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‘तीसरे विश्व युद्ध’ की बिसात पर नाटो की लामबंदी

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सत्येंद्र रंजन 

नाटो (North Atlantic Treaty Organization) ने अपनी 75वीं सालगिरह पर वॉशिंगटन डीसी में अपना शिखर सम्मेलन आयोजित किया। चूंकि हर व्यावहारिक अर्थ में वॉशिंगटन नाटो की राजधानी है, इसलिए यह तार्किक ही है कि यह आयोजन इस स्थल पर हुआ। हालांकि नाटो की स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हुई थी, मगर इसका डायमंड जुबली समारोह 9 से 11 जुलाई तक आयोजित किया गया।

अमेरिकी शासक वर्ग की निगाह से देखें, तो नाटो का बनना और उसका बने रहना बेशक उत्सव का सबब है। आखिर नाटो है, तो दुनिया में बड़े युद्ध हैं, जिनसे अमेरिका के मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स का धंधा फूलता-फलता रहता है। और उस धंधे के दम पर वहां के शेयर बाजारों में उस समय भी चमक बनी रहती है, जब वास्तविक अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही हो।

वॉशिंगटन शिखर सम्मेलन में स्वीकृत साझा घोषणापत्र  के स्वर को समझने का प्रयास करें, तो साफ होता है कि नाटो ने युद्ध का अगला घोषणापत्र जारी किया है। कम-से-कम यह तो स्पष्ट है कि युद्ध टालने के लिए किसी तरह के संवाद से नाटो ने दो-टूक इनकार कर दिया है। चूंकि नाटो अपने गठन के समय ही अमेरिकी सामरिक नीति को लागू करने का औजार रहा है, इसलिए इस घोषणापत्र के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि अमेरिकी सत्ता पर काबिज न्यू-कॉन्स (Neo-Conservatives) वूल्फविट्ज सिद्धांत-पत्र (Wolfowitz doctrine) को लागू करने लिए- यहां तक कि तीसरे विश्व युद्ध का जोखिम उठाने को भी तैयार हैं।

पॉल वूल्फविट्ज न्यू-कॉन्स के बीच एक प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने शीत युद्ध समाप्त होते ही एक-ध्रुवीय दुनिया के लिए अमेरिकी सिद्धांत-पत्र तैयार किया था। इसमें यह दो-टूक कहा गया था कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अब अमेरिका दुनिया में अपने लिए किसी प्रतिद्वंद्वी को उभरने नहीं देगा। खुद अनेक अमेरिकी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि मौजूदा यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि इस सिद्धांत-पत्र ने तभी तैयार कर दी थी। हर कीमत पर अमेरिकी वर्चस्व स्थापित रखने की गुमराह सोच ही इस युद्ध का कारण बनी। और यही सोच कथित इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में युद्ध की परिस्थितियां तैयार कर रही है।

इसके पहले कि इन पहलुओं पर हम ध्यान दें, इस पर गौर करते हैं कि नाटो के वॉशिंगटन घोषणापत्र में कहा क्या गया हैः

1. नाटो यूक्रेन को अपनी एवं “यूरो-अटलाटिंक संस्थानों” की स्थायी सदस्यता देने के प्रस्ताव का समर्थन जारी रखेगा।

2. सभी सहयोगी देश जब सहमत हो जाएंगे और यूक्रेन सारी शर्तें पूरी कर देगा, तब यूक्रेन को नाटो में शामिल होने का आमंत्रण दिया जाएगा।

(यह याद रखने की बात है कि रूस ने यूक्रेन में 24 फरवरी 2022 को सैनिक कार्रवाई तभी शुरू की, जब यूक्रेन को नाटो की सदस्यता ना देने की उसकी गुजारिश को अमेरिका और उसके साथी देशों ने ठुकरा दिया था। रूस की सुरक्षा संबंधी अपनी समझ में यूक्रेन और जॉर्जिया का नाटो में शामिल होना अस्वीकार्य है। इसे दशकों से वह अपनी रेड लाइन बताता रहा है।)

1. नाटो “इंडो-पैसिफिक” के देशों के साथ “सहयोग” को गहरा करने के रास्ते पर आगे बढ़ेगा।

