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जनादेश के संदेश को ठेंगा दिखा दिया है नरेंद्र मोदी ने

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सत्येंद्र रंजन 

नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने 2024 के चुनाव में उभरे जनादेश के संदेश को ठेंगा दिखा दिया है। पहले दिन से- यानी जिस रोज नतीजे आए- उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि देश की सियासी सूरत में ऐसा कोई बदलाव आया है, जिससे उन्हें को सबक लेने की जरूरत हो। चार जून की शाम को ही जब मोदी भाजपा मुख्यालय गए, तो उन पर पुष्प वर्षा की गई। वहां पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और फिर मोदी ने जो भाषण दिए, उनका निहितार्थ था कि देश के मतदाताओं ने एक बार फिर नरेंद्र मोदी को उसी तरह सिर-आंखों पर बैठाया है, जैसा उन्होंने 2014 और 2019 में किया था। उन्होंने संदेश दिया कि भाजपा को मोदी के नेतृत्व में निरंतरता का जनादेश मिला है।

लेकिन इन तथ्यों की उन्होंने सिरे से उपेक्षा कर दीः

भाजपा अगर अपने गढ़े सच (alternative truth) से बाहर आ पाती, उसे यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होती कि भले देश के मतदाताओं ने उसे ठुकराया ना हो, लेकिन उन्होंने उसे एक जोर का झटका जरूर दिया है। ऐसा क्यों हुआ, इस प्रश्न पर पार्टी के अंदर गंभीर मंथन होता। लेकिन उसने जमीनी सच को ठुकराने का रुख अपना लिया। भाजपा का पूरा तंत्र जो हकीकत नहीं है, उसके आधार पर लगातार तीसरी बड़ी विजय का नैरेटिव बनाने में पहले दिन से जुट गया। उसी का परिणाम है कि,

तो मोदी और भाजपा ने जो असल में किया हैउस पर ध्यान देः

इस तरह भाजपा ने चुनाव अभियान के दौरान उभरकर आई कुछ कड़वी सच्चाइयों और उनसे बने नैरेटिव्स पर ध्यान देने के बजाय उन्हें ठोकर मार दी है। वरना,

देश की अर्थव्यवस्था पर कुछ घरानों की कायम हुई मोनोपॉली के लिए बड़ी संख्या में लोग मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। इस परिघटना के प्रतीक के तौर पर अक्सर अंबानी-अडाणी के नाम लिए जाते हैं। चुनाव अभियान के दौरान एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में मोदी ने मोनोपॉली कायम कर चुके घरानों के मालिकों को वेल्थ क्रियेटर बताया था। कहा था कि वे तो यह ‘लाल किले से खुलेआम कहते हैं’ कि इन लोगों का सम्मान होना चाहिए। अब चुनाव के बाद यह बताने के लिए मोनोपॉली का शिकंजा कसने के नैरेटिव से वे पूरी तरह अप्रभावित है, मुकेश अंबानी और गौतम अडाणी को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में प्रमुखता से ‘शोकेस’ किया गया।

तो मोदी सरकार और भाजपा का कुल नजरिया यह है कि बीते चुनाव में उनके खिलाफ कुछ जाहिर नहीं हुआ। ना ही कोई ऐसा बदलाव आया, जिस पर ध्यान देने की जरूरत हो। बल्कि जिस रूप में उन्होंने पिछले दस साल में शासन चलाया है, उस पर मतदाताओं ने अपनी मुहर लगा दी है। इसलिए लाजिमी है कि वे उसी रूप में राजकाज चलाएंगे। और यही संभावना है। इस कार्यकाल में (अगर अप्रत्याशित राजनीतिक गतिविधियों के कारण यह कार्यकाल समय से पहले खत्म नहीं हो गया, तो) अगले पांच साल तक देश उसी दिशा में और उसी रास्ते पर चलेगा, जिसे प्रतीकात्मक तौर पर हम ‘मोदी मार्ग’ कह सकते हैं।

गुजरे दस साल में भी भाजपा नेतृत्व का रवैया जमीनी सच पर परदा डालने का रहा। इसके लिए आंकड़े गढ़ने या उन्हें तोड़-मरोड़ कर पेश करने का तरीका अपनाया गया। आंकड़ों में हेरफेर के जरिए भाजपा ने वैकल्पिक सच का निर्माण करने की कोशिश की, जिसे मीडिया और सोशल मीडिया के धुआंधार इस्तेमाल के जरिए प्रचारित किया गया। यानी भ्रम का साया फैलाया गया। वह साया अभी भी पूरी तरह छंटा नहीं है, लेकिन गुजरे चुनाव में यह जरूर जाहिर हुआ कि पहले साये के आगोश में चले गए बहुत से लोग अब उससे बाहर आ रहे हैं।

