~ डॉ. विकास मानव
भारतीय संस्कृति में वेदोंका अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है। वेद भारतीय वाङ्मयकी अमूल्य निधि हैं। वे मन्त्रद्रष्टा ऋषियोंके प्रातिभ ज्ञानकी अन्यतम उपलब्धि हैं। हमारे ऋषियों की अनन्त ज्ञानराशि का दुर्लभ संचय हैं। भारतीय मनीषा के अक्षय भण्डार हैं। वेद केवल भारत के ही नहीं- विश्व के— निखिल मानव-जाति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। प्राचीन काल में हमारे ऋषियों ने अपने गम्भीर चिन्तन-मनन द्वारा जो ज्ञान अर्जित किया, वह हमें वेदों में उपलब्ध होता है।
चारों वेदों में ऋग्वेद का स्थान प्रमुख है। ऋग्वेद के वर्णित सूक्तों में इन्द्र, विष्णु, रुद्र, उषा, पर्जन्य प्रभृति देवताओं की भावाभिव्यञ्जक प्रार्थनाएँ हैं। वैदिक देवताओं की स्तुतियों के साथ ऋग्वेद में लौकिक एवं धार्मिक विषयों से सम्बद्ध तथा आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अनेक सूक्त हैं। इनमें आध्यात्मिक सूक्त दिव्य ज्ञान से ओतप्रोत हैं। इन्हें दार्शनिक सूक्त के रूप में भी जाना जाता है। ऋग्वेद के दार्शनिक सूक्तों में पुरुषसूक्त (ऋ० १०।९०), हिरण्यगर्भसूक्त (ऋक्० १० । १२१), वाक्सूक्त (ऋक्० १० । १२५) तथा नासदीय सूक्त (ऋक्० १० । १२९) अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। ऋग्वेदके ये सूक्त अपनी दार्शनिक गम्भीरता एवं प्रातिभ अनुभूतिके कारण विशेष महिमा मण्डित हैं।
सूक्तोंमें ऋषियोंकी ज्ञान गम्भीरता तथा सर्वथा अभिनव कल्पना परिलक्षित होती है। समस्त दार्शनिक सूक्तोंके बीच नासदीय सूक्तका अपना विशेष महत्त्व है। प्राञ्जलभावोंसे परिपूर्ण यह सूक्त ऋषिकी आध्यात्मिक चिन्तन- धाराका परिचायक है।
नासदीय सूक्तमें सृष्टिके मूलतत्त्व, गूढ रहस्यका वर्णन किया गया है। सृष्टि रचना जैसा महान् गम्भीर विषय ऋषिके चिन्तनमें किस प्रकार प्रस्फुटित होता है, यह नासदीय सूक्तमें देखनेको मिलता है। गहन भावाकाशमें ऋषिकी मेधा किस प्रकार अबाध विचरण करती है, यह नासदीय सूक्तमें उत्तम प्रकारसे प्रदर्शित हुआ है। सूक्तमें सृष्टिकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें अत्यन्त सूक्ष्मतासे विचार किया गया है।
इसीलिये यह सूक्त ‘सृष्टिसूक्त’ अथवा ‘सृष्ट्युत्पत्तिसूक्त’ के नामसे भी जाना जाता है। नासदीय सूक्तमें कुल सात मन्त्र हैं। सूक्तमें ऋषि सर्वप्रथम कहते हैं कि सृष्टिके पूर्व प्रलयावस्थामें न तो (नामरूपविहीन) असत् था और न उस अवस्थामें (नामरूपात्मक) सत् ही अस्तित्वमें था।
उस समय न तो अन्तरिक्ष था न कोई लोक था और न व्योम था। न कोई आवश्यक तत्त्व था अथवा न भोक्ता – भोग्यकी सत्ता थी। उस समय जल तत्त्वका भी अस्तित्त्व नहीं था।