(इसका सीधा मतलब चीन की घेराबंदी है। अमेरिका ने इसी मकसद से “इंडो-पैसिफिक” की पूरी अवधारणा को आकार दिया है और अब नाटो का इस्तेमाल उसे लागू करने के लिए कर रहा है। इसी के तहत इस बार के शिखर सम्मेलन में इस क्षेत्र के कुछ देशों के नेताओं को भी वहां बुलाया गया, जबकि वे देश नाटो का सदस्य नहीं हैं। लेकिन इस रणनीति का अंतिम परिणाम चीन के साथ युद्ध ही होगा।)

1. नाटो देशों ने संकल्प लिया कि वे अपनी जीडीपी का कम-से-कम दो फीसदी हिस्सा रक्षा पर खर्च करेंगे।

साफ है, 75वीं सालगिरह के समारोह में नाटो ने रूस और चीन के खिलाफ युद्ध की हद तक जाने के अमेरिकी दुस्साहस पर मुहर लगा दी है।

इस सिलसिले में यह पहलू ध्यान में रखना चाहिए कि रूस को कमजोर कर खंडित करने और उससे संभावित चुनौती को हमेशा के लिए समाप्त कर देने  तथा चीन को युद्ध में परास्त कर वहां कम्युनिस्ट शासन खत्म करने की न्यू कॉन्स की सोच अमेरिका का मार्गदर्शक सिद्धांत बनी हुई है। दोहराव के बावजूद यह कहना उचित होगा कि नाटो हमेशा से ही अमेरिकी हितों और रणनीतियों को आगे बढ़ाने का औजार रहा है।

चीन के मामले में अमेरिकी नीति में बदलाव 2008 की मंदी के बाद हुआ, जब मंदी-ग्रस्त विश्व अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने में चीन ने इंजन की भूमिका निभाई। उस तरह उसकी ताकत पहली बार दुनिया के सामने खुल कर सामने आई। उसी वर्ष बीजिंग ओलिंपिक खेलों के समय उसकी नई उभरती क्षमताओं का मुजाहिरा हुआ था। नतीजतन, साल 2011 आते-आते तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने “एशिया की तरफ धुरी” (Pivot to Asia) नीति का एलान कर दिया। उसी का अगला कदम “इंडो-पैसिफिक” की अवधारणा की घोषणा है, जिसके तहत अमेरिका ने प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के पूरे इलाके को अपना प्रभाव क्षेत्र घोषित कर दिया है

इसके जवाब में चीन अपने विकल्पों की तलाश में जुटा हुआ है।  नतीजतन, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया दो महाशक्तियों की सैन्य होड़ का स्थल बन गए हैं। यह आशंका आम है कि यह होड़ कभी भी खुले युद्ध में तब्दील हो सकती है।

गौरतलब है कि स्थापना के बाद के शुरुआती चार दशकों में नाटो की भूमिका मोटे तौर पर अपने प्रतिद्वंद्वी- यानी सोवियत खेमे से युद्ध टालने की रही थी। तब का अमेरिकी नेतृत्व इस तथ्य के प्रति कहीं अधिक जागरूक था कि परमाणु हथियारों के मामले में अपने बराबर की शक्ति से युद्ध करने का मतलब समग्र विनाश होगा। विश्लेषकों ने यह ध्यान दिलाया है कि अप्रैल 1949 के बाद से 1991 तक नाटो ने कभी सोवियत संघ और उसके नेतृत्व वाली वॉरसा संधि के देशों में सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया। यहां तक कि जब हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में आंतरिक अस्थिरता के समय सोवियत संघ ने अपनी फौज भेजी, तब भी नाटो ने वहां दखल ना देने का संयम बरता। इस रूप में नाटो ने अपनी रक्षात्मक भूमिका बनाए रखी।

