पवन कुमार
_राष्ट्रसेवा भी ठेके पर. खुल गई राष्ट्रभक्ति की ढ़ोल की पोल._
हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘अग्निपथ’ मेरी प्रिय कविताओं में रही। ख़ास कर इसका अंतिम हिस्सा मुझे हमेशा छूता रहा- यह महान दृश्य है, ‘चल रहा मनुष्य है, अश्रु-स्वेद कण से लथपथ, लथपथ, लथपथ।’ इन पंक्तियों और इस कविता से मेरे लगाव को ‘अग्निपथ’ नाम से बनी दो बहुत मामूली- और कुछ मायनों में वाहियात- फिल्में भी कम नहीं कर पाईं।
दरअसल हरिवंश राय बच्चन का विद्रोही रूप मुझे हमेशा से लुभाता रहा। हालावादी कवि के रूप में उनकी शोहरत ने जैसे उनके इस वास्तविक रूप को सामने आने नहीं दिया, वरना उनके तेवर बहुत अलग रहे- ‘प्रार्थना मत कर, मत कर, मत कर, मनुज पराजय के स्मारक हैं, मंदिर मस्जिद गिरजाघर’ जैसी पंक्ति उन जैसा कवि ही लिख सकता था।
_यह अलग बात है कि हर बात पर अपने बाबूजी का पुण्य स्मरण करने वाले अमिताभ बच्चन बात-बात पर सिद्धिविनायक मंदिर में माथा टेकते नज़र आते हैं।_
बहरहाल, यह टिप्पणी न हरिवंश राय बच्चन पर है, न अमिताभ बच्चन पर और न ही अग्निपथ नाम की कविता पर। यह चार साल के लिए सैनिकों की भर्ती की उस नई योजना पर है जिसका नाम न जाने क्यों ‘अग्निपथ’ रखा गया है और जिसके गुण-दोष के बारे में मेरी कोई स्पष्ट राय नहीं है। लेकिन कुछ बातें हैं जिनकी वजह से यह टिप्पणी ज़रूरी लग रही है।
पहली बात तो यह कि सेना में भर्ती की एक योजना का नाम ‘अग्निपथ’ क्यों? इसे सैन्यपथ, सुरक्षा पथ, वीरपथ, साहसपथ जैसे कई नाम दिए जा सकते थे। संभव है योजनाकारों को लगा होगा कि ‘अग्निपथ’ एक आकर्षक नाम है जिसकी बदौलत युवाओं को सेना की ओर आकृष्ट किया जा सकता है। लेकिन क्या भारतीय सेना को ऐसी किसी आकर्षक पैकेजिंग की ज़रूरत है?
_भारत में यों ही सेना का सम्मान बहुत है। इसकी एक वजह यह भी है कि वह राजनीति से दूर खड़ी है और पूरी तरह राष्ट्र की सुरक्षा में तैनात मानी जाती है। हालांकि राजनीतिक विडंबनाएं उसका काम और स्वभाव कई बार बदलती दिखती हैं, कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक और कई दूसरे इलाकों में उसकी भूमिका से स्थानीय लोगों की नाराज़गी भी दीखती है, कई बार इच्छा होती है कि काश उसकी वर्दी पर कहीं भी मानवाधिकार हनन के दाग़ न लगें, लेकिन इसके बावजूद कुल मिलाकर अनुशासन, मर्यादा और गरिमा में भारतीय सेना एक उदाहरण प्रस्तुत करती है।_
‘अग्निपथ’ जैसा रोमानी नाम उसकी गरिमा कम करने वाला है। इस नाम से जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटक ‘आर्म्स ऐंड द मैन’ की याद आती है। करीब सवा सौ साल पहले लिखे हुए इस नाटक में सर्बिया का भगोड़ा कैप्टन ब्लंट्श्ली उस सर्जियस का मज़ाक बनाता है जिसे उसकी प्रेमिका रैना बहुत बड़ा हीरो मानती है। वह उसे ‘चॉकलेट क्रीम सोल्जर’ कहता है।
कभी वह लापरवाही में कहता है कि दस में से नौ सैनिक मूर्ख होते हैं। दरअसल वह कहना यह चाहता है कि युद्ध वीरता की किसी रोमानी कल्पना से नहीं जीते जाते, उनके पीछे रणनीति, तैयारी और युद्ध कौशल होता है।
_’अग्निपथ’ वीरता की इसी रोमानी कल्पना को बढ़ावा देने वाला नाम है। इसका दूसरा चिंतनीय पहलू यह है कि यह सेना में एक पेशागत श्रेष्ठता का भाव भरता है जिसकी वजह से जीवन के दूसरे और कहीं ज़्यादा वास्तविक ‘अग्निपथ’ अनदेखे रह जाते हैं।_
मसलन इस देश में जो लोग सीवर सिस्टम में उतर कर सफ़ाई करते हैं, वे असली अग्निवीर हैं। कई बार उनकी जान चली जाती है। लेकिन उन्हें कोई शहीद नहीं मानता, जबकि काम वे देश के ही आते हैं। इसी तरह बहुमंज़िला इमारतों में काम करने वाले मज़दूर जिन हालात में काम को मजबूर होते हैं, असली अग्निवीर वे भी हैं। ऐसे बहुत सारे पेशे हैं जिनकी चुनौती बिल्कुल आग से खेलने जैसी है।