उस अवस्थामें न तो मृत्यु थी और न अमरत्व था। न निशा थी और न दिवस था। सृष्टिका अभिव्यञ्जक कोई भी चिह्न उस समय नहीं था। केवल एक तत्त्व था, जो बिना वायुके भी अपनी ऊर्जासे श्वास ले रहा था और बस उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था-
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥
(ऋक्० १० । १२९ । २)
सृष्टिसे पूर्व प्रलयावस्थामें तम ही तमसे आच्छन्न था अर्थात् सर्वत्र अन्धकार – ही अन्धकार था। उस अवस्थामें नाम-रूपादि विशेषताओंसे परे कोई एक दुर्ज्ञेय तत्त्व था, जो सृष्टि सर्जनाके संकल्पकी महिमासे स्वयं आविर्भूत हुआ। सृष्टिसे पूर्वकी अवस्थामें उस एकाकीके मनमें सृजनका भाव उत्पन्न हुआ। उसीकी परिणति सृष्टिके जड चेतनरूप असंख्य आकारोंमें हुई। यही सृष्टि – तन्तुका प्रसार था। सृष्टिका विस्तार था।
ऋषि कहते हैं कि सृष्टिके पूर्व प्रलयावस्थामें जब नाम- रूपात्मक सत्ता ही नहीं थी, तब यथार्थरूपमें कौन जानता है कि विविधस्वरूपा यह सृष्टि कहाँसे और किससे उत्पन्न हुई? देवता इस रहस्यको नहीं बतला सकते, क्योंकि देवता भी तो सृष्टि रचनाके अनन्तर ही अस्तित्वमें आये थे।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥
(ऋक् ० १० । १२९ । ७)
‘गिरिसरित्समुद्रादियुक्त विविधरूपा यह सृष्टि उपादानभूत जिन परमात्मासे उत्पन्न हुई, वे इसे धारण करते हैं (अथवा नहीं), अन्यथा कौन इसे धारण करनेमें समर्थ है ? अर्थात् परमात्माके अतिरिक्त इस सृष्टिको धारण करनेमें कोई समर्थ नहीं है। इस सृष्टिके अधिष्ठाता जो परम उत्कृष्ट आकाशवत् निर्मल स्वप्रकाशमें अवस्थित हैं, वे ही इस सृष्टि-रहस्यको जानते हैं ( अथवा नहीं जानते हैं), अन्यथा कौन दूसरा इसे जाननेमें समर्थ है अर्थात् वे सर्वज्ञ ही इस गृढ सृष्टि- रहस्यको जानते हैं, उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जानता।’
नासदीयके तीन भाग हैं- प्रथम भागमें सृष्टिके पूर्वकी स्थितिका वर्णन है। उस अवस्थामें सत्-असत्, मृत्यु – अमरत्व अथवा रात्रि- दिवस कुछ भी नहीं था। न अन्तरिक्ष था, न आकाश था, न कोई लोक था, न जल था। न कोई भोग्य था, न भोक्ता था। सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार था। उस समय तो बस, केवल एक तत्त्वका ही अस्तित्व था, जो वायुके बिना भी श्वास ले रहा था।
द्वितीय भागमें कहा गया है कि जो नाम रूपादि- विहीन एकमात्र सत्ता थी, उसीकी महिमासे संसाररूपी कार्य-प्रपञ्च प्रादुर्भूत हुआ। इस परम सत्तामें सिसृक्षाभाव उत्पन्न हुआ और तब चर-अचररूप निखिल सृष्टिने आकार ग्रहण किया।
