अग्नि आलोक

पौराणिक विश्व : ये हैं समुद्र मन्थन से निकले चौदह रत्न

Share
    नीलम ज्योति

श्री मणि रम्भा वारुणी अमिय शंख गजराज.
कल्पवृक्ष शशि धेनु धनु धन्वंतरि विष बाज.

  1. विष :
    समुद्र का मंथन करने पर सबसे पहले पहले जल का हलाहल (कालकूट) विष निकला जिसकी ज्वाला बहुत तीव्र थी। हलाहल विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की।
    शंकर ने उस विष को हथेली पर रखकर पी लिया, किंतु उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया तथा उस विष के प्रभाव से शिव का कंठ नीला पड़ गया इसीलिए महादेवजी को ‘नीलकंठ’ कहा जाने लगा।
  2. कामधेनु :
    विष के बाद मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उत्पन्न हुई। देव और असुरों ने जब सिर उठाकर देखा तो पता चला कि यह साक्षात सुरभि कामधेनु गाय थी।
    गाय को हिन्दू धर्म में पवित्र पशु माना जाता है। गाय मनुष्य जाति के जीवन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण है। गाय को कामधेनु कहा गया है। कामधेनु सबका पालन करने वाली है। उस काल में गाय को धेनु कहा जाता था।
  3. उच्चैःश्रवा :
    घोड़े तो कई हुए लेकिन श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा घोड़ा सबसे तेज और उड़ने वाला घोड़ा माना जाता था। अब इसकी कोई भी प्रजाति धरती पर नहीं बची। यह इंद्र के पास था। उच्चै:श्रवा का पोषण अमृत से होता है। यह अश्वों का राजा है।
    उच्चै:श्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे जिसका यश ऊंचा हो, जिसके कान ऊंचे हों अथवा जो ऊंचा सुनता हो।
  4. ऐरावत :
    हाथी तो सभी अच्‍छे और सुंदर नजर आते हैं लेकिन सफेद हाथी को देखना अद्भुत है। ऐरावत सफेद हाथियों का राजा था। ‘इरा’ का अर्थ जल है, अत: ‘इरावत’ (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को ‘ऐरावत’ नाम दिया गया है।
    यह हाथी देवताओं और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के दौरान निकली 14 मूल्यवान वस्तुओं में से एक था। मंथन से प्राप्त रत्नों के बंटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था। चार दांतों वाला सफेद हाथी मिलना अब मुश्किल है। महाभारत, भीष्म पर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भू-भाग को उत्तर कुरु के बदले ‘ऐरावत’ कहा गया है।
    जैन साहित्य में भी यही नाम आया है। उत्तर का भू-भाग अर्थात तिब्बत, मंगोलिया और रूस के साइबेरिया तक का हिस्सा। हालांकि उत्तर कुरु भू-भाग उत्तरी ध्रुव के पास था संभवत: इसी क्षेत्र में यह हाथी पाया जाता रहा होगा।
  5. कौस्तुभ :
    मंथन के दौरान पांचवां रत्न था कौस्तुभ मणि। कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु धारण करते हैं। महाभारत में उल्लेख है कि कालिय नाग को श्रीकृष्ण ने गरूड़ के त्रास से मुक्त किया था।
    उस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतारकर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दे दी थी। यह एक चमत्कारिक मणि है। माना जाता है कि इच्छाधारी नागों के पास ही अब यह मणि बची है या फिर समुद्र की किसी अतल गहराइयों में कहीं दबी पड़ी होगी।
    हो सकता है कि धरती की किसी गुफा में दफन हो यह मणि।
  6. कल्पद्रुम :
    यह दुनिया का पहला धर्मग्रंथ माना जा सकता है, जो समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ। कुछ लोग इसे संस्कृत भाषा की उत्पत्ति से जोड़ते हैं और कुछ लोग मानते हैं कि इसे ही कल्पवृक्ष कहते हैं।
    जबकि कुछ का कहना है कि पारिजात को कल्पवृक्ष कहा जाता है।
  7. रंभा :
    समुद्र मंथन के दौरान एक सुंदर अप्सरा प्रकट हुई जिसे रंभा कहा गया। पुराणों में रंभा का चित्रण एक प्रसिद्ध अप्सरा के रूप में माना जाता है, जो कि कुबेर की सभा में थी। रंभा कुबेर के पुत्र नलकुबर के साथ पत्नी की तरह रहती थी।
    ऋषि कश्यप और प्राधा की पुत्री का नाम भी रंभा था। महाभारत में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है। समुद्र मंथन के दौरान इन्द्र ने देवताओं से रंभा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त किया था। विश्वामित्र की घोर तपस्या से विचलित होकर इंद्र ने रंभा को बुलाकर विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा था।
