नग़्मा कुमारी अंसारी
विष्णु पुराण के मिथक के अनुसार एक बार सभी ऋषि यों की एक पंचायत हुई जिसमें यह निर्णय करना था की यज्ञ का भाग तीनों देवों में से किसको दिया जाए.
प्रथम परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि को चुना गया. भृगु मुनि ने भगवान शंकर को जाकर प्रणाम किया तो शंकर जी उन्हें गले मिलने के लिए खड़े हुए.
मुनि ने मना कर दिया कि आप अघोरी हो. मुर्दे की भस्म लगाते हो. हम आपसे गले नहीं मिल सकते.
भगवान शंकर क्रोधित हो गए. फिर भृगु मुनि अपने पिता के यहां गए तो अपने पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम नहीं किया. ब्रह्मा जी भी कुपित हो गए कितना उद्दंड बालक है पिता को प्रणाम नहीं करता.
भृगु मुनि बैकुंठ धाम गए तो भगवान विष्णु सो रहे थे. सोते हुए विष्णु को जगाने के लिए उनकी छाती में लात मारी. भगवान विष्णु ने ब्राह्मण का चरण पकड़ा और कहा ब्राह्मण देव आपका चरण बड़ा कोमल है. मेरी छाती बड़ी कठोर है. आपको कहीं चोट तो नहीं लगी.
मुनि ने तुरंत भगवान विष्णु के चरण छुए और क्षमा याचना करते हुए कहा, प्रभु यह एक परीक्षा का भाग था. हमें यह चुनना था कि किसे यज्ञ का प्रथम भाग दिया जाए. अब सर्वसम्मति आपके लिए बनेगी. आपको चुना जाता है.
तब भगवान विष्णु ने कहा कि जितना मैं यज्ञ- तपस्या से प्रसन्न नहीं होता उतना अब मैं ब्राह्मण को भोजन कराए जाने से होऊंगा.
भृगु जी ने पूछा, महाराज ब्राह्मण के भोजन करने से आप तृप्त कैसे हो सकते हैं?
विष्णु भगवान ने कहा, ब्राह्मण सात्विक प्रवृत्ति के होते हैं. वेद अध्ययन करने वाले होते हैं. ब्राह्मण ही मुझे ब्रह्मा और महेश तीनों का ज्ञान समाज को कराते हैं. हर अंग का कोई ना कोई देवता है. जैसे आंखों के देवता सूरज, कान के देवता बसु, त्वचा के देवता वायु, मंन के देवता इंद्र वैसे ही आत्मा के रूप में मैं भी वास करता हूं. ब्राह्मण भोजन करके तृप्ति की अनुभूति करें तो वह तृप्ति ब्राह्मण के साथ मुझे और उन देवताओं को भी प्रत्यक्ष भोग लगाने के समान है.
इसलिए यह परंपरा ऋषियों ने प्रारंभ की कि कोई भी धार्मिक कार्य हो तो ब्राह्मण को भोजन कराया जाए जिससे प्रत्यक्ष लाभ मिले.
कहते हैं, आत्मा सो परमात्मा. हमारे पूजा पाठ हवन का फल तभी हमें मिलता है जब परमात्मा प्रसन्न होता है. आस्तिक मन से किया दानपुण्य अवश्य फलता है. हर पूजापाठ के बाद भोज अवश्य कराना चाहिए. यह व्यक्ति की अपनी क्षमता पर निर्भर है।