ठीक इक्कावन साल पहले, यानी 23 अगस्त,1970 के दिन,इन्दौर में पीने के लिये नर्मदा का पानी लाने का निर्णय हुआ था।
यह निर्णय एक ऐसे अद्भुत,अभूतपूर्व,आश्चर्यजनक और अहिंसक आंदोलन के बाद हुआ था, जिसमें शहर का बच्चा बच्चा शामिल था।
पूरे पचास दिन चले इस आंदोलन में न कोई मुर्दाबाद न कोई अभद्रता और सिरों के फूटने का तो सवाल ही नहीं, किसी की खिड़की का एक कांच भी नहीं फूटा था।
यह वह आंदोलन था जिसमें विशेषज्ञ,इंजीनियर्स,न्यायविद और सामाजिक कार्यकर्ता पूरी स्वेच्छा से अपना काम कर रहे थे, तो सामान्य नागरिक भी अपने योगदान में पीछे नहीं थे।
उसी आंदोलन की उपलब्धि के इक्कावन साल पूरे होने पर उसकी याद करता हुआ यह लेख।
यह लेख उपलब्धि को सिर्फ याद ही नहीं कर रहा है, बल्कि उम्मीद भी कर रहा है कि अब वापस कुछ वैसे ही लोग, उसी आग के साथ आगे आएं, ताकि शहर की अभी भी अधूरी रह रही प्यास को बुझाया जा सके।
शहर का शौर्य याद दिलाती इक्कावन साल पहले इन्दौर आई नर्मदा
इन्दौर शहर को नर्मदा का पानी पीते हुये अब पूरे इक्कावन साल हो गये हैं। क्योंकि, 23 अगस्त 1970 को एक लम्बे सविनय संघर्ष के बाद यह योजना स्वीकार हुई थी। जो लोग भी 1970 के बाद जन्मे हैं, या 1970 में जिनकी समझ पूरी तरह से नहीं बन पाई थी, वे जान लें कि नर्मदा का पानी इन्दौर में एक लम्बे और पूर्ण अनुशासित,सविनय नागरिक संघर्ष के बाद आया है। एक पूरी पीढ़ी को इसके लिये ‘खपना’ पड़ा था।
जन-आन्दोलनों का इतिहास जब कभी भी, और जहां कहीँ भी जब लिखा जायेगा, तब इन्दौर का “नर्मदा आन्दोलन” अलग से दिखेगा।
यह वह आन्दोलन था, जिसमें पहले दिन से आखिरी दिन तक पूरा शहर शामिल था, बच्चे-बच्चे की जबान पर सिर्फ पानी की मांग थी,लेकिन कोई अभद्र नारा नहीँ,किसी की मुर्दाबाद नहीं,किसी का कांच नहीं फूटा, और सिर फूटने का तो सवाल ही नहीं था।
1970 में इन्दौर की जनसंख्या लगभग 6 लाख थी। उपलब्ध जल स्त्रोत सिर्फ 4 लाख लोगों की जरुरत ही बड़ी मुश्किल से पूरी कर सकते थे।
यह बात हम सिर्फ शहर के रहवासियों की कर रहे हैं। अपने उद्योगों,व्यापार,चिकित्सा व शिक्षा सुविधाओं के कारण प्रतिदिन हर समय एक लाख लोग बाहर से आकर अस्थायी रूप से शहर में बने ही रहते थे। उनकी पानी की आपूर्ति अपनी जगह थी। जरुरत और जनसंख्या के मान से कमोबेश स्थिति आज भी वही है, और चार से पांच लाख की “फ्लोटिग पापुलेशन” आज भी शहर पर हर क्षण बनी ही रहती है।
ऐसी स्थिति में पानी की त्राहि-त्राहि मचना स्वाभाविक ही था। शहर बूंद-बूंद पानी को तरस गया था । तब के राजनीतिक दलों ने अपने हिसाब से आन्दोलन,धरने,प्रदर्शन और जो भी सम्भव रहा होगा, वह प्रयास किया ही होगा, किन्तु स्थितियाँ नहीं सुधरी ।
“आउट ऑफ बॉक्स” सोचने वालों की तब भी कोई कमी नहीं थी। कुछ समाजसेवियों,बुद्धिजीवियों,पत्रकारों,पुराने प्रशासकों और इन्जीनियरों ने सोचा कि क्यों न इन्दौर के लिये नर्मदा से पानी लाया जाय । इन्दौर से दूर बैठे कुछ लोगों को तो आज भी यह विचार अविश्वसनीय,अव्यावहारिक,खर्चीला और मजाक़ लगता है, तो तब भी लगा ही होगा।
