अमृतसर
समय: सुबह के तीन बजे। जगह: अमृतसर
स्वर्ण मंदिर की तरफ जाने वाले तमाम रास्ते गीले हैं। इन्हें अभी-अभी पानी से धोया गया है।
गुरुद्वारे का बाहरी हिस्सा सोने का बना है, इसलिए इसे ‘स्वर्ण मंदिर’ कहा जाता है।
हवा में शब्द कीर्तन गूंज रहे हैं। मेरे सामने मौजूद सरोवर में स्वर्ण मंदिर का बिंब दिख रहा है।
मेरी नजर ‘जोड़ा घर’ पर पड़ती है। यहां छोटे-छोटे बच्चे सेवा कर रहे हैं। जोड़ा घर गुरुद्वारे में वो जगह है, जहां जूते-चप्पल रखे जाते हैं।
अपने जूते जमा करवा के बाद कुछ कदम चलकर पांव धोती हुई मैं सीढ़ियां चढ़ने लगती हूं। सीढ़ी पर रखते एक-एक कदम इस बात का एहसास दिलाते हैं कि हम किसी दूसरी दुनिया की तरफ बढ़ रहे हैं।
स्वर्ण मंदिर में अरदास करने के बाद कुछ सीढ़ियां नीचे उतरते ही श्री अकाल तख्त के सामने मुझे लोगों की भीड़ दिखती है।
कहानी में आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि सिख समुदाय में उनके गुरु से जुड़े स्थान, उनसे जुड़ी चीजें, तमाम गुरुद्वारों को संबोधित करने के लिए एक अदब के तहत ‘साहिब’ शब्द का इस्तेमाल होता है।
यहां तक कि गुरुद्वारे में बंटने वाले लंगर के खाना-पानी को भी साहिब से संबोधित किया जाता है। जैसे- पानी साहिब, दाला साहिब।
ऐसा सिखों के लिए जारी फरमान ‘सब सिखन को हुकम है, गुरु मान्यो ग्रन्थ’ के बाद हुआ।
इसका मतलब है कि सभी सिखों को यह आदेश दिया जाता है कि आज से पवित्र ग्रंथ ही उनके गुरु हैं।
दरअसल, गुरु गोबिंद सिंह के बाद सिख धर्म में किसी जीवित व्यक्ति को गुरु मानने की परंपरा समाप्त कर दी गई। गुरु ग्रंथ साहिब जो कि सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ है, उसे ही सिखों का शाश्वत जीवित गुरु माना गया है।
खैर, अब भीड़ की तरफ मैं भी चल देती हूं। दरअसल सुबह चार बजे पालकी साहिब का वक्त है। जिसके दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आए हैं। यहां जितने सिख श्रद्धालु दिखाई दे रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा गैर सिख श्रद्धालु हैं।
मैं इधर-उधर से रास्ता बनाते हुए अपने लिए खड़े होने की जगह बना लेती हूं। स्वर्ण मंदिर की तरफ माथा टेकने वाले स्थान के बाहर जंगले के उस पार, श्री अकाल तख्त साहिब पर मेरी तरह वहां खड़े सभी लोगों की निगाहें हैं।
अकाल तख्त पांच तख्तों में सबसे पहला तख्त है। इसे सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोबिन्द ने न्याय-संबंधी और सांसारिक मामलों पर विचार करने के लिए स्थापित किया था।
महिलाएं तौलिए से उस स्थान को बार-बार साफ कर रही हैं जहां से पालकी गुजरेगी।सोने की बनी एक बहुत सुंदर पालकी वहां लाई गई। उसका हार श्रृंगार किया जा रहा है। गुलाब, गेंदे और चमेली के फूलों से उसे सजाया जा रहा है।वहां मौजूद भीड़ सतनाम श्री वाहेगुरु…सतनाम श्री वाहेगुरु.. का लगातार जाप कर रही है।
पालकी सजकर तैयार हो गई है। अब कोठा साहिब से श्री गुरु ग्रंथ साहिब को लाया गया। कोठा साहिब वो जगह है जहां, गुरु अर्जुनदेव जी आराम करते थे।
घंटों से सतनाम श्री वाहेगुरु का लाइन में खड़े होकर जाप कर रही भीड़ की आंखों में अब चमक आ गई है। सभी अपने मोबाइल का वीडियो जल्दी-जल्दी ऑन करने लगते हैं।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब को लेकर पालकी साहिब यहां पहुंच चुकी है। पालकी साहिब के पास अरदास शुरू हो चुकी है। नगाड़ा बज रहा है। पालकी साहिब को कंधों पर उठाकर स्वर्ण मंदिर की तरफ ले जाया जा रहा है।
इस दौरान भीड़ में मौजूद लोग या तो श्रद्धा से पालकी साहिब देख रहे हैं या आंखें बंद करके अरदास कर रहे हैं।लगभग 4 बजकर 8 मिनट पर पालकी साहिब से गुरु ग्रंथ साहिब को स्वर्ण मंदिर लेकर आया गया।पुरुष ही पालकी साहिब को सजाते हैं।
