अजय असुर
नाटो (North Atlantic Treaty Organization, NATO) यानी उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन। कुछ देशों का एक सैन्य गठबंधन है, जिसकी स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हुई थी। इसका मुख्यालय ब्रसेल्स (बेल्जियम) में है। नाटो के अंतर्गत सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई थी, जिसके तहत नाटो के सदस्य देश बाहरी हमले की स्थिति मे समस्त नाटो सदस्य देश की सेना सहयोग करेगी। अल्बानिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, कनाडा, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्टोनिया, फ़्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी, आइसलैंड, इटली, लातविया, लिथुआनिया, लक्ज़मबर्ग, मोंटेनेग्रो, नीदरलैंड, उत्तर मैसेडोनिया, नॉर्वे, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, स्पेन, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कुल 30 देश नाटो गठबंधन के सदस्य हैं।
नाटो सेना बनाने की जरूरत क्यूँ पड़ी? द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ (रूस) ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएँ हटाने से मना कर दिय। ताकी उसको फिर से कोई घेरने का प्रयाश ना करे। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर कम्युनिज्म विरोधी विचारधारा जोर-शोर से फैलाना शुरू किया और यूरोपीय देशों को कम्युनिज्म खतरे से सावधान किया। जिससे कम्युनिज्म विचारधारा से डरे पूंजीवादी यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा करे। हुआ ये कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बर्लिन ने सोवियत संघ के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर दी जिसके फलस्वरूप सोवियत संघ ने 1848 में बर्लिन की घेरेबंदी शुरू कर दी। इसी क्रम में यह विचार किया जाने लगा कि एक ऐसा संगठन बनाया जाए जिसकी संयुक्त सेनाएँ सोवियत संघ से अपने सदस्य देशों की रक्षा कर सके।
मार्च 1948 में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड तथा लक्सेमबर्ग ने बूसेल्स की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य सामूहिक सैनिक सहायता व सामाजिक-आर्थिक सहयोग था। साथ ही इन पांच देशों ने आपस में तय किया कि यूरोप में उनमें से किसी पर आक्रमण हुआ तो शेष सभी चारों देश हर सम्भव सहायता देंगे। ब्रूसेल्स सन्धि, बर्लिन की घेराबन्दी और बढ़ते सोवियत संघ के प्रभाव को ध्यान में रखकर अमेरिका ने स्थिति को स्वयं अपने हाथों में लिया और सैनिक गुटबन्दी दिशा में पहला कदम उठाते हुए उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन अर्थात नाटो की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 15 में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन उत्तर अटलांटिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। उसकी स्थापना 4 अप्रैल, 1949 को वांशिगटन में हुई थी जिस पर 12 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। ये देश थे- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका और आज नाटो बढ़ते हुए 30 देशों तक पहुँच गया।
नाटो की स्थापना के बाद विश्व में और विशेषकर यूरोप में अमेरिका तथा उस वक्त के सोवियत संघ इन दोनों के बीच युद्ध खतरनाक मोड़ लेने लगा और नाटो का विरोध करने के लिए पोलैण्ड की राजधानी वारस में पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के साथ मिलकर सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट की स्थापना की। जिसने सभी कम्युनिस्ट देश शामिल हुए और रूस की मदद के लिए ये वारसा पैक्ट हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में रूस हिटलर को परास्त कर अपराजेय शक्ति के रूप में उभरा जिससे अमेरिका की चौधराहट खतरे में आ गयी और उस पूरे विश्व में दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध शुरू हो गया और इस शीत युद्ध की शुरुआत अमेरिका ने शुरू किया।
शीत युद्ध की समाप्ति से पूर्व यूनान, टर्की, पश्चिम जर्मनी, स्पेन भी सदस्य बने और शीत युद्ध के बाद भी नाटों की सदस्य संख्या का विस्तार होता रहा। 1999 में मिसौरी सम्मेलन में पोलैण्ड, हंगरी, और चेक गणराज्य के शामिल होने से सदस्य संख्या 19 हो गई। मार्च 2004 में 7 नए राष्ट्र बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया को नाटो का सदस्य बनाया गया फलस्वरूप सदस्य संख्या बढ़कर 26 हो गई। इसके बाद 2009 में दो देश अल्बेनिया और क्रोटेनिया को जोड़ा गया फिर 2017 में मोंटेनेग्रो और अभी दो साल पहले उत्तर मैसेडोनिया नाटो से जोड़ते ही नाटो देश के सदस्यों की संख्या 30 हो गयी।
