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*नरनारी : सेन्स ऑफ़ एंटाइटलमेंट और सेन्स ऑफ़ ओनरशिप*

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       ~ सुधा सिंह 

हमारे समाज में पितृसत्तात्मक परवरिश और जेंडर बायस्ड समाजीकरण के कारण पुरुषों में ऊपर की दोनों प्रवृत्तियाँ एक मनोवैज्ञानिक रोग के रूप में विकसित हो जाती हैं!     

        सेन्स ऑफ़ एंटाइटलमेंट से भरा हुआ व्यक्ति ख़ुद को ज़्यादा deserving समझता है, चवन्नी भर का काम करेगा तो अठन्नीभर का भाव मिलने की उम्मीद करेगा! ज़ाहिर है वो दूसरों को (ख़ासकर महिलाओं को) ख़ुद से कम deserving समझेगा! 

उदाहरण के रूप में पुरुष घर में अपनी पत्नी द्वारा किये जा रहे शारीरिक या मानसिक श्रम को अव्वल तो काम ही नहीं मानता है और अगर मानता भी है तो बहुत कम आंकता है! वहीँ दूरी तरफ़ अगर वो घर के कामों में पत्नी की थोड़ी हेल्प (हेल्प ही समझना, शेयर नहीं) कर दे तो उसके बदले वो वाहवाही पाना चाहता है!

      ठीक इसी तरह अपने ही बच्चे को थोड़ा संभाल ले (जो कि एक पैरेंट के तौर पर नॉर्मल बात होनी चाहिए) तो समाज से वो स्पेशल ट्रीटमेंट की उम्मीद करता है मानो उसने कोई एहसान किया हो! और स्पेशल ट्रीटमेंट न मिलने पर वो विक्टिम कार्ड खेलता है और ऐसे दिखाता है मानो उसका शोषण हो रहा हो! 

      सेंस ऑफ़ एंटाइटलमेंट इंसान को attention seeker बनाता है! ऐसी मानसिकता वाले इंसान को जब अटेंशन न मिले या इसकी बात को कोई तर्क से काटे तो इसे गुस्सा आ जाता है! जेंडर इक्वलिटी की बात करो तो इसे लगता है इसका कुछ छीन कर महिलाओं को देने की बात हो रही है! 

      पुरुषों में सेन्स ऑफ़ एंटाइटलमेंट पनपने का एक बहुत बड़ा कारण ये है कि बचपन से उसे बहनों की तुलना में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया मिला है, उसकी मांगें मानी गयी हैं, एक समान काम के लिए उसे बहन की तुलना में अधिक प्रशंसा मिली है! अब बड़े होकर वो इसी स्पेशल ट्रीटमेंट का आदी हो चुका है और इसे अपना अधिकार समझने लगा है! 

      सेन्स ऑफ़ ओनरशिप कैसे विकसित होता है? समाज में बचपन से ही पुरुषों को प्रोटेक्टर, संरक्षक की भूमिका थमा दी जाती है जैसे- भाई के रूप में बहन का, पति के रूप में पत्नी का, प्रेमी के रूप में प्रेमिका का, बाप के रूप में बेटी का, बेटे के रूप में माँ का! और पितृसत्ता में प्रॉपर्टी का सामाजिक उत्तराधिकारी और संरक्षक तो माना ही जाता है!

 ऐसे में जेंडर बराबरी उसे शोषण लगने लगता है अथवा उसे लगता है कि उसके अधिकार ही छीने जा रहे हैं! बाकी धर्म-परंपरा-रीति-रिवाजों के नाम पर जेंडर रोल्स तय किये गये हैं और ये दोनों मनोरोग उसी लाइन में परवरिश और समाजीकरण का परिणाम बनते हैं!

      ये दोनों मिलकर समाज में पुरुषों को सैकड़ों प्रिविलेज देते हैं और उन पर सवाल करो या उन्हें ख़त्म करके बराबरी की ‘नॉर्मल’ बात करो तो पुरुषों को कष्ट होता है क्योंकि इससे उनका स्पेशल ट्रीटमेंट प्रभावित होता है, उनके प्रिविलेज कम होते हैं! इसीलिए अधिकांश पुरुष उम्रभर ‘मर्द’ बने रहते हैं, ‘इंसान’ नहीं बन पाते!

      ये दोनों भाव कमोबेश सब में होते हैं लेकिन अधिकांश पुरुषों में ये ख़तरनाक और अमानवीय स्तर पर होते हैं! (इसे मर्द दिल पर ही लें और इतना लें कि थोडा इंसान बन जायें).

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