तृतीय भागमें सृष्टिकी दुर्ज्ञेयताका निरूपण किया गया है। समस्त ब्रह्माण्डमें ऐसा कोई भी नहीं है, जो यह कह सके कि यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई ? सामर्थ्यवान् देवता भी नहीं कह सकते, क्योंकि वे भी तो सृष्टि रचनाके बाद ही अस्तित्वमें आये थे। संसार- सृष्टिके परम गूढ रहस्यको यदि कोई जानते हैं तो केवल वे जो इस समस्त सृष्टिके अध्यक्ष हैं, अधिष्ठाता हैं। उनके अतिरिक्त इस गूढ तत्त्वको कोई नहीं जानता।
नासदीय सूक्तमें ऋषिने सृष्टि सर्जनाके गुह्यतम रहस्यको निरूपित किया है। हमारे लिये यह परम गौरवका विषय है कि दर्शनके इस अतिशय गूढ सिद्धान्तका विवेचन सर्वप्रथम याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, जनक, व्यास, शंकराचार्य प्रभृति दार्शनिक महाविभूतियोंकी प्रादुर्भाव – भूमि भारतवर्षमें हुआ। ऋग्वेदके नासदीय- सूक्तकी गणना विश्वके शिखर साहित्यमें होती है। जगत्-सर्जनाके रहस्यको उद्घाटित करनेकी भावनासे विश्व के किसी भी मनीषी (कवि) के द्वारा नासदीय- सूक्तसे अधिक गम्भीर एवं प्रशस्त काव्यकृति आजतक नहीं रची गयी। यह अपने आपमें इस सूक्तकी उत्कृष्टताका संदेश देता है। दर्शन एवं कविता दोनोंकी उच्चतम कल्पनाकी अभिव्यक्ति इस सूक्तमें मिलती है।
सूक्तमें आध्यात्मिक धरातलपर विश्व-ब्रह्माण्डकी एकता की भावना स्पष्ट रूपसे अभिव्यक्त हुई है। विश्वमें एकमात्र सर्वोपरि सर्जक एवं नियामक सत्ता है, इसका भी सूक्तमें स्पष्ट संकेत मिलता है। नासदीय सूक्तके इसी विचार- बीजका पल्लवन एवं विकास आगे अद्वैतर्शनमें होता है। भारतीय संस्कृतिमें यह धारणा – मान्यता बद्धमूल है कि विश्वब्रह्माण्डमें एक ही सर्वोच्च सत्ता है, जिसका नाम-रूप कुछ भी नहीं है। नासदीय सूक्तमें इसी सत्यकी अभिव्यक्ति है।
वेदों के नासदीय-सूक्त में सिद्धान्त रूप में सृष्टि की प्रलय व उत्पत्ति का वर्णन है.
सृष्टि और प्रलय ये दो विश्व के अनिवार्य अंग है। क्षणिक सर्जन एवं संहार से लेकर यौगिक मान्वन्तरिक काल्पिक तथा आत्यन्तिक सृष्टिप्रलय का विधान शाश्वत है। सृष्टि के पहले क्या था ? इसको जानने वाला कौन है ? वेद कहता है-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥ १॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह आसीत् प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥ २॥
तम आसीत् तमसा गूलहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्वापिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥ ३॥”
( ऋग्वेद १०/१२९/१-३)
१. असद् आसीत् = सृष्टि के पूर्व कोई असत् (भंगुर) पदार्थ नहीं था।
न उ सद् आसीत् = तथा न ही कोई सत् टिवाक) पदार्थ था।
तदानीम् न आसीद् रजः = उस समय न कोई लोक था।
न उ व्योमा= न ही अन्तरिक्ष था।
(न) परः यत् = जो व्योम से भी परे था, वह भी नहीं था।
किम् आ अव रीवः = क्या था जो सर्वत्र व्याप रहा था ?
कुह = कैसा था ?
कस्य शर्मन् = किस के आश्रित था ?
किम् अम्भः = क्या यह अमृत था ?
