Site icon अग्नि आलोक

राष्ट्रवाद : कल और आज 

Share

 पुष्पा गुप्ता 

आदमी ने जीवन में चाहे जितने महान काम किये हों, मर जाने के बाद लाश यदि घर में रखी रहे तो सड़कर बीमारियाँ और बदबू ही फैलाती है। राष्ट्रवाद आज के समय में एक ऐसी ही लाश बन चुका है। आज राष्ट्रवाद हर मायने में अन्धराष्ट्रवाद का पर्यायवाची बन चुका है। जिन्गोइज़्म, ज़ायनिज़्म, विस्तारवाद, नस्लवाद सभी राष्ट्रवाद का लबादा पहनकर ही अपने रक्तपातपूर्ण मानवद्रोही अभियानों पर निकलते हैं।

      राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म मण्डी में हुआ (जैसे जनवाद का जच्चाघर कारखाना है)। ये ऐतिहासिक तौर पर पूँजीवादी घटनाएँ हैं। क्लासिकी पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों के दौरान ईश्वर के प्रतिनिधि राजा के प्रति निष्ठा के बजाय पूरे जनसमूह के राष्ट्र के प्रति निष्ठा, राष्ट्रीय भावना, राष्ट्र के चुने हुए प्रतिनिधियों की सत्ता आदि के नारे देते समय राष्ट्रवाद की निश्चय ही ऐतिहासिक तौर पर एक सकारात्मक भूमिका थी।

     प्राक् पूँजीवादी अवस्थाओं में एक नस्लीय या जनजातीय परिघटना के रूप में राष्ट्रीयता मौजूद थी जिसकी पाँच बुनियादी अभिलाक्षणिकताएँ थीं: एक स्थिर, निरन्तरतापूर्ण समुदाय, एक विशिष्ट भूभाग, आर्थिक साहचर्य, एक साझी भाषा और एक सामूहिक चरित्र। एक विशेष युग की विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में इसने सकारात्मक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण किया – यानी सामन्तवाद के विरुद्ध उदीयमान पूँजीपति वर्ग के संघर्षों के दौरान। आर्थिक बुनियाद की ऐतिहासिक पड़ताल से ज्ञात होता है कि एक समांगी जनसंख्या और कमोबेश समान माल आवश्यकताओं वाला राष्ट्रीय बाज़ार उद्योगों की बुनियादी आवश्यकता थी जिसने राष्ट्र और राष्ट्रवाद को जन्म दिया।

     पश्चिमी यूरोप में राष्ट्र-राज्य विकसित हुए जबकि रूस और पूर्वी यूरोप में बहुराष्ट्रीय राज्य। यूरोप अमेरिका में पूँजीवादी युग की निर्णायक विजय होते ही राष्ट्र-राज्य अपने बाज़ारों के विस्तार और उपनिवेशों की छीनाझपटी के लिए एक-दूसरे से लड़ने लगे और पूँजीपति राष्ट्रवाद की भावना का इस्तेमाल एक राष्ट्र की जनता को दूसरे राष्ट्र की जनता के विरुद्ध युद्ध में झोंकने के लिए करने लगे। विश्व के पूँजीवादी भूभाग में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक भूमिका समाप्त होने लगी।

     साम्राज्यावाद के युग में कच्चे माल की लूट, उत्पादों के बाज़ार और वित्तीय पूँजी के निर्यात के लिए संरक्षित क्षेत्रों (उपनिवेशों) की छीनाझपटी अपने चरम पर जा पहुँची जिसका परिणाम विनाशकारी पहले विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया। लेनिन ने उसी समय यह सूत्रीकरण दिया कि यूरोपीय देशों के सर्वहारा और आम मेहनतक़श जनता को बाजा़रों की छीनाझपटी की इस रक्तपातपूर्ण लड़ाई में अपने-अपने देशों के पूँजीपति वर्ग की ओर से लड़ते हुए दूसरे देशों के अपने ही मज़दूर भाइयों को मौत के घाट उतारने का काम कत्तई नहीं करना चाहिए और साम्राज्यवादी पूँजीपति जब आपसी लड़ाई में उलझे हों, तो इसका लाभ उठाकर आम बग़ावत कर देनी चाहिए और समाजवादी क्रान्ति की कोशिश करनी चाहिए।

