तान में बारिश जैसा नज़ारा तब देखने को मिला जब औरंगज़ेब की बहन जहानआरा ने एक बरस मोहर्रम में औरंगज़ेब के आदेश की परवाह ना करते हुए दिल्ली के लालक़िले से ताज़िए का जुलूस निकाला और ख़ुद जुलूस के आगे हो गईं।

ये देख औरंगज़ेब एकदम चुप हो गया और उसकी सेना का साहस भी औरंगज़ेब की बहन को रोकने का नहीं हुआ। जहानआरा जुलूस लेकर शहर में गईं। ये देख प्रजा में शक्ति आ गई और रातों-रात शहर दिल्ली के लोगों ने ताज़िया बनाया और जुलूस निकाल दिया।

     _ये ख़बर पूरे हिंद में फैल गई कि जहानआरा ने जुलूस निकाल दिया और बादशाह चुप रहा। अगले बरस से पहले की तरह सड़कों पर मोहर्रम के ताज़िए के जुलूस निकलने लगे, अलम उठा, सीनाज़नी हुई,ग़म की कैफ़ियत तारी हुई, दुलदुल घोड़े निकलने लगे, नारे लगने लगे और धूम का मेला उठने लगा।_

     इस प्रकार से देखा जाए तो एक महिला नूरजहाँ ने मोहर्रम को पूरे हिंद में मशहूर किया, सड़कों पर ताज़िया जुलूस निकलवाए और मेला लगवाया।

      _जब मोहर्रम के ताज़िए और जुलूस पर रोक लगी तो दूसरी महिला जहानआरा ने ही बादशाह के फ़रमान को नज़रअंदाज़ कर ताज़िए के जुलूस और मेले को फिर से बहाल करवा दिया।_

     (चेतना विकास मिशन)

Exit mobile version