आसीद् गहनं गभीरम् = जो गहन (गहरा गाढा अभेद्य) एवं गंभीर (रहस्यमय दुर्बोध शान्त) था।
२- न मृत्युः आसीद् = उस समय नश्यमान कुछ भी नहीं था।
अमृतं न तर्हि= न अविनाशी पदार्थ ही तब था।
न रात्र्या प्रकेतः = न रात्रि का अस्तित्व था।
न अह्न आसीत् = न दिन ही था।
आनीद अवातम् = वहाँ व्यापक प्राणतत्व था, जो गतिहीन था।
स्वधया तद् एकम् = अपने ही बल पर वह एक तत्व था।
तस्माद् धान्यत् न पर कि चन आस= उस (एक प्राण) से परे दूसरा कुछ भी नहीं था।
३- अग्रे तमः आसीत् सृष्टि के पूर्व अन्धकार था।
तमसा गूलहम् अ प्रकेतम् = अन्धकार से व्याप्त उस अवस्था में कुछ भी जानने योग्य नहीं सब कुछ अज्ञेय था।
सलिलं सर्वम् आ इदम् = इस सम्पूर्ण अन्धकारमयी अवस्था में सलिल (गतिमान तत्व) था।
तुच्छयेन आ भू अपि हितम् = वह तत्व अत्यन्त सूक्ष्म, सर्वव्यापक तथा गुह्यतम था।
यद् आसीत् तपसः तत् महिना अजायत एकम्= जो था, उसके तप से व्यापक महिमामय देव का. प्रकाट्य हुआ। अर्थात् अव्यक्त से व्यक्त हुआ त्रिगुणात्मिका प्रकृति की साम्यावस्था के भंग होने से विषमगुणा प्रकृति का आविर्भाव हुआ। यह सहस्तेज (सूर्य) ही था।
तिरश्चीनो विनतो रश्मियामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्॥
(ऋग्वेद १०/१२९/५)
तिरश्वीनः विनतः रश्मिः = तिरछी झुकी हुई (इस तेजस्वी तत्व) की किरणों का समुदाय।
एषाम् अधः स्विद् आसी परिस्द् आसीत् = सभी दिशाओं में नीचे और ऊपर के लोकों को व्याप्त कर लिया- सर्वत्र फैल गया।
रेतः आसन् महिमानः आसन् = जो किरणें उत्पन्न हो कर फैली, वे महिमायुक्त / महत्वमयी थीं।
स्वधा अवस्तात् = अव्यक्तमूला प्रकृति पीछे हो गई नहीं रही।
प्रयतिः परस्तात् = त्रिगुणात्मिका व्यक्त प्रकृति (तेजोमयी हो कर आगे आ गई उत्पन्न वा आविर्भूत हुई।
इसका नाम महत्तत्व है। इसे वैश्विक बुद्धि कहते हैं। यह प्रकृति का प्रथम विकार एवं सृष्टि का व्यक्त विन्दु मात्र है।
सृष्टि के आविर्भाव एवं उसके रहस्य को जानने की इच्छा हर बुद्धिमान् करता है। जानता वही है। जिस की बुद्धि प्रचोदित (विवेकयुक्त) है। योगमार्ग इसका एक साधन है। योगी की जिज्ञासा शान्त होती है, वह ज्ञान के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचता है। वहाँ से वह परमज्ञान का निर्वचन करता है। सांख्य शास्त्र ज्ञान का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जो सदैव विद्यमान रहता है, वह कौन = प्रजापति है। “को नाम प्रजापतिः।” ( ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण।)
वैदिक ऋषि कहता है-
को अद्धा वेद का इह प्रवोचाकृत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥
( ऋग्वेद १०/१२९/६)
अद्धा= प्रत्यक्ष, सचमुच, यथार्थतः निश्चित रूप से, निश्चयपूर्वक, तत्वतः।
प्रवोचा = ज्ञाता, वक्ता, द्रष्टा।
अर्वाग्= बाद में होने वाला, पश्चात् जायमान।
आजाता = उत्पन्न ।
विसृष्टिः = अव्यक्त से व्यक्त हुई रचना।
विसर्जनेन= उद्गारेण ।
अथा =तथा।
वेद= जानता है।
अबभूव = हुआ।
मन्त्रार्थ : सृष्टि किस प्रकार, विधि वा उपादान से हुई, इसे यथार्थ रूप से कौन (प्रजापति ही) जानता है। अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त हुई प्रकृति वा महामायाशक्ति तक किस की (केवल उसी प्रजापति की हो) पहुँच है। क्योकि सभी तो उसके बाद उससे ही उत्पन्न हुए हैं। अतः यथार्थ रूप से सर्ग का वर्णन कौन करे?