      इसी कार्यदिशा पर अमल करते हुए रूस में बोल्शेविकों ने अक्टूबर क्रान्ति सम्पन्न की जबकि जो यूरोपीय सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ अन्धराष्ट्रवाद की लहर में बह गयीं, वे पतित होकर बुर्जुआ संसदीय पार्टियों की भाई-बिरादर बन गयीं।

     लेकिन साम्राज्यवाद की सदी (बीसवीं सदी) में भी राष्ट्रवाद दुनिया के उन भूभागों में एक सकारात्मक, प्रगतिशील शक्ति बना रहा, जहाँ के देश उपनिवेश या नवउपनिवेश थे और जहाँ राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभार इतिहास के एजेण्डे पर थे। ऐसे देशों में राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद विरोध का पर्याय बन गया। चूँकि ज़्यादातर ऐसे देशों में साम्राज्यवाद ही प्राक पूँजीवादी (प्राय: सामन्ती या अर्द्धसामन्ती) भूमि-सम्ब‍न्धों  का पोषक और संरक्षक था, इसलिए राष्ट्रीय (यानी साम्राज्यवाद विरोधी) कार्यभार जनवादी (सामन्तवाद-विरोधी) कार्यभार के साथ अविभाज्यत: जुड़ गया। साम्राज्यवाद की अवस्था में क्रान्तियों के तूफानों का केन्द्र  पश्चिम से खिसककर पूरब में आ चुका था।

      एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के उपनिवेश, अर्द्धउपनिवेश और नाम मात्र स्वतंत्रता वाले देश ही अब विश्व पूँजीवाद की निर्बलतम कड़ी थे और क्रान्ति के तूफानों के सम्भावित केन्द्र बन गये थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की एक के बाद एक, विजय का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अविराम 1970 के दशक तक जारी रहा।

      एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के ज़्यादातर देशों में, कहीं हथियारबन्द संघर्ष के रास्ते, कहीं व्यापक दीर्घकालिक जनान्दोलनों के रास्ते, तो कहीं ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति का इस्तेमाल करते हुए देशी बुर्जुआ सत्ताएँ अस्तित्व‍ में आयीं। लगभग इन सभी देशों के बुर्जुआ वर्ग ने कहीं थोड़ी ज़्यादा तेज़ गति से, तो कहीं धीमी गति से, कहीं ज़्यादा रैडिकल ढंग से, तो कहीं ज़्यादा समझौतों और रियायतों के साथ, ऊपर से, गैर क्रान्तिकारी ढंग (‘प्रशियाई मार्ग’ से) से बुर्जुआ भूमि सुधारों को लागू किया और पुराने भूस्वामियों को तबाह कर देने के बजाय उन्हें बुर्जुआ भूस्वामियों-उद्योगपतियों की कतारों में व्यवस्थित हो जाने का भरपूर अवसर दि‍या। यह बिस्मार्क और कमाल अतातुर्क द्वारा अपनाये गये रास्ते का ही नया संस्करण था। भूमि सम्बन्धों  का यह पूँजीवादी रूपान्तरण राष्ट्रीय घरेलू बाजा़र के निर्माण के लिए ज़रूरी था।

     इस तरह जनवादी क्रान्ति का सर्वोपरि बुनियादी कार्यभार इन देशों में एक क्रमिक प्रक्रिया में मूलत: और मुख्यत: पूरा हो गया।

