~ कुमार चैतन्य
हिन्दू मत में 32 करोड़ देवी-देवताओं और इस्लाम में तकरीबन सवा लाख पैगम्बरों का जिक्र मिलता है। इस्लाम में इनमें 26 के नाम का जिक्र है, शेष के बारे में कुछ संकेत दिये गये है। उन संकेतो के आधार पर हम उनकी कभी पहचान कर सकते हैं। पहचान नहीं हो सकने की हालत में यह भी सलाह जारी की गई है कि “इस्लाम वालो तुम दूसरे मजहब के नबियों की बुराई न करो. हो सकता है कि उनमें से कोई नबी हो.”
भारत में सातवी सदी के पहले चरण में इस्लाम के आगमन के बाद जब दोनों संस्कृतियों का मेल हुआ तो कई बार कृष्ण, शिव आदि की चर्चा भी हुई। इनमें से कुछ मुस्लिम विद्धानों ने हिंदू धर्म के उन महानायकों की शान में कसीदे भी लिखे।
इनमें से श्री कृष्ण जी पर तमाम सूफी संतों एंव मुस्लिम विद्धानों ने हजारों कसीदे लिखे। श्री कृष्ण जी की शान में मुस्लिम कवियों ने जितना लिखा, उतना दुनियां के अन्य किसी मजहब के महापुरुष के बारे में नहीं लिखा। मेरा मानना है कि शायद इसलिए कि इस्लाम में वर्णित नाम वाले नबियों के बाद मुस्लिम समाज कृष्ण जी को हीं अपने करीब पाते हैं।
इसीलिए विद्धान सईद सुलतान ने अपनी किताब “नबी बंगश” में इस्लामिक नबियों के अलावा केवल श्रीकृष्ण को नबी समान दर्जा दिया है।
यों तो भारत में इस्लाम बहुत पहले ६२९ से भी पहले अरब व्यापारियों के साथ केरल के माध्यम से भारत में आया और उसी दौर में पहली मस्जिद भी समुद्रतटीय इलाके में बनी।
मगर भारत में ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम तेज़ी से फैला। लगभग इसी समय धार्मिक कवियों और सूफ़ीवादियों में ज़बरदस्त संगम हुआ।
नतीजे में इस्लाम कृष्ण के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया। सूफ़ीवाद ईश्वर और भक्त का रिश्ता प्रेमी और प्रेमिका के संबंध की मानिंद मानता है. इसलिए राधा या फिर गोपियां या सखाओं का कृष्ण से प्रेम सूफ़ीवाद की परिभाषा में एकदम सटीक बैठ गया।
नज़र ज़ाकिर अपने लेख ‘ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ बांग्ला लिटरेचर’ में लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु के कई मुस्लिम अनुयायी थे.
स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी और उड़ीसा के गवर्नर रहे बिशंभर नाथ पांडे ने वेदांत और सूफ़ीवाद की तुलना करते हुए एक लेख में कुछ मुसलमान विद्धानों का ज़िक्र किया है, इनमें सबसे पहले थे सईद सुल्तान जिन्होंने अपनी क़िताब ‘नबी बंगश’ में कृष्ण को नबी का दर्ज़ा दिया।
दूसरे थे अली रज़ा। इन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम को विस्तार से लिखा। तीसरे, सूफ़ी कवि अकबर शाह जिन्होंने कृष्ण की तारीफ़ में काफी लिखा।
बिशंभर नाथ पांडेय बताते हैं कि बंगाल के पठान शासक सुल्तान नाज़िर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बांग्ला में अनुवाद करवाया. ये उस दौर के सबसे पहले अनुवाद का दर्ज़ा रखते हैं।
मध्यकालीन दौर के मशहूर कवि अमीर ख़ुसरो की कृष्ण भक्ति की बात ही कुछ और है। बताते हैं एक बार निज़ामुद्दीन औलिया के सपने में श्रीकृष्ण आये।
औलिया ने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो ख़ुसरो ने मशहूर रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मो से नैना मिलाईके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया। इसमें कृष्ण का उल्लेख यहां मिलता है :
“…ऐ री सखी मैं जो गई पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी रे मोवसे नैना मिलाई के.”
कृष्णकी शान में आलम शेख लिखते हैं :
“पालने खेलत नंद-ललन छलन बल.”
नजीर अकबराबादी लिखते है :
‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की रख ध्यान सुनो,
दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की.’
इतिहास में एक मुस्लिम कवियित्री भी मिलती है। ताज मुगलानी नामक इस विदूषी का कहना है :
“नन्द जू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावनवारा कृष्ण साहिब हमारा है़।”
ताजा सदी में मौलाना हसरत मोहानी साहब ने भी लिखकर मान लिया :
हर जर्रा सरजमीने- गोकुल वारा।”
श्रीकृष्ण के प्रति मोहब्बत का यह आलम था कि मौलाना हसरत मोहानी जब कभी हज से वापस आते थे तो श्रीकृष्ण की पावन भूमि ‘वृंदावन’ ज़रूर जाया करते थे।
कितने नाम लिखें? “अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए” लिखने वाले अली सरदार जाफरी से लेकर रहीम, रसखान, नवाब वाजिद अली शाह, मुसाहिब लखनवी, सैयद इब्राहीम, उमर अली, रीतिकाल के कवि नसीर मसूद ने श्रीकृष्ण जी को सदा अपने करीब पाया है।
पदमश्री बेकल उत्साही साहब ने तो,
“भाव स्वभाव के मोल में मैं अक्षर अनमोल,
नबी मेरा इतिहास है कृष्ण मेरा भूगोल.”
लिख कर इतिहास ही रच दिया। ऐसा नहीं यह केवल केवल कवियों ने लिखा, यह मुस्लिम जनमानस में भी गूंजता है।
आज भी हमारे देहात के मुस्लिम क्षेत्र में जहां सोहर गान प्रचलित है, वहां मुस्लिम महिलाएं बच्चो के जन्म पर, “द्वारे पे खबरा जनाओं कि नंदलाल भुइयां गिरे हैं” अथवा “उवा (उगा) किशनतारा मदीने में” गाते पायी जाती हैं।
(स्रोत : नज़ीर मालिक की
पुस्तक यदुवंशम)