यही प्रमुख कारण था जिससे उस दौर में तीखे विचारधारात्मक टकराव और सैन्य होड़ के बावजूद कोई प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ। मगर सोवियत संघ के विघटन के साथ ही अमेरिका ने नाटो की भूमिका बदल दी। विचारधारा और इतिहास के अंत की घोषणाओं के साथ अमेरिका ने नाटो का इस्तेमाल सारी दुनिया को अपने माफिक ढालने के लिए करना शुरू कर दिया। यूगोस्वालिया से लेकर अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया और अब यूक्रेन तक में इसी परियोजना के तहत नाटो का इस्तेमाल किया गया। प्रतिद्वंद्वी देशों को खंडित करना, वहां “लोकतंत्र का निर्यात” करना, जो देश ना तो शिकंजे में ना आ रहे हों और ना ही जिन्हें लीबिया या सीरिया की तबाह करना संभव हो- उन्हें evil (बुराई) या ऐसे देशों को समूह को axis of evil घोषित करना, आदि अमेरिका की न्यू-कॉन शासकों की नई रणनीति बन गई। लाजिमी है कि इस रणनीति पर अमल में नाटो को लगाया गया।

कई जानकार नाटो के इतिहास को तीन दौर में बांट कर देखते हैं। उनके मुताबिक पहला दौर वह था, जब नाटो को जिस मकसद से बनाया गया था, उस पर अमल के लिए उसे रक्षात्मक भूमिका दी गई। नाटो के गठन का उद्देश्य यूरोप में कम्युनिस्ट शासन के प्रसार को रोकना था। सोवियत संघ ने सैन्य माध्यम से कम्यूनिज्म के प्रसार की कभी कोशिश नहीं की। उधर नाटो ने भी सोवियत खेमे के अंदर घुसने की कोशिश नहीं की। इससे सामरिक संतुलन बना रहा।

दूसरा दौर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शुरू हुआ, जब नाटो का इस्तेमाल सारी दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व को स्थापित करने के लिए किया गया। ये वो दौर था, जब माना गया कि अमेरिका के लिए दुनिया में कोई चुनौती नहीं है। इस दौर में पूर्व सोवियत खेमे में रहे पूर्वी यूरोप के देशों को नाटो में शामिल करने का अभियान चलाया गया। बेलारुस, यूक्रेन और जॉर्जिया को छोड़ दें, तो बाकी सभी ऐसे देश आज नाटो का सदस्य हैं। उस दौर में रूस ने भी नाटो का सदस्य बनने की पेशकश की थी। लेकिन अमेरिका ने उसे ठुकरा दिया था। संभवतः इसलिए कि रूस जैसा मजबूत देश नाटो का सदस्य बन जाता, तो इस संगठन पर अमेरिका का संपूर्ण वर्चस्व बना नहीं रहता।

इस दौर में यह साबित हुआ कि नाटो में शामिल यूरोपीय देश सिर्फ कहने भर को संप्रभु हैं। ऐसा कई मौकों पर हुआ है, जब फ्रांस या जर्मनी जैसे देशों ने अमेरिकी मंशा का विरोध किया। लेकिन अंततः उन्हें अमेरिकी आदेश के आगे झुकना पड़ा। ऐसा एक मौका इराक युद्ध था। फ्रांस और जर्मनी दोनों इराक पर हमले के खिलाफ थे। लेकिन दोनों नाटो के सदस्य के रूप में उसमें शामिल हुए। दूसरे मौके तब आए, जब सोवियत दौर में रूस के साथ हुई मिसाइल संधियों से अमेरिका ने एकतरफा ढंग से खुद को अलग कर लिया। कई यूरोपीय देशों को यह नापसंद था, लेकिन वे कुछ कर नहीं पाए।

नव-उदारवादी दौर में वित्तीय पूंजीवाद के प्रसार के साथ यूरोपीय अर्थव्यवस्था पर भी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय पूंजी का लगभग निर्णायक नियंत्रण बन गया है। ऐसे में यूरोपीय देश अमेरिकी मंशा को पूरा करने वाले एजेंट भर बन कर रह गए हैं। नाटो का वॉशिंगटन शिखर सम्मेलन इस बात की साफ मिसाल है। कहा जा सकता है कि “एक-ध्रुवीय” दुनिया के दौर में यूरोपीय देश और नाटो अमेरिकी साम्राज्यवाद को टिकाए रखने का औजार बन चुके हैं।

उपरोक्त घटनाक्रमों की प्रतिक्रिया हुई है। रूस, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान, वेनेजुएला जैसे स्वतंत्र विचार वाले देश अब एक-ध्रुवीय विश्व की धारणा को खुली चुनौती दे रहे हैं। चीन अपने खास आर्थिक मॉडल के साथ दुनिया की सर्व-प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। इससे नाटो का तीसरा दौर आया है, जिसमें उसे एक-ध्रुवीय दुनिया की सोच से चलाया जा रहा है, लेकिन जब दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व के लिए मजबूत चुनौतियां उभर आई हैं।

