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प्रकृति, महिलाएं और सिनेमा

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राकेश कबीर

प्रकति और मनुष्य का पारस्परिक निर्भरता का सम्बंध है। यदि मनुष्य प्रकृति की अनदेखी करते हुए प्राकृतिक संसाधनों  का अंधाधुंध शोषण करेगा तो यह धरती रहने लायक नहीं बचेगी । हमें शेरनी फ़िल्म के जीव वैज्ञानिक की यह बात याद रखनी होगी जो वह एक ग्रामीण युवक को सिखाता है “जंगल मे शेर रहते हैं …आनन्द मिलता है”जंगल में शेर रहते हैं तभी यह जंगल बचे हैं, जंगल हैं तो बारिश होती है, बारिश होती है तो फसलें होती हैं और हमारा जीवन बचा रहता है। शिकारी के लिए भालू और शेर को गोली मार देने में ही आनन्द मिलता है। प्रकृति के हर उपादान को बेचक़र पैसा कमाने की प्रबल इच्छा रखने वाली बाजारवादी ताकतें दुनिया भर में एक जैसी सोच रखती हैं ‘’लूटो, बेचो और पैसा कमाओ’’। इस चरम उपभोक्तावाद की कोई सीमा नहीं है कि यह कहाँ जाकर रुकेगा। जब वर्ष 2020 में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में भयानक आग लगी और वहां के निरीह जानवर भागकर अपनी जान बचाने को सड़कों और मानवीय बस्तियों की तरफ जाने लगे तो हृदय विदारक दृश्यों को देखकर सम्वेदनशील लोगों की आँखे भर आयीं। परन्तु वहां का मेनस्ट्रीम कारपोरेट मीडिया इस घटना को पहले दबाने में लगा रहा ताकि दुनिया उनकी करतूते जान न जाये। पर्यावरणविद मेधा पाटकर और ग्रेटा थंवर्ग के साथ अन्य वैज्ञानिक और पर्यारणविद लगातार आगाह करते रहे लेकिन प्रकृति विरुद्ध हरकतें चलती रही। दुनिया का फेफड़ा कहे जाने वाले ब्राज़ील के अमजोन वर्षा वन को भी लगातार वहां के शासकों द्वारा कार्पोरेट और बाजारी शक्तियों के दबाव में नष्ट किया जा रहा है जिसका असर विश्व की जलवायु पर विपरीत रूप से पड़ना शुरू भी हो गया है। कनाडा और उत्तर-पश्चिम अमेरिका के कुछ हिस्सों में जुलाई 2021 के प्रथम सप्ताह में 50 डिग्री सेल्सियस के आसपास जाने से लगभग 500 लोगों की मृत्यु हो गयी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पिछले साल अन्टार्कटिका का तापमान 18 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा दर्ज किया था। वर्ष 2021 में भी यही हाल है। ध्रुवों की बर्फ तेजी से पिघल रही है। ये सब प्रतिकूलता हमारे अंधाधुंध विकास और उपभोक्तावादी मूल्यों का परिणाम है।