दरअसल हमारे यहां जो जातिगत विभाजन है, जिसकी श्रेष्ठता का आधार पेशागत श्रेष्ठता में बदल दिया जाता है, उसी से सेना में चार साल की भर्ती अग्निपथ बताने की मानसिकता भी निकली है।
_दूसरी बात यह कि इस देश की श्रम शक्ति कई स्तरों पर शोषण झेल रही है। सरकारी नौकरियां भी घटी हैं और उनकी सहूलियतें भी, जबकि ख़ुद को ईमानदार और पेशेवर बताने वाला निजी क्षेत्र नौकरियों के मामले में सबसे ज़्यादा अनैतिक है।_
वहां योग्यता से ज़्यादा जान-पहचान चलती है, और यह जान-पहचान अक्सर अपने वर्ग और अपनी जाति के दायरे में होती है, वहां नौकरियां बॉस की मर्ज़ी पर चलती हैं, काम के घंटे तय नहीं होते, और पेंशन जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दिखती। वहां नौकरियों में ठेका चलता है जिसमें कर्मचारियों की स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं होती, उन्हें बॉस की वफ़ादारी के भरोसे रहना पड़ता है।
सेना का ‘अग्निपथ’ भी सरकारी होते हुए अपने चरित्र में निजी क्षेत्र जैसा है। यह एक पूरी प्रवृत्ति का विस्तार है जिसमें श्रमिक ज़्यादा से ज़्यादा लाचार होते चले गए हैं।
_तीसरी बात यह कि अग्निपथ को लेकर कल से जो विरोध प्रदर्शन जारी है, उसको लेकर सरकार और समाज का रवैया देखने लायक है। बीते शुक्रवार को ही कई शहरों में प्रदर्शन हुए, कहीं छिटपुट हिंसा भी हुई, लेकिन उनको लेकर सरकारी तंत्र और बहुसंख्यक समाज का जो गुस्सा दिखा, वह इस गुरुवार को पूरी तरह गायब है।_
शुक्रवार के बाद लड़कों को थानों में बंद कर उनकी पिटाई करते हुए वीडियो बनाए गए, जिन्हें मंत्रियों ने प्रदर्शनकारियों का रिटर्न गिफ़्ट बताया। इतवार आते-आते घरों पर बुलडोज़र चलने लगे। इस देश के तथाकथित लोकतांत्रिक लोग इसे सही मानते हुए बताते रहे कि इन्होंने देश की सार्वजनिक संपत्ति बरबाद की है, पथराव किया है।
लेकिन अब जब ‘अग्निपथ’ के ख़िलाफ़ बहुत सारे संभावित अग्निवीर ही खड़े हो गए हैं और वे गाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक में आग लगा रहे हैं, तब सार्वजनिक संपत्ति और सार्वजनिक व्यवस्था के नुक़सान पर आक्रोश जताने वाले कहां हैं?
_क्या वे अब भी यह मानते हैं कि इन हुड़दंगियों का भी रिटर्न गिफ्ट पैक बनाया जाना चाहिए और इनके घरों में बुलडोज़र चलाया जाना चाहिए?_
दरअसल देश ऐसे नहीं चलते। उन्हें विधान और संविधान के हिसाब से चलना चाहिए, लेकिन विधान और संविधान का इस्तेमाल अगर आप अपनी खुन्नस निकालने के लिए करते हैं, अगर अपने सांप्रदायिक पूर्वग्रहों की संतुष्टि के लिए करते हैं, अगर प्रतिशोध की राजनीति के लिए करते हैं तो आप देश को भी कमज़ोर करते हैं और संविधान को भी।
निस्संदेह जो लोग आज भी सड़कों पर उतर तरह-तरह से अपनी हताशा व्यक्त कर रहे हैं, उन पर बुलडोज़र चलाने की नहीं, उनका दुख समझने की ज़रूरत है। अरसे से अटकी पड़ी सरकारी नौकरियों के लिए उनकी उम्र जा चुकी, सेना में नियुक्ति के लिए अगर वे प्रशिक्षण या कोचिंग पर अपने साधन लगा चुके हैं तो वे बेकार साबित हो रहे हैं और एक अनिश्चित भविष्य उनके लिए अग्निपथ बना हुआ है।
_कमोबेश यही बात बीते शुक्रवार के प्रदर्शनकारियों के बारे में कही जा सकती है। दरअसल तीन कृषि क़ानूनों के बाद इस अग्निपथ ने बताया है कि सरकार के ऐसे फ़ैसलों से न किसान खुश हैं न नौजवान। क्या प्रधानमंत्री को इस बार भी देर-सबेर मानना पड़ेगा कि उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गई?_
फिलहाल तो यही लग रहा है कि इस देश की लोकतांत्रिक तपस्या में कोई कमी रह गई है।
_वरना न बीता शुक्रवार होता, न मौजूदा गुरुवार आता। और इससे बढ़ कर ऐसी सरकार नहीं होती जो अपने ही लोगों के घरों पर बुलडोज़र चला कर ख़ुश होती।_
[चेतना विकास मिशन]