~ सुधा सिंह
सामान्यतया इस प्रकार का परिवेश बन गया है कि मिडिल – मैट्रिक वाला मामूली पढ़ालिखा आदमी भी पुराण आदि के संबंध में मिथ्या बातें कुछ ऐसी शान से कहता है कि यह कहने के बाद अब उसने वैज्ञानिक-दृष्टि प्राप्त कर ली है और अब वह प्रगतिशील वाली पंक्ति में आ गया है।
इसके बहुत से कारण हैं , जिनमें एक बड़ा कारण यह भी है कि पुराण को इतिहास का सच मान लिया जाता है और पुराण-भाषा को आधुनिक-भाषा समझ लिया जाता है और सामान्य शब्दार्थ की प्रक्रिया से पुराण की बात को श्रद्धा-पूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है।
पुराण आधुनिक-काव्य नहीं है , वह इतना पुराना है कि हम उसके लिखित रूप के काल का तो अनुमान कर सकते हैं किन्तु वाचिक-परंपरा का काल-निर्णय करने के लिए हमारे पास कोई पक्का आधार है ही नहीं , पुराण का विकास वाचिक-परंपरा में हुआ है और प्रत्येक देश-काल में उसने अपना कायाकल्प किया है।
कुछ लोग ऐसे भी हैं , जो सोचते हैं कि पुराण अंधविश्वास के स्रोत हैं और उनको समाप्त कर देना चाहिये। ऐसे लोग मनुष्य के अवचेतन-मन , समष्टि -अवचेतनमन से परिचित नहीं हैं , वे नहीं समझ सकते कि यह जातीय-मानस है और इसे समाप्त करना ऐसी असंभव कल्पना है , जैसे कोई कहे कि हिमालय से बहने वाले किसी जल-प्रवाह को बन्द कर दो या रोक दो।
वास्तव में मनुष्य को समझने के लिए पुराण अत्यन्त मूल्यवान अध्ययन-सामग्री है। फ़्रायड और जुंग के सिद्धान्त पुराण-विद्या के अध्ययन का ही परिणाम थे।
भाषाविदों ने पुराण-भाषा का अध्ययन किया है। यह तो ठीक है कि भाषा की रचना बिंबों के आधार पर ही होती है , पुराण-भाषा का आधार भी बिंब हैं और आधुनिक-भाषा का आधार भी बिंब ही हैं किन्तु पुराण-भाषा के बिंब और आधुनिक-भाषा के बिंबों में जमीन -आसमान का अन्तर है।
मिथक अपने आप में अभिव्यक्ति की शैली है। पौराणिक गाथाओं की इस अभिव्यक्तिशैली तथा भाषा पर पश्चिम में सबसे पहले मैक्समूलर [१८२३ – १९०० ]का ध्यान गया था। उसने अनुभव किया कि आदिम- व्यक्ति ने जिस अर्थ में उस अभिव्यक्ति-भंगिमा का प्रयोग किया था , अगली पीढी ने उसे ठीक उसी अर्थ में ग्रहण नहीं किया।
इस प्रकार पीढियों के क्रम से भाषा में विकार आता चला गया तथा वह मूल अर्थ हम से दूर होता चला गया।
भाषाशास्त्री जानते हैं कि शब्द बिंब से बनता है। परिवेश के बदलने पर बिंब का अर्थ भी बदल जाता है इसीलिए एक पीढी के बाद दूसरी पीढ़ी में जा कर शब्द का मूल अर्थ बदल जाता है।
मैक्समूलर ने माना कि भाषा और अभिव्यक्तिशैली का पीढियों के क्रम से बहुत गहरा संबंध है। अर्थ-परिवर्तन की इस प्रक्रिया को मैक्समूलर ने मैलेडी आफ़ वर्ड्स अथवा शब्द का विकार बतलाया था।
वीरता पौरुष तथा हिंसक पशुओं को पराजित कर देने की सामर्थ्य को उन्होंने हरक्यूलिस या सैमसन का नाम दिया। ये प्रयोग आज भी होते हैं , बहुभोजनी को भीम ,बहुत सोने वाले को कुंभकर्ण और कभी खतम न होने वाले किस्से को द्रोपदी का चीर कह दिया जाता है।
मैक्समूलर मिथक-तत्त्व को अनिवार्य मानते हैं। फिलॉसफी ऑफ माइथोलॉजी, इंट्रोडक्शन टु दि साइंस ऑफ रिलिजन के परिशिष्ट में मैक्समूलर कहते हैं :
“यदि भाषा विचार के ऊपरी रूप को अभिव्यक्त करने की शक्ति है, तो मिथक तत्त्व उसकी अन्तर्निहित आवश्यकता है। मिथक -कल्पना वाक् तत्त्व की भाँति मनुष्य की सहज सर्जना शक्ति का ही निदर्शक रूप है।”
मैक्समूलर के बाद कैसिरर मिथक-तत्त्व का विश्लेषण करते हैं। उनका कहना है कि आदिम मनुष्य के लिए भाषा के प्रतीक यथार्थ के सूचक ही नहीं थे बल्कि यथार्थ ही थे। वे मानते हैं कि मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो प्रतीकों का निर्माण करता है।