     नवस्वाधीन देशों की बुर्जुआ सत्ताओं में से कुछ ने शुरुआती कुछ वर्षों तक साम्राज्यवादी देशों के प्रति कुछ अधिक रैडिकल तेवर अपनाये (जैसे बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण किये), जबकि कुछ ने शुरू से ही अधिक नरम और समझौतापरस्त  रुख अपनाया। कुछ ने औद्योगीकरण के लिए (‘इम्पोर्ट-सब्सटिट्यूशन इण्डस्ट्रियलाइजेशन’) पर अधिक बल दि‍या। यह सबकुछ देशी पूँजीपतियों की अपनी पूँजी की ताकत और देश विशेष की उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर के हिसाब से तय हो रहा था। लेकिन गौरतलब बात यह थी कि इनमें से किसी भी देश के पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद  के साथ निर्णायक विच्छेद नहीं किया। यह काम केवल उन्हीं देशों में हुआ जहाँ राष्ट्रीय मुक्ति सर्वहारा के नेतृत्व में क्रान्ति करके हासिल की गयी थी, जैसे, चीन, दक्षिण कोरिया, वियतनाम आदि।

      सभी पूर्वऔपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवादी पूँजी की पैठ बनी रही, फ़र्क सिर्फ़ यह था कि अब ये देश किसी एक साम्राज्यवादी देश के संरक्षित बाज़ार नहीं रह गये थे। इन देशों के पूँजीपति वर्ग के हाथों में यह क्षमता आ गयी थी कि वे कई साम्राज्यवादी देशों से मोल-तोल कर सकें और अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठा सकें।

      उपनिवेशवाद के दौर की समाप्ति सुनिश्चित होने के बाद भी अमेरिका ने लातिन अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के कई देशों में कठपुतली सरकारों या सैनिक जुण्टाओं की निरंकुश सत्ता बैठाकर उन्हें  पूरी तरह अपने अँगूठे के नीचे रखना चाहा, लेकिन नवउपनिवेशवाद का यह प्रयोग अल्पकालिक रहा। मुख्यत: वर्ग-संघर्षों के दबाव ने कालान्तर में ऐसे सभी देशों में बुर्जुआ जनवादी चुनावों और बुर्जुआ संविधान की स्थापना के लिए बाध्य कर दिया, चाहे यह बुर्जुआ जनवाद जितना भी सीमित, विकृत और खण्डित क्यों न हो। उत्पादक शक्तियों का सापेक्षिक पिछड़ापन, साम्राज्यवादी शक्तियों पर निर्भरता और साम्राज्यवाद का विश्व ऐतिहासिक दौर – ये तीन उपादान एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के देशों में बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं और विकृतियों को गढ़ने वाले बुनियादी कारक थे।

      इन सभी देशों में साम्राज्यवाद से आज़ादी और उसपर निर्भरता के जैविक समीकरणों का एक व्यापक, वैविध्यपूर्ण वर्णक्रम बनता था। सबकुछ इस बात पर निर्भर करता था कि किस देश की उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर क्या है, अर्थतंत्र कितना वैविध्यपूर्ण है, बुनियादी और अवरचनागत उद्योगों का विकास कितना हुआ है और वहाँ के पूँजीपति वर्ग की पूँजी की ताकत कितनी है। मुख्य परिदृश्य यह बनता है कि एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के इन सभी देशों के पूँजीपति विश्व स्तर पर निचोड़े गये अधिशेष की भागीदारी में सबसे निचले पायदान पर हैं, जबकि ज़्यादातर मामलों में, अपने देश के स्तर पर निचोड़े गये अधिशेष के वे बड़े हिस्सेेदार हैं। इनमें से जो पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद पर सर्वाधिक निर्भर और सर्वाधिक कमज़ोर है, वह भी दलाल नहीं है। ये सभी साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर हैं और इनकी पार्टनरशिप की प्रकृति इनकी पूँजी की कम या अधिक ताकत के हिसाब से तय होती है।

