अग्नि आलोक

वास्तु-शास्त्र की निसर्गता और वैज्ञानिकता

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 पवन कुमार

(निदेशक : काशीविश्वनाथ वास्तु-ज्योतिष संस्थान, वाराणसी)

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       _हमारा देश अपने भीतर सब कुछ संजोए हुए है। इस देश में कला और विज्ञान, अध्यात्म और दर्शन से अलग नहीं हैं। अन्य देशों में कला का जन्म मनोरंजन के लिए हुआ है, लेकिन हमारे देश में नहीं। भारतीय धर्म और दर्शन का वह मतलब नहीं है, वह व्याख्या भी नहीं है जो सामान्यतया की जाती है। इसीलिये हमारे यहां का धर्म और दर्शन अन्य देशों की तुलना में भिन्न है।_

        हमारे पूर्वजों (ऋषियों) ने धर्म के अर्थ और उसकी व्याख्या में लिखा है–   _”जिससे समस्त मानव जाति का अभ्युदय हो, वही भारतीय धर्म है, वही भरतीय दर्शन है। धर्म के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन और उच्च मानकों को प्राप्त करने के मार्ग की व्याख्या ही दर्शन है। अभ्युदय का अर्थ है–सांसारिक उन्नति के साथ-साथ आत्मिक उन्नति। कोई भी कला और विज्ञान अध्यात्म के बिना शून्य है। वह रसहीन है–शुष्क काष्ठ की तरह जो केवल जलाने के काम आता है। विज्ञान और कला जब अध्यात्म से जुड़ जाते हैं तो वे मानव मात्र के कल्याण की भावना से उत्प्रेरित हो जाते हैं। भारत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्थापत्य कला में भी परमात्मा को साकार रूप में प्रतिष्ठित किये जाने का सत्प्रयास किया गया है। सागर को बिन्दु में भर दिया गया है और बिन्दु ने अनन्त और अगाध सागर की सत्ता की पूर्ण शक्ति का  अवगाहन कर लिया है.”_

        भारतीय स्थापत्य कला का मूल है–मन्दिर निर्माण जिसमें प्रत्येक भाग् की स्थापना में साकार परमात्मा की प्रतिष्ठा की जाती है। कहने का मतलब है कि ‘वास्तु पुरुष’ की इसी विचारणा के आधार पर हमारे ऋषियों ने ‘वास्तुब्रह्म’ के सिद्धांत को स्थापत्य से भौतिक विज्ञान में प्रतिष्ठित किया है। ऋषि तत्वदर्शी थे, उनकी कोई भी बात वृथा नही होती थी।

सारांश यह है कि इस देश का विज्ञान ही इस देश का दर्शन है और विज्ञान और दर्शन एक दूसरे का पर्याय है। इसीलिये वास्तु निर्माण एक धार्मिक कर्म माना गया है तथा वास्तु-पूजन से लेकर के गृहप्रवेश तक के प्रत्येक कार्य को धार्मिक भावनाओं से जोड़ा गया है। परन्तु दुःख और खेद का विषय है कि आधुनिकता के ओछे विचारों की धारा में तैरने-उतराने वाली हमारी नई पीढ़ी भारत की उन उदात्त और उच्च भावनाओं को कपोल कल्पना कहकर हवा में उड़ाने का अज्ञानतापूर्ण कार्य करती रहती है।

      _मनुष्य जब भवन निर्माण करने चलता है तो सर्वप्रथम भूखंड का चयन करता है। भूखण्ड के चयन के बाद भूमि-शोधन करता है। फिर भवन-निर्माण के लिए वास्तु पुरुष की कल्पना करता है। *वास्तुशास्त्र के अंतर्गत भूखंड को 81 भागों में विभक्त करते हुए विभिन्न देवों को प्रतिष्ठापित करने का विधान है जिसे परमात्मा के साकार स्वरूप से जोड़ा जाता है। तब उस भवन से भवन-स्वामी का एक अपरोक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।_

          यही कारण है कि शुभ मुहूर्त में भवन-निर्माण शुरू किया जाता है, शुभ मुहूर्त में ही गृह-प्रवेश किया जाता है।