इन्दौर से नर्मदा की दूरी 70 किलोमीटर के आसपास है। ऊपर से नर्मदा और इन्दौर के बीच विन्ध्याचल की पर्वत माला भी है। इनके बीच एक घना वन क्षेत्र। यानी, जितनी बाधाएं गंगाजी को जमीन पर लाने में नहीं हुई होगी,उससे ज्यादा बाधाएं नर्मदाजी को इन्दौर लाने में देखी और दिखाई जा रही थी।
लेकिन, शहर के कुछ युवाओं को यह बात “जुनून” की तरह छा गई कि “यह हो सकता है”, ”यह भी मुमकिन है”। तब, शहर के तब के युवा बुद्धिजीवियों मुकुंद कुलकर्णी, महेन्द्र महाजन और चंद्रप्रभाष शेखर ने 14 लोगों की एक समिति बनाकर अपनी संस्था “अभ्यास मंडल”, जो तब भी गैर-राजनीतिक थी, व आज भी है,के तत्वावधान में तब के सभी सक्रिय युवा व छात्र नेताओं को अपने साथ लिया, और इस विषय के जानकारों को भी अपने साथ जोड़ा। अकेले विशेषज्ञों को ही नहीं, पुराने अनुभवी प्रशासकों को भी अपने से सहमत किया।
इस मामले में सहमति का आलम यह था कि पूरे अंचल में बहुत-बहुत ढूँढने से एक-दो लोग इस बात से असहमत मिलते थे।
हां,एक साथ सहमत लोगों का इतना बड़ा समूह देखकर, कुछ राजनीतिक लोगों ने अपने अस्तित्व का खतरा जरूर महसूस किया,किन्तु वे भी बाद में शहर के नौजवानों के साथ हो लिये या चुप हो गये।
असहमत लोगों की संख्या बहुत कम थी।सारे राजनीतिक दल अपने सारे मतभेद भूलकर इस युवा समूह के पीछे खड़े हो गये और देखते ही देखते यह एक जन-आन्दोलन बन गया।
5 जुलाई,1970 को शुरु हुआ यह आन्दोलन 23 अगस्त 1970 तक चला था । अगस्त महीने की वह 23 तारीख ही थी, जब उन दिनों के मुख्य मंत्री स्वर्गीय श्यामाचरण शुक्ल ने घोषणा की थी कि इन्दौर के लिये नर्मदा से पानी लाने की योजना राज्य सरकार को मंजूर है।
चूंकि पंडित श्यामाचरण शुक्ल इन्दौर शहर के “दामाद” भी थे, और मुख्यमंत्री तो थे ही,इसलिये आन्दोलन के नारों में इस सम्बन्ध का भी ज़िक़र जरुर होता था। इसीलिये लोग, जिनका इस मामले से कोई लेना देना नहीं था, या आज भी नहीं है, कहते रहे कि श्यामाचरण जी ने अपनी ससुराल होने के नाते यह योजना इन्दौर को भेंट की थी ।
वे नहीं जानते कि अपने समय के यशस्वी इन्जीनियर स्वर्गीय व्ही जी आप्टे ने पूरे एक महीने से ज्यादा समय तक नर्मदा किनारे रहकर उस स्थान की पहचान की थी, जहां से पानी तो पर्याप्त मिले ही, खर्च भी कम लगे।
जिस जगह “जलूद” को चुना गया था, वहां पिछले सौ वर्षों से, एक समान जलस्तर रहा था व आगे भी ऐसा ही रहने के पूरे वैज्ञानिक कारण मौजूद थे।
उन्हीं दिनों में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त होकर अपने मूल निवास इन्दौर लौटे श्री पी एस बाफना ने उस तकनीकी और वैज्ञानिक आधार पर एक “फीजिबिलीटी” व प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनायी थी। बाद में इन्हीं बाफना साहब की अध्यक्षता में राज्य सरकार ने एक कमेटी बनाई थी, जो भविष्य की “सस्टेनेबीलिटि” पर विचार कर रिपोर्ट दे।