     कुल मिलाकर, 1970 के दशक तक, कथित तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभार पूरे हो चुके थे। जो कुछ बचा-खुचा था, वह 1980 के दशक में पूरा हो गया। अपवादों और अल्पकालिक विचलनों को छोड़कर, इन भूभागों में भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण का काम मूलत: और मुख्यत: पूरा हो चुका था और संविधान सम्मत चुनी हुई सरकारों का शासन था। यानी, विश्व इतिहास के रंगमंच पर, इस समय जिस रूप में सम्भव था, उस रूप में बुर्जुआ जनवाद का कार्यभार पूरा हो चुका था। अब जनवाद के लिए संघर्ष का मतलब था- जनता के जनवादी अधिकारों के लिए बुर्जुआ जनवाद के दायरे में संघर्ष करते हुए और बुर्जुआ जनवाद के ढकोसलों-सीमाओं को उजागर करते हुए जनसमुदाय को समाजवादी जनवाद के क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए तैयार करना। लेकिन राष्ट्रवाद के नारे का अब तीसरी दुनिया के देशों के सर्वहारा और मेहनतक़श जनता के लिए कोई प्रगतिशील निहितार्थ नहीं रह गया था।

      इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से जितनी आज़ादी हासिल कर सकता था, उतनी वह कर चुका था और विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में साम्राज्य़वादियों के जूनियर पार्टनर के रूप में व्यवस्थित हो चुका था। उसके साम्राज्यवादियों से अन्तरविरोध अब केवल अधिशेष के बँटवारे में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए दबाव बनाने तक ही सीमित हो‍कर रह गये थे। राष्ट्रीय मुक्ति के दौर का रणनीतिक संश्रय टूट चुका था। पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा अब जनता का मित्र नहीं रह गया था। साम्राज्यवाद के साथ उसके अन्तरविरोध अब अशत्रुतापूर्ण हो गये थे और जनता के साथ शत्रुतापूर्ण हो गये थे।

      ऐसी स्थिति में राष्ट्रवाद का नारा इन देशों के सर्वहारा और आम मेहनतक़श जनसमुदाय के लिए अप्रासंगिक हो चुका है। वह अपनी ऐतिहासिक अर्थवत्ता और प्रासंगिकता खोकर पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी हो चुका है। वैसे भी, अपनी वर्ग प्रकृति से सर्वहारा वर्ग राष्ट्रवादी नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीयतावादी वर्ग होता है। उसका ऐतिहासिक मिशन एक समाजवादी विश्व का निर्माण करना और फ़िर कम्युनिज्म की दिशा में आगे बढ़ना है। फिर भी समाजवादी क्रान्तियाँ यदि देश के स्तर पर संगठित होती हैं तो इसलिए कि बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ देशों के स्तर पर संगठित हैं। बीसवीं शताब्दी में उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों में एक ओर तो औद्योगिक विकास के साथ सर्वहारा वर्ग पैदा हो चुका था, दूसरी ओर ये देश गुलाम थे और इनमें प्राक् पूँजीवादी भूमि सम्बन्ध कायम थे।

      अत: राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभारों को पूरा करके ही सर्वहारा वर्ग समाजवाद के कार्यभार को हाथ में ले सकता था। ज़मीन के मालिकाने और गुलामी के सवालों के हल हुए बिना किसान और आम जनता के अन्य हिस्से समाजवाद के लिए लड़ने को कत्तई तैयार नहीं हो सकते थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि साम्राज्यवाद के दौर में इन देशों के पूँजीपति वर्ग का रैडिकल से रैडिकल हिस्सा भी राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभारों को आमूलगामी ढंग से पूरा कर पाने की क्षमता खो चुका था।

      ऐसी स्थिति में सर्वहारा वर्ग के हिरावल दस्तों का यह कार्यभार बनता था कि या तो वह सर्वहारा नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभारों को पूरा करके समाजवाद के कार्यभार को अपने हाथ में ले, या फिर, ऐसा सम्भ‍व न होने की स्थिति में राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभारों को अधिकतम सम्भव रैडिकल ढंग से और तेजी के साथ पूरा करने के लिए बुर्जुआ वर्ग पर दबाव बनायें।