कैसिरर भाषा और मिथक तत्त्व को एक ही मूल से निकली हुई दो अलग-अलग शाखाएँ मानते हैं। हर्डर मानते थे कि भाषा की उत्पत्ति मिथकीय प्रक्रिया के भीतर से हुई है। मनुष्य के अन्तर्जगत को अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है – मिथक।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मिथक का विवेचन करते हुए कहते हैं :
“मिथक वस्तुत: भाषा का पूरक है।सारी भाषा ही इसके बल पर खड़ी है, साहित्य में मिथक अनंत अनुभवों का विश्लेषण है। कलाकार के हृदय में जो मिथकीय सिसृक्षा उदित होती है, वह अवचेतन चित्त की वेगवती शक्ति है ।आगे चल कर यही शक्ति पुराणकथा या माइथोलोजी के रूप में विकसित होती है।”
आधुनिक विचारक मिथक को प्रतीकात्मिका भाषा कहते हैं .मनुष्य ने मिथक तत्त्व को भुलाया नहीं है ,कविता उसका प्रमाण है, निजधरी कथाएँ ,चित्र और मूर्ति-शिल्प उसके साक्षी हैं।कार्य-कारण परंपरा की युक्तिसंगत व्यवस्था उस गहरे यथार्थ को प्रकट नहीं कर पाती , जो रात को सोते समय सपने में प्रकट हो जाती है।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने मन के अद्भुत भावों की मिथकीय-अभिव्यक्ति का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि “अन्तर्जगत् के भाव बाह्य-जगत् के पदार्थों के बिम्ब नहीं होते।
उन भावों के बिम्ब को अभिव्यंजक शब्दों द्वारा प्रकट करना कठिन होता है, परन्तु करना पड़ता है, दूसरा उपाय नहीं है।उसको भाषा के द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए किसी-न-किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा गृहीत बिम्ब में उसे अनूदित करना पड़ता है। अमूर्त अनुभूति को किसी-न-किसी प्रकार मूर्त बिम्बों में अनुवाद करना है। रूप को ‘मधुर’ कहना या सौन्दर्य को लावण्य कहना वस्तुतः एक अमूर्त अनुभूति को स्वादेन्द्रिय द्वारा अनुभूत बिम्ब के माध्यम से गोचर कराने का प्रयास मात्र है।
तर्क द्वारा कहा जा सकता है कि रूपगत सुन्दरता को माधुर्य (मिठास ) और लावण्य (नमकीन) कहना बिल्कुल झूठ है क्योंकि रूप न तो मीठा होता है, न नमकीन। लेकिन फिर भी कहना पड़ता है, क्योंकि अन्तर्जगत् के भावों को बहिर्जगत् की भाषा में व्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है। सच पूछिए तो यही मिथक तत्त्व है। ऊपर-ऊपर से देखने से यह झूठ है, परन्तु गहराई में देखने पर यह सत्य है।
धर्मवीरभारती कहते हैं :
“मिथककथाएं प्रतीकों और मधुमयी कल्पनाओं के द्वारा हजारों साल से हमारे सांस्कृतिक-मानस को संवेदना प्रदान करने का काम करती हैं।अब उनको उनके उन्हीं प्रतीकार्थ-माध्यम से समझने की आवश्यकता है।”
बोआस ने कहा कि ये आदमी के बचपन की अवशिष्ट स्मृतियाँ हैं ।मानव जीवन की समस्त युगयात्रा की स्मृतियाँ अवचेतन में विद्यमान हैं। पुराण-कथाएं जातीय-जीवन की सामूहिक स्मृतियां हैं। यह सामूहिकता सामाजिक-जीवन की एकता की अपराजेय- शक्ति है।
मिथक समष्टिमानस की स्मृतियों के टीले की तरह है,जिनमें युगयुगीन-स्मृतियों की विभिन्न परतें सो रही हैं।मिथक केवल धरती पर घटित-घटना की ही याद नहीं है , धरती पर घटित-घटना के प्रभाव और प्रतिक्रिया में जो कुछ व्यष्टिमन और समष्टिमन में घटित हुआ,उसकी भी यादों का सूत्र है।मनुष्य के वे सभी स्वप्न,वे कल्पनाएं,वे एषणाएं,वे संकल्प,वे विश्वास और वे अनुभव भी मिथकों में समाहित हैं,जो जीवन की युग-युगीन यात्रा में आये और जगे, भले ही वे ऐन्द्रिक हैं या अतीन्द्रिय।
प्रो.रमेश कुन्तल मेघ ने कुछ समय पहले “मिथककथा सरित्सासागर” ग्रन्थ लिखा है। वे कहते हैं :
“मिथक मानवजाति का सामूहिक स्वप्न एवं सामूहिक अनुभव है और स्वप्न एक व्यक्ति की सुप्त आकांक्षा।”