नर्मदा के पानी की मांग पर हुये आन्दोलन की समिति में सब नौजवान थे। लेकिन, इनके पीछे शहर की सारी राजनीतिक और सामाजिक ताक़त लगी हुई थी।
कामरेड होमी दाजी,जिनकी एक आवाज़ पर सारे कल-कारखाने और कपडा मिलें बन्द या चालू हो सकते थे,श्री राजेन्द्र धारकर और श्री सत्यभान सिंघल, जो शहर के मध्य वर्ग में निर्विवाद और गहरा प्रभाव रखते थे, या श्री कल्याण जैन,जो छोटे बड़े दुकानदारों के एकछत्र नेता या प्रतिनिधि थे,अपने सारे वैचारिक व राजनीतिक मतभेद भूलकर इस आन्दोलन के समर्थन में खड़े थे।
इस आन्दोलन के दौरान रखा गया “शहर-बन्द” जैसा अब शायद ही कभी फिर देखने मिले।इकट्ठी युवा शक्ति ने सिद्ध कर दिया था कि अनुशासित रहकर बिना पत्थर उठाये भी “राज्य” से अपनी बात मनवाई जा सकती है।
नर्मदा आ गई,इन्दौर की तात्कालिक प्यास भी बुझ गयी। लेकिन विकास,विस्तार,फैलाव और पसराव ने फिर हमें आज 1970 की स्थिति में ला खड़ा किया है।
इन्दौर को भेंट में मिली ‘नर्मदा योजना’ समझने वालों की आज भी कमी थोडी है।नर्मदा का पानी लाकर सबकी प्यास बुझाने के लिये लगने वाली बिजली का झगड़ा आज भी सुलझा नहीं है। “बिल्ली के गले की घंटी” की तरह यह मामला अदालत में ही पड़ा है ।
अदालत में शहर का पक्ष रखने के लिये बनी याचिका को स्वेच्छा से न्यायमूर्ति व्ही एस कोकजे ने बनाया था। सेवा निवृत्त न्यायमूर्ति पी डी मुल्ये और न्यायमूर्ति ओझाजी ने इसे देखकर अपनी सहमति दी थी। इन्दौर का पक्ष रखने के लिये वरिष्ठतम अधिवक्ता श्री जी एम चाफेकर खड़े थे। यही नहीं मध्यप्रदेश विद्युत मंडल के पूर्व अध्यक्ष श्री पी एल नेने ने उस याचिका को बनाने में तकनीकी सलाह उपलब्ध कराई थी। याद रखें इन सभी ने अपने किये किसी भी काम का कोई शुल्क नहीं लिया था।
पचास साल पहले सबकी सामूहिक ताक़त से आई नर्मदा योजना पर आज भी उन लोगों की निगाह बनी हुई है, जिन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर शहर की इस ताक़त को बनाया था।
पकी उम्र के बावजूद श्री मुकुन्द कुलकर्णी अपना काम कर रहे हैं,लेकिन इन्तज़ार भी कर रहे हैं कि वापस कोई नौजवान उसी आग के साथ आये,और नर्मदा के अगले चरण के लिये शहर को वैसे ही तैयार कर सके।
49 दिन चला आंदोलन
5 जुलाई 1970 से 23 अगस्त 1970 तक चलने वाले आंदोलन की तैयारी 1966 की गर्मी से ही शुरू हो गई थी शहर ने जब ऐतिहासिक जल संकट झेला तो उसके बाद नर्मदा को लाने के लिए शहर एक साथ उठ खड़ा हुआ। 14 जून 1970 को राजवाड़ा के गणेश हॉल में विद्यार्थियों और युवा नेताओं की बैठक में नर्मदा के लिए आंदोलन करने का औपचारिक निर्णय लिया गया। 30 जून को विश्वविद्यालय के छात्र संघ पदाधिकारियों की बैठक हुई जिसमें नर्मदा आंदोलन को पूरा सहयोग देने का निश्चय किया गया। आंदोलन 5 जुलाई से शुरू होने वाला था। 2 जुलाई को महू में भी आंदोलन समिति गठित कर ली गई। इस तरह से महू के युवाओं ने भी अपना नैतिक समर्थन दे दिया।