अनुभव प्राप्त सच और गढ़े गए सच में आखिरकार अंतर्विरोध का एक ऐसा मुकाम आता ही है, जब इनसान के लिए भ्रम में जीना मोहक नहीं रह जाता। कहा जा सकता है कि 2024 के आम चुनाव में ऐसा मुकाम आने की शुरुआत हो गई है। मगर भाजपा नेतृत्व इस सच को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। अंततः यह नजरिया उसे भी भारी पड़ेगा। लेकिन उसके पहले सत्ताधारी पार्टी के इस रुख की वजह से करोड़ों लोगों की बदहाली और बढ़ेगी। परिणामस्वरूप सामाजिक स्थिरता के लिए भी जोखिम बढ़ते चले जाएंगे।

भ्रम बनाने और फैलाने के भाजपा नेतृत्व के रुख के क्या परिणाम हुए हैं, उनकी अनेक क्षेत्रों में अनेक मिसालें दी जा सकती हैं। सबसे गंभीर उदाहरण तो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में ही देखने को मिल रहे हैं, जहां अवसरहीनता के कारण निराशा गहराती चली गई है। इस स्थिति के लिए कैसे भाजपा का नजरिया सीधे तौर पर जिम्मेदार है, उसे समझने के लिए फिलहाल यहां एक उदाहरण काफी होगाः

अब बीते हफ्ते सात जून को- जब चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद का शोर था और सबका ध्यान नई सरकार के गठन पर टिका था- तो केंद्र सरकार ने उस सर्वेक्षण की पूरी रिपोर्ट जारी कर दी। ((Factsheet_HCES_2022-23.pdf (mospi.gov.in)))

अब ये गौर कीजिएः फरवरी में इस रिपोर्ट से संबंधित सूचनाओं का जितना मीडिया कवरेज हुआ था, क्या सात जून को जारी जानकारियों को उतना प्रचार मिला है? ऐसी स्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो धारणाएं फरवरी में बन गईं, बहुत से लोगों के मन में वे स्थायी जगह बनाए रखेंगी।

मगर इससे क्या उन लोगों की हकीकत पर कोई फर्क पड़ेगा, जिनकी थाली हलकी होती चली जा रही है? जाहिर है- नहीं। और इस नहीं की संभावना तब और मजबूत होती दिखती है, जब सत्ता पक्ष में सच पर नज़र डालने की जरूरत ही नहीं समझी जा रही हो।

सर्वे रिपोर्ट से जो सच सामने आया है, वह गंभीर से भीषण होते हालात की ओर इशारा करता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत की आम आबादी के खाने में आज भी अनाज की सबसे ज्यादा मौजूदगी रहती है। अनाज की उपलब्धता इसलिए घटी है, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार आदि जैसी लगभग सभी सेवाओं के निजीकरण और उन पर खर्च बढ़ने के कारण सामान्य परिवारों के सामने खर्च घटाने की चुनौती बढ़ती चली गई है। इस कारण जिन मदों में उन्हें खर्च में कटौती करनी पड़ी है, उनमें भोजन भी है।

बहरहाल, इतिहास गवाह है कि सच खुद अपने को जाहिर करता है। इसलिए कहा जाता है कि सच को परास्त नहीं किया जा सकता। सत्ता पक्ष के पास भले इसे समझने का ऐतिहासिक नजरिया ना हो, मगर उससे करोड़ों लोग का सच बदल नहीं जाता। गुजरे चुनाव में संकेत मिला कि इन लोगों ने अपने सच और उससे जुड़े राजनीतिक पहलुओं के बीच संबंध की तलाश शुरू कर दी है। उसके अनुरूप उनकी प्रतिक्रिया भी सामने आने लगी है। इस बदलाव को नजरअंदाज करना देश की आर्थिक खुशहाली और सामाजिक स्थिरता के लिए बेहद खतरनाक होगा।

यह बात तो सबको याद रखनी चाहिए कि बढ़ती आर्थिक बदहाली और समाज में टूटती सद्भावना के बीच लोकतंत्र और संविधान का अक्षुण्ण बना रहना संभव नहीं है। बल्कि नजरिया अगर उन दोनों तकाजों की अनदेखी करना का हो, तो वैसा लोकतंत्र को संकुचित करते हुए ही किया जाता है। इस स्थिति में संविधान को बचाए रखने की बात महज दिवास्वप्न होगी। दुनिया भर का तुजर्बा इस बात का साक्षी है।

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