     इतिहास इसी रास्ते से होकर आगे बढ़ा। साम्राज्यवादी शोषण और दबाव से मुक्ति का सवाल आज हमारे सामने राष्ट्रीय मुक्ति के सवाल के रूप में मौजूद नहीं है। साम्राज्यवादी शोषण और दबाव का उपकरण आज औपनिवेशिक-अर्द्धऔपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक गुलामी नहीं है। हम एक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त देश में रहते हैं, और अपने ऐतिहासिक मूल एवं वर्ग प्रकृत्ति की दृष्टि से राष्ट्रवाद जिस बुर्जुआ वर्ग का नारा है, वही बुर्जुआ वर्ग आज राज्यसत्ता पर काबिज है और साम्राज्यवादी पूँजी को लूट के लिए आग्रहपूर्वक न्यौत रहा है।

     नब्बे के दशक में जब उदारीकरण-निजीकरण की शुरुआत हुई तो अपने अन्दरूनी संकट की तार्किक गति से, और साम्राज्यवादी विश्व के एकजुट दबाव के आगे घुटने टेकते हुए भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने सीमित संरक्षणवादी उपायों को भी रद्द करते हुए विदेशी पूँजी के लिए देशी अर्थव्यावस्था के दरवाज़ों को चौतरफा खोल दिया। लेकिन यह किसी भी रूप में उपनिवेशवाद की वापसी नहीं है।

       राष्ट्रपारीय कम्पनियों और पूँजी-निर्यात के नये तौर-तरीकों के इस ज़माने में उपनिवेशों के संरक्षित बाज़ार सम्भव ही नहीं है। दूसरी बात, पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा साम्राज्यवादी शोषण और दबाव के विरुद्ध नहीं है। उनके आपसी अन्तरविरोध केवल मुनाफ़े के बाँट-बखरे को लेकर हैं। लूट केवल साम्राज्यवादियों की ही नहीं बढ़ी है, बल्कि देशी पूँजीपतियों की भी बढ़ी है। हालत यह है कि भारत, चीन, ब्राजील, द.अफ्रीका आदि तीसरी दुनिया के सापेक्षत: विकसित उत्पादक शक्तियों वाले जिन देशों में साम्राज्यवादी देशों की अकूत पूँजी लगी है, उन्हीं देशों के पूँजीपति लगातार अपना पूँजी निर्यात बढ़ाते भी जा रहे हैं और दूसरे देशों की जनता को लूटने में अभूतपूर्व आक्रामकता और गोलबन्दी का प्रदर्शन कर रहे हैं।

        साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध आज जो लड़ाई है, वह राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई नहीं है। देशी पूँजीवाद से लड़े बिना आज साम्राज्यवाद से नहीं लड़ा जा सकता। देशी बुर्जुआ राज्यसत्ता को चकनाचूर किये बिना आज साम्राज्यवादी शोषण और दबाव का निर्मूलन सम्भव नहीं।

      इस ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों और किस प्रकार राष्ट्रवाद आज अपनी प्रगतिशील अन्तर्वस्तु को खोकर पूरी तरह अपने विपरीत में तबदील हो चुका है। यूरोप और अमेरिका में राष्ट्रवाद अपनी प्रगतिशीलता उन्नीसवीं शताब्दी में ही खो चुका था। अब वहाँ राष्ट्रवाद की भावना उकसाने का एक ही मतलब रह गया था और वह था पूरी दुनिया के बाज़ार के बँटवारे के साम्राज्यवादी युद्ध में अपने-अपने देशों में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारकर जनता का चारे की तरह इस्तेमाल करना।