5 जुलाई नर्मदा आंदोलन का पहला दिन : यह दिन नर्मदा दिवस के रूप में इंदौर के इतिहास में दर्ज हो गया है। 1970 में इस दिन नगर की सारी दीवारों पर नर्मदा आंदोलन से जुड़े पोस्टर लगे थे। सुबह हर चौराहों पर युवाओं की टोलियां खड़ी थीं। दिनभर में करीब 50 हजार लोगों को बैच लगाए और 14 हजार लोगों के हस्ताक्षर लिए गए। पहला हस्ताक्षर पद्मभूषण तात्या साहब सरवटे ने किया।
6 जुलाई : जनमत संग्रह जारी रहा। विश्वविद्यालय छात्र संघ ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को तार भेजा। नर्मदा की मांग के संबंध में प्रस्ताव पारित किए जाने लगे।
7 जुलाई : कपड़ा मिलों की नगरी रही इंदौर में मप्र टैक्सटाइल्स एसोसिएशन के साथ ही सरकारी कर्मचारियों व निगम कर्मचारियों ने भी आंदोलन को समर्थन दिया।
8 जुलाई : पूर्व संसद सदस्य होमी दाजी ने भी नर्मदा की मांग को वाजिब माना। तत्कालीन विधायक बाबूलाल पाटोदी ने भी समर्थन दिया। दलगत राजनीति से परे जाकर जनप्रतिनिधियों ने इस मांग का समर्थन किया।
9 से 15 जुलाई : आंदोलन ने जोर पकड़ा। विरोध में उठने वाले स्वर धीमे पड़ने लगे। जनप्रतिनिधियों से जनता की एक ही मांग थी- नर्मदा इंदौर में चाहिए।
16 जुलाई : होमी दाजी के नेतृत्व में नर्मदा के लिए संघर्ष समिति बनी।
18 जुलाई : महिलाओं की विशाल सभा हुई।
24 जुलाई : तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल मानेक शॉ ने भी नर्मदा को इंदौर लाने के लिए प्रयत्न करने का आश्वासन दिया। इसी दिन होलकर राजवंश की उषादेवी होलकर ने भी समर्थन देते हुए कहा कि आंदोलन वाजिब है।
– तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के नर्मदा आंदोलन को राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जाने वाला आंदोलन और सुरेश सेठ द्वारा आंदोलन को अनावश्यक बताने वाले बयानों ने जनता को चौंकाया था।
28 जुलाई : सूचना व राज्यमंत्री बालकवि बैरागी को ज्ञापन भेंट किया गया।
29 जुलाई : मुख्यमंत्री शुक्ल के बयान के विरोध में इंदौर बंद का ऐलान हुआ।
30 जुलाई : जिला कलेक्टर ने जनप्रतिनिधियों की बैठक बुलाई। ढाई घंटे चली बैठक में निष्कर्ष निकला- एकमात्र हल नर्मदा का जल। इसी दिन तय हुआ कि 8 अगस्त को हड़ताल की जाएगी।
31 जुलाई : नगर निगम के कुछ इंजीनियरों ने नर्मदा योजना के संबंध में कुछ तर्क प्रस्तुत किए। महू में जुलूस निकला।
1 अगस्त : जुलूस निकालकर संभागाायुक्त को ज्ञापन सौंपा गया।
2 से 5 अगस्त : 8 अगस्त को होने वाले बंद की तैयारियां तेज, आंदोलन निर्णायक मोड़ की ओर।
6 अगस्त : महू में मशाल जुलूस निकला।
7 अगस्त : महू बंद रहा। इंदौर में वामपंथी दलों की संयुक्त संघर्ष समिति का जुलूस निकाला गया।
8 अगस्त : इंदौर में सौ फीसद बंद। मिल, कारखाने, दुकान, सिनेमाघर किसी के दरवाजे नहीं खुले। आंदोलन समिति के जत्थों ने नारों से शहर को गुंजा दिया। अहिल्या चौक में रात में विशाल आमसभा हुई।
9 अगस्त : इंदौर में नर्मदा लाने का अहिंसक आंदोलन नए मोड़ पर खड़ा था। भोपाल और दिल्ली से निर्णय की प्रतीक्षा थी।