अथ च : अयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥
( ऋग्वेद १०/१२९/७)
यतः विसृष्टिः इयं आवभूव= जिससे इस सृष्टि का जन्म एवं विस्तार हुआ है।
यदि वा दधे यदि वा न (दधे) = वह इस (सृष्टि) को धारण किये हुए है अथवा (वह इसे नहीं धारण किये हुए है। अर्थात् यह सृष्टि साधार वा निराधार है।
यः अस्य अध्यक्षः परमे व्योमन् = जो इस का अध्यक्ष (स्रष्टा) परमाकाश में स्थित है।
सः अङ्ग वेद यदि वा न वेद= वह अंग (गतिशील तेज) इसे जानता है अथवा नहीं जानता है, यह कौन कहे ? इस बात का ज्ञाता भी तो कोई नहीं है।
सृष्टि से पहले जो तत्व उत्पन्न हुआ, उसे काम कहते हैं। अव्यक्त अग्नि का नाम काम है। यह अग्नि जिसमें वा जहाँ उत्पन्न होती है, उसे वा उसको जलाने लगती है। इसलिये वह इसे बाहर करता है। यह अव्यक्त अग्नि वा काम महत्तत्व है। यह महाशक्ति है। वेदवचन है-
कामस्तदप्रे समवर्तताथि मनसो रेलः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा।।
(ऋग्वेद १०/१२९/४)
कामः तद् अग्रे सम् अवर्तत = उस सृष्टि के पूर्व काम (तेजोमय अग्नि) की उत्पत्ति) हुई।
यद् प्रथमं आसीत् = जो (यह अग्नि) प्रथम (सर्वोपरि) था।
अधि मनसः रेतः= अग्नि में स्थित ज्ञान अथवा वैश्वमन से रेत (त्रिगुणरूप बीज) की उत्पत्ति हुई।
सतः बन्धुम् असति= यह जो रेत (त्रिगुण बोज) है, बन्धु (बाँधने वाला, आसक्ति पैदा करने वाला) है। यह असत् (अव्यक्त प्रकृति) में निहित होता है।
निर् अविन्दन् ह्रदि प्रतीष्या कवयः मनीषा= विद्वानों को बुद्धि के भीतर यह ज्ञान अच्छी तरह नहीं धँस पाता। अर्थात् विद्वान् लोग भी इसे ठीक ठीक नहीं जान पाते।
इस विषय में उन का विद आन्दोलित रहता है, बुद्धि भ्रमित रहती है।
इस सृष्टि के रहस्य को केवल योगी ही जानता है। योगी वह है जो इस सृष्टि से जुड़ा हुआ वा इससे अभिन्न है। यह चेतन तत्व सबके भीतर निरपेक्ष रूप से विद्यमान रहता है। योग से यह जागता है। अन्यथा यह योग निद्रा में ही पड़ा रहता है। जागृत चैतन्य से बुद्धि में विवेक का प्रवेश होता है। इससे ज्ञान स्पष्ट झलकता है। काम को ही हिरण्यगर्भ कहा गया है। वेद वाक्य है-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
( ऋग्वेद १०/१२१/१)
हिरण्यगर्भः = हिरण्य (दीप्ति, प्रकाश) है, जिसके गर्भ में स्वयं भूज्योति।
सम् अवर्तत अग्रे = सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ/ हुई।
भूतस्य जातः पतिः = वह हिरण्यगर्भ (काम) ही उत्पन्न हुए भूतों वा जीवों का पति (पालक पोषक रक्षक पक्षक) कहलाता है।
एकः आसीत् = वह हिरण्यगर्भकाम एक (गतिशील) या अर्थात् निरन्तर गतिमान तेज (सूर्य) ही वह हिरण्यगर्भ है।
स दाधार पृथिवीम् धाम् उत इमाम् = वह इस पृथिवी एवं द्युलोक को धारण करता है।
कस्मै देवाय हविषा विधेम = उस (तस्मै कस्मै देव के लिये भाव रूपी हवि अर्पित करते हैं उस देव को हम नमस्कार करते हैं।
जो स्थान (आकाश) घेरता है तथा विस्तार को प्राप्त करता वा जिसमें आयतन है, वह सब पृथिवी है पृथिवो काम का स्थूल रूप है। हिरण्यगर्भ काम का दिव्यरूप है। अतएव काम (हिरण्यगर्भ) हो काम (पृथिवी) का पति है।
