विकास के शहरी ताम-झाम से थोडा भी बाहर निकलें तो हमें अपने लिए कारगर, उपयुक्त और लाभदायक विकास की बानगियां दिखाई देने लगती हैं। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले का यह इलाका इसी बात की तस्दीक करता है।
संतोष एक ऐसा मेहनती किसान है जिसने अपनी पत्नी चुन्नी देवी की सहायता से एक समय बंजर पड़ी भूमि से ही न्यूनतम लागत पर भरपूर सब्जियों का उत्पादन प्राप्त किया है व हजारों रुपए अर्जित किए हैं। भैस्ता गांव (महोबा प्रखंड, हमीरपुर जिला, उत्तरप्रदेश) में बंजर पड़ी भूमि पर संतोष ने एक बीघे के लगभग चौथे हिस्से के प्लाट पर खूब मेहनत की। गोबर, गोमूत्र व कुछ अन्य पोषक तत्त्वों से मिली खाद से यहां की मिट्टी को उपजाऊ बनाया। फिर उसमें कोई 15 तरह की सब्जियां लगाईं।
बहु-स्तरीय या मल्टी-लेयर वाटिका में बेलों, कंदो, छोटे व बड़े पौधों को इस तरह लगाया गया कि यह एक-दूसरे के पूरक, रक्षक व सहायक हों – जैसे किसी बड़े पौधे के तने पर किसी बेल का चढ़ना या बड़े पौधे की छाया में छोटे व कोमल पौधे का पनपना। इसके लिए लकड़ी के खंभों व रस्सी या तार का जाल भी बिछाया गया।
संतोष और चुन्नी देवी ने रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा का कोई उपयोग नहीं किया। पूरी तरह प्राकृतिक खेती के बल पर भरपूर फसल प्राप्त की जो उच्च गुणवत्ता की है। संतोष ने बताया इससे उनका स्वास्थ्य भी सुधरता है व जो यह सब्जी खरीदते हैं उनका भी। संतोष ने विभिन्न सब्जियों व फसलों के बीज बचाने के कार्य में भी भरपूर योगदान दिया है।
इसी प्रखंड के अरतरा गांव में कृष्ण कुमार एक अधिक साधन संपन्न किसान हैं जो पहले रासायनिक खाद पर आधारित खेती करते थे, पर इससे उत्पन्न समस्याओं और बढ़ते खर्च के कारण विकल्प खोज रहे थे। यही तलाश उन्हें प्राकृतिक खेती की ओर ले गई। वे बताते हैं कि उन्होंने प्राकृतिक खेती को अपनाकर गेहूं, चना, सरसों की खेती में अच्छा उत्पादन प्राप्त किया है व उनकी लागत भी बहुत ही कम हो गई है। जहां खेती पहले बोझ बन रही थी, वह अब टिकाऊ तौर पर लाभप्रद लगने लगी है।
कृष्ण कुमार एक ‘प्राकृतिक कृषि केन्द्र’ का संचालन भी कर रहे हैं जिसमें गोबर, गोमूत्र व अन्य पोषक तत्त्व आधारित खाद व हानिकारक कीड़ों, बीमारियों के बचाव के घोल का अतिरिक्त उत्पादन भी किया जाता है, ताकि अन्य किसान भी इन्हें प्राप्त कर सकें। वे कहते हैं कि सरकार को सबसिडी व सहायता ऐसी प्राकृतिक खेती के लिए देनी चाहिए, न कि रासायनिक खेती के लिए।
कृष्ण कुमार बताते हैं कि प्राकृतिक खेती करने से कम समय में ही मिट्टी भुरभरी हो गई है, उसमें नमी देर तक टिकती है, उसमें केंचुए लौटने लगे हैं। वे कहते हैं कि भविष्य प्राकृतिक खेती का है। अनेक किसान उनकी प्राकृतिक खेती को देखने आते हैं व इसे अपनाना चाहते हैं। वे गेहूं की बढ़िया किस्म को भी नवजीवन देने में जुटे हैं व इसे प्रदर्शन प्लाट में उगा रहे हैं।