अब सुबह के 11 बजे हैं। मैं लंगर और रसोई की तरफ बढ़ती हूं। स्वर्ण मंदिर की इस रसोई में हर दिन लगभग एक लाख लोगों के लिए खाना पकता है। एक दिन के लंगर का खर्च 13 से 15 लाख रुपए आता है।यह लंगर चौबीसों घंटे चलता है। इसकी व्यवस्था को देखने मैं किचन में जा पहुंची।महिलाएं, पुरुष, बच्चे सभी सब्जी काटने, लहसुन छीलने की सेवा कर रहे हैं।
यहां से लंगर हॉल में जाने पर देखा कि मशीन से चाय परोसी जा रही है। दूध की मशीन लगी है। छोटे बच्चों के पीने के लिए अलग से दूध की सेवा की जा रही हैI
थोड़ा और आगे बढ़ो तो जमीन गीली है। चलने में डर लग रहा है कि कहीं फिसलकर मैं ही किसी खौलते दाल या सब्जी के कड़ाहे में न गिर जाऊं।
एक-एक कड़ाही और पतीले में लगभग 4 क्विंटल दाल, सब्जी है। मेरे साथ सेवादार धर्मजीत सिंह हैं। इनके साथ ही मैं स्वर्ण मंदिर की रसोई घूम रही हूं।
धर्मजीत के अनुसार एक दिन में यहां लगभग 35 क्विटंल दाल, इतनी ही सब्जी और खीर बनती है। अंदाजन 500 सिलेंडर की एक दिन की खपत है और लकड़ी की भट्टी पर अलग से दाल बनती है।
लंगर बनाने वाले को लांगरी बाबा कहते हैं, इन पर इस गर्मी का कोई असर नहीं पड़ता है। गैस चूल्हों और भट्टी के आसपास की जमीन तप रही है। मेरे तो पांव जल रहे हैं, लेकिन लांगरी बाबा 24 घंटे इस गर्मी में लंगर बनाने की सेवा करते हैं।
इसके बाद रोटियां बनाने वाली जगह पर मैं पहुंचती हूं। आटा गूंथने से लेकर रोटियां बनाने तक सारा काम मशीनों से हो रहा है।
दूसरी तरफ हाथ से भी तपती भट्टी पर रोटियां बनाई जा रही हैं। तमाम लंगर बनाकर एक जगह इकट्ठा किया जाता है। वहां से बाल्टियों में भरकर लोगों को परोसा जा रहा है।
सुबह से मैं स्वर्ण मंदिर में मौजूद हूं। अब रात के साढ़े दस बजे हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहिब को पालकी को स्वर्ण मंदिर से कोठा साहिब आराम करने के लिए ले जाने का वक्त हो गया है। इस नजारे को देखने के लिए भी भीड़ सुबह की तरह ही मौजूद थी। रात की अरदास के बाद यह पालकी साहिब निकलती है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के रात्रि विश्राम के लिए कोठा साहिब में एक पलंग लगी है। सिखों के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने इस परंपरा को शुरू किया था। तब से इसका पालन ऐसे ही किया जा रहा है। गुरु अर्जुन देव जी ने ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन कर स्वर्ण मंदिर में रखा था।
उसके बाद रात में ही स्वर्ण मंदिर के अंदर साफ-सफाई का काम शुरू हो गया। खिड़कियां, दरवाजे फर्श सभी को धोया गया। धोने के बाद फर्श को दूध से नहलाया गया। फिर उसे सुखाया गया। गुरुद्वारे की इस सेवा को गीली सेवा और सूखी सेवा कहा जाता है। इसे हर कोई नहीं कर सकता है । बाकायदा इसके लिए स्वर्ण मंदिर प्रबंधन से पास लेना होता है।
मैंने गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन की कहानी श्री गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर के श्री गुरु ग्रंथ साहिब विभाग के प्रो. अमरजीत सिंह से पूछी।
वे कहते हैं, ‘सिखों के पहले गुरु श्री गुरु नानक देव जी ने कई यात्राएं कीं। वह सभी धर्मों के मुख्य धार्मिक स्थलों पर गए। चाहे काशी हो या मक्का।
इन्हीं यात्राओं के दौरान संतों की बाणियां गुरु नानक देव जी ने एकत्र की और खुद की बाणी भी लिखी। उन्होंने संत कबीर, संत सूरदास, बाबा फरीद, रामानंद, परमांद, धन्ना जट्ट समेत 35 भगतों की बाणी भी एकत्रित की। इन सबको एक पोथी का रूप दिया।
1539 में गुरु नानक देव जी ने अपना वारिस गुरु अंगद देव जी को बनाया और पोथी भी उन्हें सौंप दी। गुरु अंगद देव जी ने इसमें गुरु नानक देव जी का जीवन लिखा। जिसे ‘जन्मसाखी’ कहते हैं।
फिर अंगद देव जी ने इस पोथी को गुरु अमरदास जी को सौंप दिया। तब तक पोथी का आकार बड़ा हो चुका था। गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बैठकर पोथी को दोबारा लिखा, इसे गोइंदवाल वाली पोथी कहा गया।