सभी जीव काम के सूक्ष्मरूप है। प्राणियों के शरीर में यह काम जीव रूप में वसता है। अस्मै हिरण्यगर्भाय कामाय नमः।
सृष्टि विषयक नाना मत एक दूसरे के पूरक वा पोषक हैं। ये वेद वाक्य है-
अतं च सत्यं च चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥
समुद्रादर्णवाचि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिघतो वशी॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥
( ऋग्वेद १०/१९०/१-३)
ऋ गतो अरति + क्त= मृत व्यवस्था, नैसर्गिक नियम, उचित मार्ग, निश्चित विधि, पावन प्रथा, दिव्य बन्धन, शाश्वती मर्यादा।
अस भुवि + शतृ= सत् – सतत वर्तमान, सदैव विद्यमान रहने वाला, वास्तविक, अस्तित्ववान्।
सते हितम् सत् + यत् = सत्य अविनश्वर, अविकारी, अकाल तत्व।
अभीयात् = सब ओर से धारण करने वाला निर्भय एवं अद्वितीय तत्व।
अर्णवः = स्वयं गतिशील एवं गतिप्रदाता, वायु एवं पार्थिव विशाल जलराशि।
समुद्रः = प्रसन्न, देदीप्यमान, अन्तरिक्ष, तारों भरा आकाश।
मिषतः = स्पर्धा करता हुआ, देखता हुआ, चमकता हुआ, शासन करता हुआ।
तपसः = तेज से।
मन्त्रार्थ : सर्वधारक निर्भय एवं अद्वितीय तेज से अंत एवं सत्य (वैश्विक व्यवस्था एवं अग्नि) का जन्म (दुर्भाव हुआ। सत्य नाम अग्नि का सूर्य दिव्य अग्नि है। इसके बाद रात्रि (एवं दिन) आविर्भूत (प्रकट) हुए समुद्र और अर्णव अर्थात् प्रकाश वायु एवं जल उत्पन्न हुए। जलयुक्त समुद्र वा प्रकाश युक्त अन्तरिक्ष को उत्पत्ति के बाद संवत्सर (सरकने वाले पिण्ड) वा कालचक्र उत्पन्न हुआ। चमकते हुए विश्व को अपने वश में रखता हुआ रात्रि को धारण करने वाला भाता (तेजोमय तत्व) ने पहले की तरह सूर्य और चन्द्रमा को स्थापित किया। भूमि, अन्तरिक्ष, आकाश अर्थात् त्रिलोकमयी सृष्टि पहले के समान ही प्रकट हुई।
हिरण्यगर्भ काम है। काम अग्नि है। अग्नि तेज है। सूर्य तेज है। सूर्य अश्व है। अश्नाति अन्धकारम् तेन अश्व सूर्यः। सृष्टि के मूल में यहाँ अश्व है।
अथमन्त्र :
यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात्।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महिजातं ते अर्वन् ।।
(ऋग्वेद १/१६३/१)
यद् = यः जिसने। अक्रन्दः = महाशब्द अकरोः। बड़ा शब्द / ज्ञानपोष / प्रकाश किया। प्रथमं जायमानः = पहले उत्पन्न होते हुए।उदयन = उदय होते हुए प्रकाय को प्राप्त करते हुए।समुद्रात् = अन्तरिक्षात् (नियं. २/१०)। आकाश से।
उत वा= तथा अथवा ।पुरीषात् = उदकात् (निषे, ३/१९ ) । जल से। श्येनस्य पक्षा = बाज पक्षी के पंख।हरिणस्य बाहू = हरिण की दोनों भुजाएँ। उपस्तुत्यम् = सघनस्तुति के योग्य, अति प्रशंसनीय। महि = महत्। महान्। जातम् = उत्पन्न। ते = तव तेरा।अर्वन् = हे अश्व। हे गतिशील तेज।
इस मन्त्र में ज्योति वा तेज को श्येन (श्यै गतौ श्यायते + इनन्) अर्थात् गतिशील तथा हरिण (हृ हरति ते + इनन्) अर्थात् अन्धकार का हरण (नाश) करने वाला कहा गया है। उस तेज को अर्वन् (ऋ गतौ हिंसायाञ्च + वनिप् ) अर्थात् निरन्तर चलते हुए अन्धकार को नष्ट करने वाला कहा गया है। उस तेज की आगे पीछे की रश्मियाँ उदयास्त कालीन किरणें श्येन के दो पक्ष तथा हिरण के बाहुऍ (सांगे) हैं। अक्रन्दः (क्रन्द लङ् म. पु. एक व) = अप्रकाशयः = प्रकाश किया। यहाँ पक्षौ= बाहू= उदीयमान एवं अस्तमान किरणें तथा श्येन = हरिण = अर्वन् = अश्वः = ज्योति = तेजोमय अग्नि = तपस् = हिरण्यगर्भ = ब्रह्म = प्रजापति = धाता = सूर्य जब अन्धकार में सब कुछ विलीन था, कुछ दिखता नहीं था, तब जो सबसे पहले प्रकट हुआ, वह तेजोमयतत्व सूर्य ही था।
मन्त्रार्थ : हे अश्व । जिस पहले उत्पन्न हुए तथा अन्तरिक्ष वा जल से निकलते हुए तू ने बड़ा शब्द (महाप्रकाश) किया। तुझ श्येन वा हरिण के दोनों प्रकार की (वर्धमान एवं क्षीयमान) रश्मियां प्रशंसनीय हैं।
अथ च : तव शरीरं तपयिष्णवर्वन् तव चित्तं वात इव ध्रजीमान्।
तव श्रृंगाणि विष्ठिता पुरुत्राऽरण्येषु जर्भुराणा चरन्ति॥
( ऋग्वेद- १/१६३/११ )
तव शरीरम् पतयिष्णु अर्वन् = हे अर्वन् (अश्व) ! तेरा शरीर ऊपर उठ कर पुनः धीरे-धीरे गिरने वाला वा उड़नशील है।
तव चित्तम् वातः इव ध्रजीमान् = तेरा चित्त वायु की तरह वेग से चलने वाला तथा सब को चलायमान रखने वाला है।
तव श्रृंगाणि वि स्थिता पुरुषा= तेरी सोंगे (किरणें) जो कि विस्तृत हैं, बहुत स्थानों में (व्याप्त) हैं।
अरण्येषु जराणा चरन्ति= तेरी ये किरणें वनों (निर्जन स्थानों) में चमकती हुई विचरण करती हैं।
शृ हिंसायाम् श्रृणाति + गन् = श्रृंग प्रकाश रश्मि जिससे अन्धकार का हिंसन (विनाश) होता है।
जृभ् दीपने जर्भते + उरन् = जर्भुर चमकने वाला + शानच् = जर्भुराण |
जर्मुराणा= देदीप्यमानाः । चपकते हुए।
पुरुत्रा =बहुषु स्थानेषु।
अरण्येषु = निर्जनेषु लोकेषु।
विष्ठितः = विस्थिताः विस्तृताः। प्रसारिताः। फैले हुए।
श्रृंगाणि = रश्मयः । किरणानि। मरीचयः।
इस अश्वनामा सूर्य वा तेज को जो जानता है, वह धन्य है।
अथ मंत्र :
को ददर्श प्रथमं जायमानमस्यन्वन्तम् यदनस्था बिभर्ति।
भूम्या असुरसृगात्माक्वस्वित् को विद्वांसमुपगात् प्रष्टुमेतत्॥
(ऋग्वेद १/१६४/४)
कः ददर्श प्रथमं जायमानम् = पहले जन्मते (उत्पन्न होते हुए) तेज को किस (प्रजापति) ने देखा है।
अस्थन् – वन्तम् = अस्थिवन्तम्। कठोर एवं दृढ स्वरूप वाले को।
यत् अनस्था बभर्ति= जो बिना अस्थिवाला अर्थात् आकाश है, वही इसे धारण करता वा पोषाता है।
भूम्याः असुः असृग् आत्मा क्वस्वित्= भूमि का प्राण, रक्त, आत्मा रूप प्रथम जायमान यह तेज (पहले) कहाँ था ?
कः विद्वांसम् उप गात् = किस विद्वान् ज्ञानी ऋषि के पास पहुँचा वा जाया जाय ?
प्रष्टुम् एतत्= इसके विषय में पूछने / जानने के लिये।
यह तेज निश्चय ही रहस्यमय है। कहाँ से, कैसे, क्यों, किस से, कब आया ? यह प्रश्न जिज्ञासु धीमान् के मनमस्तिष्क में निरन्तर उठता रहता है। इस जिज्ञासा की शांति के लिये तत्व द्रष्टा ऋषि के पास जाया जाता है। पात्रता होने पर जिज्ञासा मिटती है।