नाटो में शामिल किसी भी देश पर आक्रमण की स्थिति में अन्य सदस्य देश उसकी सामरिक और आर्थिक मदद करते हैं। रूस की लंबे समय से यह मांग रही है कि यूक्रेन को नाटो गठबंधन में शामिल होने से प्रतिबंधित किया जाए और अमेरिकी सैनिकों को पूर्वी यूरोप से बाहर निकाला जाए। जबकि NATO के सदस्य देश इस कोशिश में लगे रहते हैं कि यूक्रेन को भी इस गठबंधन का हिस्सा बनाया जाए। रूस का मानना है कि अगर यूक्रेन नाटो में शामिल हुआ तो इस गठबंधन की सेनाएं उसकी सीमा और सैन्य ठिकानों के पास आ जाएंगी। व्लादिमिर पुतिन का कहना है कि यूक्रेन अब एक संप्रभु देश नहीं रह गया बल्कि वह पश्चिमी देशों की कठपुतली बन गया है और हकीकत भी यही है कि वर्तमान में यूक्रेन की एक पार्टी सर्वेंट ऑफ़ द पीपुल से व्लादिमिर जेलेंस्की राष्ट्रपति हैं जो कि अमेरिका के इशारे पर कठपुतली सरकार चला रहें हैं। 2019 में ही ट्रंप ने इस कठपुतली सरकार बनवायी थी और आज चीन की वन बेल्ट, वन रोड (चीन द्वारा प्रायोजित एक योजना है जिसमे पुराने सिल्क रोड के आधार पर एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़कों और रेल मार्गों से जोड़ा जा रहा है। इस परियोजना के जरिए चीन सड़कों, रेल, बंदरगाह, पाइपलाइनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं के माध्यम से मध्य एशिया से लेकर यूरोप और फिर अफ्रीका तक स्थलीय व समुद्री मार्ग तैयार कर रहा है। वन बेल्ट, वन रोड परियोजना की शुरुआत चीन ने वर्ष 2013 में की थी। यह परियोजना चीन की विदेश नीति का एक हिस्सा है। इस परियोजना में एशिया, अफ्रीका और यूरोप के कई देश बड़े देश शामिल हैं। चीन की इस परियोजना का उद्देश्य दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया, गल्फ कंट्रीज़, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़क और समुद्री रास्ते से जोड़ना है। चीन की यह योजना विश्व के 65 से अधिक देशों को सड़क, रेल और समुद्री रास्ते से जोड़ने का काम करेगी। इस परियोजना से विश्व के अलग-अलग देश एक दूसरे के नज़दीक आएंगे जिससे आर्थिक सहयोग के साथ आपसी संपर्क को भी बढ़ाने में मदद मिलेगी।) परियोजना यूक्रेन को भी जोड़ रही है और अमेरिका चीन की वन बेल्ट, वन रोड परियोजना को रोकने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है। पहले अमेरिका ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान के जरिए चीन को घेरने की कोशिश किया क्योंकि चीन की वन बेल्ट, वन रोड परियोजना इन देशों से होकर गुजर रही है पर यंहा अमेरिका कामयाब नहीं हो पाया अब जब यह परियोजना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, रूस से निकलकर यूक्रेन पहुंचने वाली है तो यहां अपनी कठपुतली सरकार के जरिये नाटो सेना को घुसाकर चीन की इस महत्वपर्ण परियोजना को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही है पर रूस ने अमेरिका के सपनों पर पानी फेर दिया। यूक्रेन तो एक मोहरा है अमेरिका के लिए। आज यूक्रेन है तो कल कोई और देश होगा….
1990 – 1991 में सोवियत संघ के टूटने के साथ ही शीतयुद्ध की भी समाप्ति हुई। वारसा पैक्ट भी समाप्त हो गया। किंतु अमेरिका ने नाटों को भंग नहीं किया बल्कि उल्टा अमेरिकी नेतृत्व में नाटों का और विस्तार हुआ। नाटो की स्थापना ही कम्युनिज्म को रोकना ही था और जब सोवियत संघ ने 1956 में समाजवाद का रास्ता छोड़ अमेरिकी साम्राज्यवाद के जूते में अपना पैर डाल दिया तो उसी वक्त नाटो को बर्खास्त कर देना चाहिये था क्योंकि तब नाटो का काम खत्म हो गया था और उसके बाद 26 दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ खण्ड-खण्ड 15 टुकड़ों में विभाजित हो जाने के बाद नाटो सेना का कोई औचित्य नहीं रह जाता। तो फिर नाटो को भंग क्यूँ नहीं किया?
नाटो के सभी सदस्यों की संयुक्त सैन्य खर्च दुनिया के रक्षा व्यय का 70% से अधिक है, जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले दुनिया का कुल सैन्य खर्च का आधा हिस्सा खर्च करता है और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली 15% खर्च करते हैं।
नाटो को अमेरिका अपने हितों के अनुसार लगातार इस्तेमाल करता जा रहा है। रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध की असल वजह चीन है और चीन की घेरेबंदी के लिए नाटो सेना का इस्तेमाल ही है। रूस ने यूक्रेन से इस बात की पुष्टी करने को कहा था कि वह नाटो की सदस्यता नहीं ग्रहण करेगा पर यूक्रेन तो पूरी तरह अमेरिका के चंगुल में है और अमेरिका के इशारे पर नाटो से जुड़ना चाहता है और नतीजा आपके सामने……
*अजय असुर*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा*