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समाजवादी इतिहास की पौराणिकता* 

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        ~ दिव्या गुप्ता 

इतिहास के असंख्य रूप हैं – किसी आदमी का इतिहास, उसकी किसी बीमारी का इतिहास, साहित्य/कला/ दर्शन का इतिहास, किसी संस्था/प्रवृत्त्ति/आंदोलन का इतिहास, और सब से ऊपर भाषा का इतिहास, जिसमें इन सभी का कुछ न कुछ सुरक्षित है।

      जो कुछ भी है वह कैसे उत्पन्न हुआ और किन अवस्थाओं से गुजरता हुआ आज की स्थिति में आया, इसकी जानकारी इतिहास है। इन सभी की अपेक्षाएं अलग अलग हैं। इनमें प्रत्येक के कुछ अंशों की ही जानकारी हमारे बहुविद और मान्य विद्वानों को होती है;  बहुतों को विविध कारणों से गलत जानकारी होती है। इनमें से बहुतों के इतिहास के  विषय में हम कुछ नहीं जानते या न के बराबर जानते हैं, फिर भी कुछ के विषय में जानने की इच्छा इतनी प्रबल होती है कि उस नगण्य के आधार पर कल्पना से उनका इतिहास गढ़ लेते हैं।

      छोटे स्तर और विशिष्ट प्रकृति के कार्यों और घटनाओं  की जानकारी हमें नहीं हो सकती, न ही उसकी जरूरत है, यद्यपि उनका भी अदृश्य और सूक्ष्म प्रभाव बड़े फलक की गतिविधियों पर पड़ता है।  हम जिसे इतिहास कहते है और जिसे इतिहास  के रूप में पढ़ते हैं वह शासकों इतिहास है, जिसे कुछ रियायत दे कर राजनीतिक इतिहास कह सकते हैं।

   इसका हमारे जीवन पर बहुत सतही और अल्पकालिक प्रभाव पड़ता है।

राजवंशों के इतिहास का समाज के उत्थान और विकास में योगदान बहुत कम रहा है और अक्सर तो बाधक और विनाशकारी रहा है, इसलिए राजाओं या राजवंशों का इतिहास न भी हो तो समाज को कोई हानि नहीं होती। पश्चिम में इसी को इतिहास कहा जाता रहा, और इसी के प्रति भारतीय उदासीनता के कारण बार बार यह शिकायत की जाती रही कि भारत के पास इतिहास नहीं था।

      विडंबना यह कि इसे सभ्यता का मानदंड बना कर यह सिद्ध किया जाता रहा कि भारत के पास इतिहास नहीं था इसलिए यह सभ्य नहीं था। होना यह चाहिए था कि भारत पांच हजार वर्षों से दुनिया का सबसे सभ्य देश था, और जिन दिनों में सुल्तानों के कारनामों के, जिनमें से अधिकांश जघन्य थे, इतिहास लिखे जाते रहे, उस समय भी हिंदू इतिहास लिखने और लिखवाने वालों से अधिक सभ्य थे, इसलिए राजनीतिक इतिहास सभ्यता की जरूरत नहीं और इसकी पुष्टि में यह पाते कि दुनिया की किसी प्राचीन सभ्यता के पास इतिहास नहीं था, केवल पुराण थे, इसलिए इतिहास की तुलना में पुराण सभ्यता की अधिक सही पहचान है। उसमें व्यक्ति गौण होता है, सामाजिक अनुभव प्रधान।