वास्तुशास्त्र और स्थापत्य कला का उद्गम अथर्ववेद से माना गया है। मत्स्यपुराण में भी इसका विवरण आया है। इस पुराण में वास्तुशास्त्र का लौकिक स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। वास्तुशास्त्र का ज्योतिषशास्त्र से भी गहरा सम्बन्ध है।

      _ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सभी दिशाओं के अपने-अपने देव या स्वामी होते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में प्रतिक्षण ग्रह-नक्षत्रों का अगोचर प्रभाव पड़ता रहता है।_

       सभी दिशाओं का अपना महत्व होता है। जैसे ईशान कोण (उत्तर-पूर्व की दिशा) के देव ज्ञान, बुद्धि और सर्वमंगल के परिचायक हैं।

       पूर्व में इन्द्र धन, सम्पत्ति और मनोकामना सिद्धि के दाता हैं। आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण दिशा) के देव अग्नि हैं जो स्वाथ्य और शुभता प्रदान करने वाले हैं। दक्षिण दिशा के देव यम हैं। वे जहां एक ओर मृत्युकारक हैं, वहीं दूसरी ओर धर्म के अधिपति भी हैं, इसीलिये उन्हें धर्मराज भी कहा जाता है।

      _वे धर्मस्थापना में सजग भूमिका का निर्वहन करते रहते हैं, इसलिए कठोर निर्णय के लिए भी जाने जाते हैं। नैरेत्य कौण (दक्षिण-पश्चिम दिशा) के अधिपति नैऋति देव हैं जो प्राणियों की रोग-शत्रु से रक्षा करते हैं। अभय प्रदान करते हैं। पश्चिम दिशा जल के देव वरुण की है। वे जीवन के उत्ताप में शीतलता प्रदान करते हैं।_

        वायव्य कोण(उत्तर-पश्चिम दिशा) के देव वायु हैं जो हमें आयु, स्फूर्ति और जीवनीशक्ति प्रदान करते हैं। उत्तर दिशा के स्वामी कुबेर हैं जो धन-ऐश्वर्य के प्रतीक हैं और सभी प्रकार के भौतिक सुखों के कारक हैं।

       _दिशाओं का सीधा संबंध प्रकृति से होता है, इसीलिये वेदों में प्रकृति की पूजा का विधान सर्वोपरि है, क्योंकि सारी बातें प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर है। आज की भौतिकवादी आधुनिक पीढ़ी इन सारी बातों को कपोल कल्पना मानती है और हमारे ऋषियों की बातों को पुराणपन्थी और पिछड़ेपन की निशानी मानकर हवा में उड़ा देती है।_

        इसीलिये आज का मानव वास्तुशास्त्र में वर्णित बातों को झूठ का पुलिंदा कह कर नकार देता है। परिणाम यह होता है कि प्रकृति का असन्तुलन होने से वह कुपित होकर कृत्याओं (प्राकृतिक आपदाओं–भूस्खलन, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सामूहिक जन-धन-हानि आदि के रूप में) को जन्म देती है।

ये कृत्याएं मनुष्य के सामूहिक संस्कार, विचार, आचरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं जिन्हें जन साधारण न तो जानता है और न ही मानता है।

       _सारी वस्तुएं प्रकृति के संतुलन पर निर्भर करती हैं। रोज-रोज के मानव जीवन में आने वाली विपरीत  परिस्थितियां और विपत्तियां इन्हीं प्रकृतिरूपी देवी के कुपित होने से, असंतुलन का परिणाम होती हैं। इनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय है– वास्तुशास्त्र।_

         वास्तुशास्त्र के परम ज्ञाता और देवशिल्पी ‘विश्वकर्मा’ हैं। वे कहते हैं कि इस शास्त्र के ज्ञान से मनुष्यमात्र को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों की दिशा प्रशस्त होती है। उसका जीवन सार्थक हो जाता है। वह मनुष्य मृत्युलोक में निवास करते हुए भी देवत्व को उपलब्ध् हो जाता है।

       _ऐसा मनुष्य स्वयम् अपना तो कल्याण करता ही है, साथ ही दूसरों का कल्याण करने में भी समर्थ होता है।_

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