      पहले विश्वयुद्ध में पहली बार यह चीज़ अपने चरम भयावह रूप में सामने आयी।    

     उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।

      आश्चर्य नहीं कि वर्तमान मोदी सरकार के पहले भी, जितनी सरकारें थीं वे कश्मीर और उत्तर-पूर्व की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को छीनकर, उसे कुचलने के लिए शेष भारत में अपने विराट मीडिया तंत्र द्वारा ‘देश खतरे में है’ का शोर मचाते हुए राष्ट्रवाद (यानी अन्धराष्ट्रवाद) की लहर उभारती रही थीं। यही अन्धराष्ट्रवाद बार-बार पाकिस्तान, चीन, नेपाल, बांग्लादेश आदि पड़ोसी देशों के विरुद्ध उभारकर भारतीय पूँजीपति वर्ग अपने क्षेत्रीय विस्तारवाद के लिए जन समर्थन जुटाता रहा है। यह भावना कभी भी पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों की लूट के विरुद्ध नहीं उभारी जाती।

     भारत में पि‍छले लगभग तीस वर्ष प्रचण्ड हिन्दुत्ववादी फासिस्ट उभार के वर्ष रहे हैं, जिसकी चरम परिणति आज मोदी सरकार के रूप में हमारे सामने है। यूँ तो अन्धराष्ट्रवाद का इस्तेमाल सभी पूर्ववर्ती सरकारें और सभी बुर्जुआ पार्टियाँ करती रही हैं, लेकिन हर प्रकार का फासीवाद इसके उग्रतम रूपों का हमेशा से इस्तेमाल करता रहा है। फासीवाद मुख्यत: मध्यवर्ग आधारित एक धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है।

     नस्लवाद या धार्मिक कट्टरपंथ और अन्धराष्ट्रवाद के आधार पर ही वह नस्ली, धार्मिक श्रेष्ठता और “राष्ट्रीय गौरव” के मिथक गढ़ता है तथा जन समुदाय के भीतर एक उन्माद पैदा करता है। ऐसी मिथ्याभासी चेतना वाले लोगों की वर्गीय चेतना इतिहास-बोध कुन्द होने के साथ ही विलुप्त हो जाती है और वे मिथ्या मुद्दों को वास्तविक मानने लगते हैं।* इन्हीं लोगों के सहारे फासिस्ट धार्मिक-नस्ली अल्पसंख्यकों तथा मज़दूर आन्दोलनों को निशाना बनाते हैं, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार के संघर्षों तथा जनता के सभी संघर्षों को देशद्रोह घोषित कर देते हैं तथा पड़ोसी देशों के विरुद्ध “राष्ट्रीय गौरव” भड़काकर अपनी क्षेत्रीय विस्तारवादी नीतियों का समर्थन आधार तैयार करते हैं।

      मोदी और उसकी सरकार के मंत्री देश के विकास के नाम पर दुनिया भर की लुटेरी कम्पनियों को यहाँ पूँजी लगाने के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर न्यौतते हैं, अमेरिका और यूरोप से लेकर तेलधनी अरब देशों के दरवाज़ों पर जाकर सिज़दे करते हैं और दूसरी ओर पाकिस्ता‍न, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान आदि देशों पर अन्धराष्ट्रवादी अहमन्यता के साथ दादागिरी और धौंसपट्टी दिखाते हैं। जनता को “चीनी ड्रैगन” के खतरे से आगाह करते रहते हैं और साथ ही चीनी पूँजी के लिए लाल कालीन बिछाने को तत्पर रहते हैं।

     इनका “राष्ट्रवाद” हिन्दू राष्ट्रूवाद है जो मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ की या मातहत की श्रेणी में रखता है। इनका “राष्ट्रवाद” कश्मीरी और उत्तरपूर्व की जनता के आत्म निर्णय के संघर्ष को ही नहीं, बल्कि किसानों-मज़दूरों-आदिवासियों के सभी संघर्षों को, अपने अधिकारों तथा कैम्पस के जनवादी स्पेस की हिफाज़त के लिए आवाज़ उठाने वाले छात्रों-अध्यापकों को तथा धार्मिक कट्टरता के विरोधी सभी तर्कशील बुद्धिजीवियों को देशद्रोही मानता है।

     इस फासिस्ट राष्ट्रवाद की असलियत को समझने-समझाने के लिए राष्ट्रवाद की समग्र ऐतिहासिक परिघटना को समझना होगा और व्यापक जन समुदाय को समझाना होगा।

Exit mobile version