      श्रमजीवी या बुद्धिजीवी का इतिहास नहीं होता,  यद्यपि उनके (उत्पादों) कार्यों  और विचारों पर ही हमारा जीवन निर्भर करता  है।  जीविका और सुख सुविधा के लिए जो लोग अपने  पेशीय बल ( श्रम), निपुणता (कला-कौशल), या बुद्धिकौशल को किसी की सेवा में अर्पित करते हैं,  उनको उस व्यक्ति,  संस्था या व्यवस्था की  अपेक्षाओं के अनुरूप ढलना होता है,  अपनी स्वायत्तता खोनी पड़ती है,  अधिक लाभ या  ख्याति के  लिए,  ‘अधिकस्य  अधिकं  फलम्’ के न्याय से अपनी योग्यता  को स्वतः बढ़ाना, निखारना और प्रतिस्पर्धा में दूसरों को पछाड़ते हुए आगे बढ़ना होता है।

ऐसे लोग उस व्यक्ति,  संस्था या व्यवस्था के यंत्र होते हैं और सुविधा होने पर इनका स्थान यंत्र ले सकते हैं। ऐसे लोग इतिहास के निर्माता नहीं होते, इतिहास के निर्माण में इस्तेमाल किए जा सकते हैं, किए जाते रहे हैं। 

     इतिहास केवल स्वतंत्र लोगों का होता है। इतिहास का सूत्रधार मानव यंत्रों का उपयोग करने वाला, अर्थतंत्र पर अधिकार करने वाला होता है।  इतिहास के निर्माण में स्वतंत्र चिंतक/ दार्शनिक, सत्यान्वेषी और आंदोलनकारी की भूमिका होती है और यदा-कदा यह अर्थतंत्र और राजशक्ति से अधिक प्रबल और अतिजीवी होती है।

     राजा, वे पहले के हिंदू राजा रहे हों, या मुसलमान या ईसाई/उपनिवेशवादी, उन्होंने अपने शासन काल में, शासनाधीन भूभाग में जो कुछ अच्छा या बुरा किया,  वह उस परिधि में आने वाले समाज को  ऊपरी रूप में  प्रभावित करता रहा,  परंतु उससे बाहर और बाद में उसका कोई प्रभाव नहीं द्खाई देता।  हम इस बात पर बहस कर सकते हैं कि कालिदास  किस विक्रमादित्य के शासनकाल में हुए थे, और यही उनको हमारे लिए बेमानी बना देता है।

      वे थे या नहीं थे, पर आज न वे हैं, न उनका प्रभाव। कालिदास आज भी हैं और केवल अपनी रचनाओं में नहीं, उनके प्रशंसकों, पाठकों,  उनसे प्रभावित   कवियों की रचनाओं के माध्यम से उन संस्कारों के छनते या रिसते हुए जन समाज तक पहुंचने के कारण आज तक दृश्य  और अदृश्य रूप में विद्वानों से लेकर  साधारण जनो तक के बीच भी उपस्थित हैं और यह तो तब है जब वह राजाश्रित कवि थे। जीवित इसलिए हैं कि उन्होंने अपनी सांस्कृतिक स्वायत्तता का  अंशदान  तो किया,  समर्पण नहीं किया।

      जैसे दरबारी कवि होते हुए बिहारी ने नहीं किया। सल्तनत काल में और मुगलकाल में अपने प्रताप का पैशाचिक प्रदर्शन करने वाले, अपने को अंग्रेजों से पहले विश्व सम्राट मानने वाले शासक हुए, उनकी जन्मकुंडलियां तो है जिन्हे बच्चों को पढ़ने को बाध्य किया जाता है पर जिनका उनके लिए कोई उपयोग नहीं है और इसलिए इतिहास दिमाग को कुंद करने वाला एक व्यर्थ का विषय बना दिया गया है।

       परंतु उसी दौर में  इन सम्राटों की जिनको यह भरम था कि सूरज उनसे इजाजत लेकर निकलता है, उनकी कबीर, नानक, दादू, सूरदास, रैदास, रहीम, तुलसी, मीराबाई आदि आदि में से जिसे नगण्य माना जाए उसके सामने भी उनके महाप्रतापी की हैसियत क्या है? यही नहीं, उन दरबारों में ही पहुंचने वाले  कवियों की हैसियत क्या रही है? वे उन शासकों की तरह ही किताबों में बंद हो गए – वह केशव हों, या पंडितराज जगन्नाथ।