10 अगस्त : संसद सदस्य शशिभूषण वाजपेई ने 8 अगस्त के इंदौर बंद का मुद्दा उठाते हुए कहा कि सरकार इंदौर की मांग पूरी करे। इसी दिन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने दिल्ली में प्रधानमंत्री से भेंट की।
11 अगस्त : केंद्रीय राज्यमंत्री प्रकाशचंद सेठी प्रधानमंत्री से मिले। उनके साथ अन्य संसद सदस्य भी थे। मुख्यमंत्री ने कहा कि इंदौर जाकर मामला निपटाऊंगा।
12 अगस्त : नर्मदा आंदोलन समिति ने तीन सूत्री नया कार्यक्रम बनाया। पहला- शहर की सभी संस्थाओं के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री से जाकर मिलें। दूसरा- सभी राजनीतिक दल अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें और तीसरा- सामाजिक, युवा संस्थाओं के साथ-साथ क्लबों के प्रतिनिधि भी मुख्यमंत्री से मिलेंगे।
15 अगस्त : जनता चौक में विशाल रैली निकली। अनोखीलाल पहलवान ने झंडावंदन के साथ-साथ नर्मदा वंदन भी किया।
18 अगस्त : इंदौर के छात्रों का प्रतिनिधिमंडल भोपाल में मुख्यमंत्री से मिला। विधायक यज्ञदत्त शर्मा ने भी मुख्यमंत्री से चर्चा की। बाद में कुछ नेताओं ने कहा कि मुख्यमंत्री ने नर्मदा योजना मान ली है।
19 अगस्त : मुख्यमंत्री ने कहा कि मैंने इंदौर के प्रतिनिधिमंडल को कोई आश्वासन नहीं दिया है।
20 अगस्त : शासन ने इंदौर के प्रस्तावित चार योजनाओं के तुलनात्मक आंकड़े प्रकाशित किए। ये योजनाएं थीं- चंबल, गंभीर, नर्मदा प्रथम और द्वितीय।
21-22 अगस्त : नर्मदा को लेकर आंदोलन चरम पर। जनता हर स्थिति में नर्मदा को इंदौर लाना चाहती थी।
23 अगस्त 1970 : शाम 6 बजकर 20 मिनट पर इंदौर में नर्मदा लाने की ऐतिहासिक घोषणा हुई।
नर्मदा के पहले पानी को संभालकर रखा, यही मेरा गोल्ड मेडल
नर्मदा प्रोजेक्ट से जुड़े रहे सेवानिवृत्त कार्यपालन यंत्री केसी दीक्षित भावुक होकर बताते हैं, जलूद से इंदौर में बिजलपुर के नर्मदा कंट्रोल रूम पर 1977 में 2 अक्टूबर को पानी आ चुका था। इसके बाद अन्नपूर्णा दशहरा मैदान में पहली टंकी पर पानी पहुंचाने की टेस्टिंग चल रही थी। बार-बार पाइपलाइन टूट रही थी, पानी का रिसाव हो रहा था। बहुत मुश्किल दौर था वह। मैं और मेरी टीम लगातार लगी रही। आखिर 26 अक्टूबर को शरद पूर्णिमा के दिन हम टंकी में पानी पहुंचाने में सफल रहे। उस समय मैं टंकी के अंदर कंटेनर में उतरा हुआ था। आंखों में उस समय आंसू छलक आए। पहली बार टंकी में गिरते नर्मदा के पानी को मैंने बोतल में भरकर हमेशा के लिए अपने पास रख लिया। मैं इसे ही अपना पुरस्कार और गोल्ड मेडल मानता हूं। दीक्षित इस समय रायपुर में हैं।
बच्चों को सोता छोड़ निकल जाते काम पर, तंबू में लगाया दफ्तर
सेवानिवृत्त कार्यपालन यंत्री एसएस रघुवंशी बताते हैं, यह आंदोलन से मूर्त रूप लेने वाली जनभावनाओं से जुड़ी परियोजना थी। हम लोगों ने भी पूरे समर्पण से काम किया। काम का जुनून ऐसा था कि घर आने का भी कोई समय नहीं रहता था। सुबह बच्चों को सोता ही छोड़कर बहुत जल्दी काम पर निकल जाते थे। बकौल रघुवंशी, इंदौर में नर्मदा प्रोजेक्ट नया-नया था। हमारे पास कार्यालय भी नहीं था। तब रेडियो कॉलोनी में सेंट्रल स्कूल के पास कपड़े के तंबू लगाकर पीएचई का दफ्तर शुरू किया। बाद में राजवाड़ा के पास गोपाल मंदिर में जगह मिली। कुछ समय यहां रहने के बाद मूसाखेड़ी में कार्यालय बनाया गया। उस समय सीमेंट नहीं मिल रही थी तो चूने के जोड़ से कार्यालय का निर्माण किया।