ऐसे पोथी आगे से आगे बढ़ती रही। जब यह पांचवें गुरु अर्जुन देव जी के पास पहुंची तो गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर के रामसर गुरुद्वारे में बैठकर पोथी पर काम करना शुरू किया।
इस दौरान उन्होंने ऐलान किया कि स्वर्ण मंदिर से कोई भी रामसर गुरुद्वारा साहिब उनके पास नहीं आएगा। एक साल के बाद जब पोथी का काम पूरा हो गया तो गुरु अर्जुन देव जी की देखरेख में बाकायदा विधि विधान से इसे रामसर गुरुद्वारे से स्वर्ण मंदिर ले जाया गया।
वहां बाबा बुड्डा जी को पहला ग्रंथी बनाया गया। इस प्रकार से गुरु नानक देव जी से शुरू हुई पोथी को गुरु अर्जुन देव ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का रूप दिया।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में 15 भक्त, 6 गुरुओं, 11 भट्ट, दो ढाढी रबाबी, एक गुरु बाबा सुंदर की बाणी है। आज भी सितंबर महीने में हर साल रामसर गुरुद्वारे से स्वर्ण मंदिर तक ऐसे ही नगर कीर्तन निकाला जाता है।
यहां एक तहखाना भी है। इस तहखाने को तोशाखाना कहते हैं। इस तोशाखाना में स्वर्ण मंदिर में शुरू से लेकर आज तक गुरुओं और स्वर्ण मंदिर को मिले कीमती रत्न, सोना, चांदी और हीरे हैं।
कहते हैं कि हैदराबाद के निजाम ने स्वर्ण मंदिर में कीमती रत्न चढ़ाए थे। विशेष दिनों में इस खजाने में से कुछ चीजों को स्वर्ण मंदिर में संगत दर्शन के लिए रखा जाता है। तोशाखाना में कितना सोना-चांदी, हीरे और रत्न हैं, इसका कोई अंदाजा नहीं है।
मैं स्वर्ण मंदिर में 24 घंटे रही। भीड़ में कोई कमी दिखाई नहीं दी। एक दिन की श्रद्धालुओं की आवक लगभग एक लाख है। रविवार और त्योहार वाले दिन डेढ़ लाख तक हो जाती है।
स्वर्ण मंदिर का मैनेजमेंट कमाल का है। अलग-अलग काम अलग-अलग मैनेजर्स की निगरानी में होते हैं। अनुशासन सख्त है। सभी को अपना-अपना काम पता है।
कूलरों की सफाई हो रही है, पंखों के पानी की बौछारें हो रही हैं, सफेद संगमरमर पर विशेष किस्म की मैट बिछाई गई है। यानी गर्मी के पूरे इंतजाम किए गए हैं।
स्वर्ण मंदिर के चारों ओर बने दरवाजों के जरिए संदेश दिया जा रहा है कि यहां हर धर्म के व्यक्ति का स्वागत है। सब लोग एक साथ लंगर छकते हैं। 24 घंटे लंगर की सेवा चलती है।एसजीपीसी के सेक्रेटरी ग्रेवाल साहिब का कहना है कि यहां हर मजहब के लोग आते हैं। इस पवित्र स्थान का मकसद यही है कि धर्म के आधार पर भेदभाव न हो।
स्वर्ण मंदिर की नींव की कहानी
एसजीपीसी के सेक्रेटरी ग्रेवाल साहिब बताते हैं, ‘स्वर्ण मंदिर की नींव मुसलमान पीर सूफी संत साईं मिया मीर ने रखी थी। सूफी संत साईं मिया मीर का सिख धर्म के प्रति शुरू से ही झुकाव था। वे लाहौर के रहने वाले थे और सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी के दोस्त थे।
जब हरमंदिर साहिब के निर्माण पर विचार किया गया, तो फैसला हुआ था कि इस मंदिर में सभी धर्मों के लोग आ सकेंगे। इसके बाद गुरु अर्जुन देव जी ने लाहौर के सूफी संत साईं मियां मीर से दिसंबर 1588 में गुरुद्वारे की नींव रखवाई थी।’
अमृतसर को गुरु रामदास ने बसाया
अमृतसर बसने से पहले यहां सिर्फ घना जंगल और पानी की एक ढाब हुआ करती थी। यहां सबसे ज्यादा बेरी के पेड़ थे। यह बहुत ही शांत स्थान था। कई लोग यहां ध्यान लगाने आया करते थे।
गुरु नानक देव जी भी यहां आए थे। अमृतसर को बसाने वाले गुरु रामदास जी थे। इससे पहले खडूर साहिब, गोइंदवाल गुरुद्वारा आबाद हो चुके थे। अब सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए नया नगर बसाने के बारे में सोचा जा रहा था।
यहां गुरु रामदास जी ने 500 एकड़ जमीन खरीदी। पानी के ढाब को सरोवर के रूप में तैयार किया गया। इस सरोवर के पानी को अमृत बोला गया। सर यानी सरोवर। इस प्रकार से इस शहर का नाम अमृतसर पड़ा।