    अप्सरा को गंधर्वलोक का वासी माना जाता है। कुछ लोग इन्हें परी कहते हैं।
    8.लक्ष्मी :
    समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मी की उत्पत्ति भी हुई। लक्ष्मी अर्थात श्री और समृद्धि की उत्पत्ति। कुछ लोग इसे सोने (गोल्ड) से जोड़ते हैं। माना जाता है कि जिस भी घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां समृद्धि कायम रहती है।
    दूसरी लक्ष्मी : महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम लक्ष्मी था और जिसने भगवान विष्णु से विवाह किया।
  8. वारुणी : वारुणी नाम से एक शराब होती थी। वारुणी नाम से एक पर्व भी होता है और वारुणी नाम से एक खगोलीय योग भी।
    समुद्र मंथन के दौरान जिस मदिरा की उत्पत्ति हुई उसका नाम वारुणी रखा गया। वरुण का अर्थ जल। जल से उत्प‍न्न होने के कारण उसे वारुणी कहा गया। वरुण नाम के एक देवता हैं, जो असुरों की तरफ थे। असुरों ने वारुणी को लिया। वरुण की पत्नी को भी वरुणी कहते हैं। कदंब के फलों से बनाई जाने वाली मदिरा को भी वारुणी कहते हैं।
  9. चन्द्रमा :
    ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं, जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम ‘सोम’ है। दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियां थीं जिनके नाम पर 27 नक्षत्रों के नाम पड़े हैं।
    ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। आज आसमान में हम जो चंद्रमा देखते हैं वह समुद्र मंथन के दौरान उत्पन्न हुआ था। इस चंद्रमा का चंद्रवंशियों के चंद्रमा से क्या संबंध है, यह शोध का विषय हो सकता है। पुराणों अनुसार चंद्रमा की उत्पत्ति धरती से हुई है।
  10. पारिजात :
    समुद्र मंथन के दौरान कल्पवृक्ष के अलावा पारिजात वृक्ष की उत्पत्ति भी हुई थी। ‘पारिजात’ या ‘हरसिंगार’ उन प्रमुख वृक्षों में से एक है जिसके फूल ईश्वर की आराधना में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। धन की देवी लक्ष्मी को पारिजात के पुष्प प्रिय हैं।
    यह माना जाता है कि पारिजात के वृक्ष को छूने मात्र से ही व्यक्ति की थकान मिट जाती है।पारिजात वृक्ष में कई औषधीय गुण होते हैं। हिन्दू धर्म में कल्पवृक्ष के बाद पारिजात को महत्व दिया गया है। इसके बाद बरगद, पीपल और नीम का महत्व है।
  11. शंख :
    शंख तो कई पाए जाते हैं लेकिन पांचजञ्य शंख मिलना मुश्किल है। समुद्र मंथन के दौरान इस शंख की उत्पत्ति हुई थी। 14 रत्नों में से एक पांचजञ्य शंख को माना गया है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है।
    सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। 1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने की उत्तम औषधि है। शंख 3 प्रकार के होते हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख।
    इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं।
  12. धन्वंतरि :
    देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के शांत हो जाने पर समुद्र में स्वयं ही मंथन चल रहा था जिसके चलते भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का स्वर्ण कलश लेकर प्रकट हुए। विद्वान कहते हैं कि इस दौरान दरअसल कई प्रकार की औषधियां उत्पन्न हुईं और उसके बाद अमृत निकला।
    हालांकि धन्वंतरि वैद्य को आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धन्वंतरि संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
    ‘धनतेरस’ के दिन उनका जन्म हुआ था। धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। रामायण, महाभारत, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, शार्गधर, श्रीमद्भावत पुराण आदि में उनका उल्लेख मिलता है। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं। आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था।
  13. अमृत :
    ‘अमृत’ का शाब्दिक अर्थ ‘अमरता’ है। निश्चित ही एक ऐसे पेय पदार्थ या रसायन रहा होगा जिसको पीने से व्यक्ति हजारों वर्ष तक जीने की क्षमता हासिल कर लेता होगा। यही कारण है कि बहुत से ऋषि रामायण काल में भी पाए जाते हैं और महाभारत काल में भी।
    समुद्र मंथन के अंत में अमृत का कलश निकला था। अमृत के नाम पर ही चरणामृत और पंचामृत का प्रचलन हुआ।
Exit mobile version