इतनी ऊंचाई से पानी लाने का एशिया का पहला प्रोजेक्ट
इंदौर के लिए नर्मदा प्रोजेक्ट बहुत महत्वपूर्ण है। इतनी ऊंचाई से पानी लाने का एशिया का यह पहला प्रोजेक्ट था। इंदौर में पीने के पानी की बहुत आवश्यकता थी। तब केवल काम का माहौल था। काम के अलावा कोई बात नहीं होती थी। उस समय प्रोजेक्ट की टेंडरिंग और प्रोसेसिंग की टीम में मैं भी शामिल रहा। शुरुआत में प्रोजेक्ट की लागत करीब 12 करोड़ रुपये थी। बाद में यह संशोधित होकर 30 करोड़ से अधिक हो गई थी। प्रोजेक्ट के लिए 1972-73 तक सर्वे चलता रहा और 1974-75 में टेंडरिंग हुई। – सुधीर सक्सेना, तत्कालीन सहायक यंत्री, बाद में प्रदेश के पीएचई के इंजीनियर इन चीफ बने
नर्मदा इंदौर लाने का संघर्ष भी उतना ही पथरीला है
अमरकंटक से खंभात की खाड़ी में मिलने तक नर्मदा जिस पथरीले और पहाड़ी रास्ते से बहती है, उसी तरह इस नदी को इंदौर लाने का संघर्ष भी उतना ही पथरीला है। उस संघर्ष की बदौलत ही आज नर्मदा इंदौर की प्यास बुझा रही है। इसके लिए शुरू किए गए जन आंदोलन को 23 अगस्त को 50 साल पूरे हो रहे हैं। नर्मदा प्रोजेक्ट के उन्हीं शिल्पियों के साथ ‘नईदुनिया’ उसी संघर्ष को आज आपके सामने रख रहा है, ताकि ऐसे भगीरथी प्रयासों के लिए जनता में संघर्ष का जज्बा जिंदा रहे।
जीवनदायिनी नर्मदा के स्वागत में रास्ते के पहाड़ और घाट भी नतमस्तक हुए और जन आंदोलन सफल हुआ। आंदोलन की परिणीति के रूप में जब सरकार ने इंदौर में नर्मदा लाने की घोषणा की तो असली संघर्ष इसके बाद शुरू हुआ। उस दौर में शहर से 72 किलोमीटर दूर मंडलेश्वर के पास से नर्मदा का पानी पहाड़ी रास्तों और घाटों से इंदौर तक लाना मुश्किल कार्य था। संघर्ष का पहला कदम था, प्रोजेक्ट के लिए सर्वे करने का। जंगल और पहाड़ों के बीच से पाइपलाइन लाने का रास्ता तय करने के लिए दिन में सर्वे करना मुश्किल था। ऐसे में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग (पीएचई) की इंजीनियरिंग टीम ने रात के समय पेड़ों पर चढ़कर सर्वे किया।
इसके लिए इंजीनियर और तकनीशियन पेड़ों पर चढ़कर केरोसिन से भभका या चिमनी जलाकर उजाला किया करते थे। उस समय प्रोजेक्ट से प्रमुख रूप से जुड़े रहे पीएचई के तत्कालीन कार्यपालन यंत्री एसएस रघुवंशी बताते हैं, जलूद (मंडलेश्वर) से इंदौर के बीच पहाड़ों पर पंपिंग स्टेशन बनाने के लिए गधों पर रेत और सीमेंट लादकर पहुंचाई गई। पहाड़ों पर सीमेंट-कांक्रीट के मिक्सर नहीं ले जा सकते थे, इसलिए वहीं पत्थर तोड़कर पंपिंग स्टेशन बनाए गए। शहर के अंदर पानी की टंकियां बनाने और वितरण लाइन बिछाने का जिम्मा कार्यपालन यंत्री केसी दीक्षित के पास था। दीक्षित बताते हैं, उस समय शहर में साढ़े 7 लाख गैलन पानी की क्षमता की पांच टंकियां बनाईं और जल वितरण के लिए 118 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन डाली गई। टंकियों के निर्माण और पाइपलाइन बिछाने में भी कई तकनीकी और व्यावहारिक मुश्किलें आईं। परियोजना के लिए मंडलेश्वर में अस्थायी रूप से लोहे के पाइप बनाने का और बड़गोंदा गांव में सीमेंट के पाइप बनाने का कारखाना लगाया गया था।