दरअसल, तकनीक और अनुसंधान के क्षेत्र चीन की सफलताओं ने पश्चिमी देशों को यह अहसास करा दिया है कि चीन की प्रगति को अभी नहीं रोका गया, तो दुनिया पर कम-से-कम चार सदियों से कायम उनके वर्चस्व की इतिश्री हो जाएगी। उधर पुतिन के नेतृत्व में रूस फिर से बड़ी ताकत के रूप में उठ खड़ा हुआ है।

तो अपनी नई सुरक्षा रणनीति में अमेरिका ने चीन को revisionist और रूस को Malign State घोषित कर दिया है। revisionist का अर्थ है, वह देश जो पहले से चल रही विश्व व्यवस्था को बदलना चाहता हो। अमेरिका के मुताबिक चीन अकेला ऐसा देश है, जो अमेरिकी नेतृत्व में कायम ‘rule based order’ (नियम आधारित व्यवस्था) को बदल देने की क्षमता और इच्छाशक्ति रखता हो। उधर रूस इस कथित नियम आधारित व्यवस्था पर एक बुरा प्रभाव डाल रहा देश (Malign State) है।

अपनी इसी समझ के आधार पर अमेरिका ने ‘pivot to Asia’ की रणनीति घोषित की और उसके बाद कथित इंडो-पैसिफिक की अवधारणा को आगे बढ़ाया गया है। मगर यह सब करना आसान साबित नहीं हो रहा है। इसकी प्रमुख वजह पश्चिमी खासकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में लगा नव-उदारवाद का घुन है। यह उनकी उत्पादक क्षमताओं को खोखला करता गया है। इसके सैनिक परिणाम भी हुए हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल अफगानिस्तान में नाटो की शर्मनाक पराजय के रूप में देखने को मिली। फिर इराक हो या लीबिया या फिर सीरिया- कहीं भी अमेरिका अपने घोषित उद्देश्यों को हासिल नहीं कर सका।

वॉशिंगटन में नाटो शिखर सम्मेलन पर इन सारी बातों का घना साया रहा। वहां यह महसूस किया गया कि यह सैन्य संधि संगठन इस समय एक नाजुक मोड़ पर है। इसके बावजूद नाटो के बाकी सदस्य देशों पर रूस और चीन विरोधी आक्रामक तेवर की नीति थोपने में अमेरिका कामयाब रहा। नतीजतन, जर्मनी इस बात पर सहमत हो गया कि वह अपने यहां अमेरिकी बैलिस्टिक मिसाइलों की तैनाती की इजाजत देगा। पहले अमेरिका की इन मिसाइलों की तैनाती ना करने की संधि रूस के साथ थी। लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका एकतरफा ढंग से इससे हट गया था। अब जर्मनी में मिसाइलें तैनात करने का असर यह होगा कि जर्मनी सीधे रूस के निशाने पर होगा।

इसी तरह नाटो की क्षेत्रीय भूमिका के विस्तार का फैसला हुआ, जिसके तहत यह सैन्य संगठन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देशों से सहयोग करेगा। इसका व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि चीन से अमेरिकी खेमे के उन देशों का युद्ध होता है, तो नाटो उनकी मदद करेगा। इस रूप में इंडो-पैसिफिक का युद्ध सिर्फ उसी क्षेत्र में सिमटे रहने के बजाय वैश्विक रूप ले लेगा। वैसे नाटो का अफ्रीका तक प्रसार करने पर भी सहमति बनी है।

इसीलिए यह कहने का आधार बनता है कि 75वीं सालगिरह पर हुए अपने शिखर सम्मेलन के साथ नाटो ने दुनिया को व्यापक दायरे वाले युद्ध को और करीब पहुंचा दिया है। बहुत से लोग बोलचाल में यह कह रहे हैं कि नाटो ने अब तीसरे विश्व युद्ध की बिसात बिछा दी है। नाटो ने जो लामबंदी की है, उसे देखते हुए दुनिया की दूसरी उभरती शक्तियों के पास इसके अलावा बहुत कम विकल्प बचे हैं कि वे भी अपनी कमर कसें।(

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