      किताबें खोलो तो प्रकट होते हैं और किताबें बंद करो तो अपने आश्रयदाताओं की  तरह ओझल और व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि उनका ध्यान चमत्कार प्रदर्शन पर था। 

इतिहास जो कुछ भी कभी हुआ और घटा उसका क्रमबद्ध आलेख नहीं है। वह तो दुबारा होता ही नहीं। इतिहास जो कभी हुआ और लगातार बना रहा और आज तक बचा हुआ है और आज भी हमें प्रेरित और ऊर्जस्वित करता है और बाद के चरणों को समझने में सहायक होता है, वही है और इसलिए सामाजिक इतिहास ही एकमात्र सही इतिहास है।

      जो अनुपयोगी और व्यर्थ है वह  सामाजिक नहीं हो सकता।  जो सामाजिक नहीं है वह समाजवादी इतिहास की वस्तु नहीं हो सकता।  शासकों का इतिहास मानवता के ऊपर बोझ है, वह इतिहास है ही नहीं। यह सोचना, जैसा कि कोसंबी मानते थे कि समाजवादी इतिहास तभी लिखा जाएगा जब साम्यवाद स्थापित हो जाएगा, भ्रामक है।

      समाजवादी इतिहास भारत में पौराणिक वृत्तों के रूप में लिखा जाता रहा है, जिस में मिलावट बहुत अधिक है  फिर भी जिसके सारसत्य को सामने लाना इतिहास की चुनौती है और इतिहासकार की पहचान।  साम्यवाद स्थापित हो जाने के बाद तो इतिहास का ही अंत हो जाएगा।

    मार्क्स की मानें तो :

    historical changes are brought about by the growth of con-tradictions in each “mode of production”, and explains how man’s “social being” shapes his action. साम्यवाद में तो यह अंतर्विरोध ही समाप्त हो जाएगा।

      सामाजिक इतिहास एकमात्र विश्वसनीय और मार्गदर्शक इतिहास है जो भारत में अनंत काल से लिखा जाता रहा।  इसकी समझ अधूरे रूप में मार्क्सवादी इतिहास दर्शन के साथ आई, पर  उसे अतियथार्थवादी और हास्यास्पद बना दिया गया। उससे न वर्तमान को समझा जा सकता था, न इतिहास को नई दिशा दी जा सकती थी, न भविष्य का खाका बनायाजा सकता था।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

मोटे तौर पर कह सकते हैं कि किसी भी  क्षेत्र में पहल करने वाले इतिहास के निर्माता और वाहक होते हैं। किसी भी कारण से  किसी समाज में पहल   करने की क्षमता के  ह्रास के साथ  उस समाज का ह्रास होता है। सुख सुविधा के सभी साधन रहते हुए भी पहल की कमी से  ठहराव या गतानुगतिकता का आना इतिहास की समाप्ति है।    

      इतिहास का अर्थ है परिवर्तन और परिवर्तन का रुक जाना इतिहास का अंत है।  इसीलिए अमेरिका में  कुछ ही दशक पहले कहा जाने लगा था कि इतिहास का अंत हो गया।

     यह सोवियत संघ के  विघटन के बाद का नारा था  जिसका संदेश था कि अब लोकतंत्र और पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं, इसलिए इतिहास का अंत हो गया है और मनुष्यता अपनी पूर्णता को पहुंच गई है :

    The End of History and the Last Man is a 1992 book of political philosophy by American political scientist Francis Fukuyama which argues that with the ascendancy of Western liberal democracy—which occurred after the Cold War (1945–1991) and the dissolution of the Soviet Union (1991)—humanity has reached “not just … the passing of a particular period of post-war history, but the end of history as such: That is, the end-point of mankind’s ideological evolution and the universalization of Western liberal democracy as the final form of human government.(Chetna Vikas Mission).

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