जापान से बुलाई स्टील प्लेट, इंग्लैंड से हाईप्रेशर वॉल्व
नर्मदा परियोजना के लिए सबसे बड़ी दिक्कत संसाधनों की आई। इंजीनियरों के मुताबिक, भारत में पेयजल वितरण की यह अनूठी परियोजना थी। इसमें लगने वाली स्टील प्लेट्स जापान से बुलाई जाती थीं। उस समय 7 हजार 70 टन वजन की स्टील प्लेट्स जापान से बुलाई गई थीं। तब पंपिंग स्टेशन में लगने वाले हाईप्रेशर वॉल्व भारत में नहीं बनते थे, इसलिए इंग्लैंड से बुलाए गए। परियोजना में बड़ी मात्रा में सीमेंट लगती थी। इसके लिए भारत सरकार से सीमेंट का विशेष कोटा आवंटित कराया गया। उस समय इंदौर में रेलवे की मीटरगेज, जबकि खंडवा में ब्रॉडगेज लाइन थी। इसलिए बाहर से निर्यात किया जाने वाला सामान पानी के जहाज से बंदरगाह पर और वहां से रेल मार्ग से खंडवा तक आता था। खंडवा से सामान ट्रकों में लादकर इंदौर और मंडलेश्वर के बीच परियोजना स्थल पर अलग-अलग जगह पहुंचाया जाता था।
परियोजना में ये भी भागीदार
– पेयजल की इस तरह की परियोजना उस समय बेंगलुरु में तैयार हुई थी। इस कारण वहां के इंजीनियर केजी काटवे के अनुभवों का लाभ लेने के लिए उन्हें इंदौर नर्मदा प्रोजेक्ट के लिए विशेषज्ञ सलाहकार बनाया गया।
– परियोजना के लिए हाईपावर कमेटी भी बनाई गई। इसमें केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष वायके मूर्ति, विद्युत मंडल के चेयरमैन, मुख्य अभियंता एसबी मेहता, जल संसाधन विभाग के मुख्य अभियंता केएल हांडा आदि को नियुक्त किया गया।
– समीक्षा के लिए शासन स्तर की एक कमेटी भी बनाई गई। इसमें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पीसी सेठी, सचिव, मंत्री के अलावा सेवानिवृत्त आइएएस पीएस बापना को भी शामिल किया गया। हर समिति हर महीने काम की समीक्षा करती थी।
– पीएचई के चीफ इंजीनियर आरए खन्ना परियोजना के प्रमुख थे। एसजीएसआइटीएस कॉलेज के इंजीनियरिंग विद्यार्थियों ने परियोजना का सर्वे किया था। इसी कॉलेज के सिविल विभाग के प्रमुख जेपी श्रीवास्तव, प्रो. डॉ. टी सीहोरवाला आदि ने डीपीआर बनाई थी।
– परियोजना के अलग-अलग हिस्सों में इंजीनियरों की टीम का काफी योगदान रहा। इसमें कोमल प्रसाद, एमए काजी, नूर मोहम्मद कुरैशी, जेडी सक्सेना, सुधीर सक्सेना, जीडी शारडा सहित करीब 32 इंजीनियर शामिल थे।
– परियोजना का काम लार्सन एंड टूब्रो की इंजीनियरिंग कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन और इंडियन ह्यूम पाइप कंपनी ने लिया था। भारत सरकार की कंपनियों एनजीइएफ से मोटर पंप और बीएचइएल से भी उपकरण खरीदे गए थे।