फिल्म शेरनी के एक दृश्य में विद्या बालन

जून 2021 में दो फ़िल्में देखने को मिलीं पहली ओक्जा और दूसरी शेरनी। ओक्जा हॉलीवुड मूवी है तो शेरनी बॉलीवुड की। जंगल उनमे रहने वाले जीव और जंगलों पर निर्भर आदिवासियों के जीवन को ये फिल्मे प्रभावी ढंग से दिखाती हैं। ओक्जा (2017) फिल्म बताती है कि हम सभी अपने घरों में कोई न कोई पालतू पशु रखते हैं। साथ रहते-रहते हमे उनसे प्रेम भी हो जाता है। हम उनके गुणों की चर्चा भी करने लगते हैं। प्यार से उनका नाम भी रखते हैं। कुत्ते और बिल्ली पालना तो बड़े लोगों के शौक में शुमार है। गाय, बैल, भैंस और बकरी तो किसान और गरीब लोग पालते हैं। भारत देश में सूअर पालन को अच्छी दृष्टि से तब तक नहीं देखा गया जब तक परम्परागत रूप से बहिष्कृत जातियां अकेले उन्हें पालती रहीं। जब से बड़े-बड़े सूअर बाड़ों में अमीर और बिजनेसमैन लोगों ने सूअर पालन शुरू किया यह लाभ का धंधा बन चुका है। ओक्जा फिल्म बताती है कि किस तरह जीव विज्ञानी प्रयोगशाला में जेनेटिक परिवर्तन करके विशालकाय प्रजाति का सूअर विकसित करते हैं ताकि अमेरिका और विश्व के बाजार में सूअर के मांस की मांग को पूरा करके बाजार पर मोनोपोली स्थापित की जाये। ऐसे 6 सूअर के बच्चों को दुनिया के अलग-अलग देशों में पालने के लिए स्थानीय लोगों को दे दिया जाता है। साउथ कोरिया के जंगली क्षेत्र में रहने वाले एक परिवार को सूअर के बच्चे ‘ओक्जा’ का पालन करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है। उस परिवार में मीजा नाम की एक छोटी बच्ची रहती है। ओक्जा और मीजा एक दूसरे से भावनात्मक रूप से ऐसे जुड़ जाते हैं कि एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते। कुछ सालों बाद जब अमेरिकन वैज्ञानिकों की टीम जब ओक्जा को देखने आती है तो पाती है कि वह 6 सूअर में सबसे विशालकाय है। ओक्जा को अमेरिका ले जाने का उपक्रम होने लगता है जिसका मीजा भरपूर विरोध करती है लेकिन रोक नहीं पाती। मीजा को भी अमेरिका ले जाया जाता है इस वादे के साथ कि ओक्जा को कुछ नही होगा। परन्तु ओक्जा को विकसित करने वाला वैज्ञानिक अपने बाड़े में रखे एक मेल सूअर से ओक्जा का जबरदस्ती सम्भोग कराता है जिससे एक बच्चा भी पैदा होता है। जेनेटिक्स के प्रभाव से विकसित किये गए इन विशाल आकार के सूअरों के मांस को टेस्ट करने के जीवित सूअरों के शरीर से कुछ मांस निकालने जैसा घोर अमानवीय कृत्य होता है। इस ज़िंदा गोश्त को टेस्ट करने वाली एक समिति मांस के स्वाद को बेहद टेस्टी बताती है। कारपोरेशन की मालकिन एक महिला है जो इन सूअरों की प्रदर्शनी कराने के बाद मांस का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू करना चाहती है। पशुप्रेमियों और निजी संगठनों के विरोध प्रदर्शनों को पुलिस के बल से दबा दिया जाता है और बूचड़खानों में नयी प्रजाति के सूअर काटे जाने लगते हैं। मीजा किसी तरह स्लाटरहाउस पहुँचती है जहाँ ओक्जा का बध होना था। जिस सोने के सूअर की मूर्ति देकर मीजा के ग्रैंडफादर से ओक्जा को खरीदा गया था उसे अमेरिकन कार्पोरेट की मालकिन को देकर वह अपनी दोस्त सूअर को बचा लेती है। स्लाटर हाउस से बाहर निकलते वक्त बाहर फ़ार्म में जमा ढेर सारे सूअरों के बीच सूअर का एक छोटा बच्चा भी मिल जाता है जो ओक्जा के साथ हो लेता है। मीजा, ओक्जा और उसका छोटा बच्चा वापस साउथ कोरिया के अपने जंगलों के बीच बसे प्राकृतिक़ सुन्दरता से भरपूर गाँव में पहुँचकर ख़ुशी-ख़ुशी जीने लगते हैं। कोरिया की एक आदिवासी लड़की मीजा अमेरिका से आई फीमेल सूअर ओक्जा को बचाने के लिए लम्बी और मुश्किल लड़ाई लडती है।

ये फिल्मे यह सन्देश देती हैं कि केन्या में ‘ग्रीन बेल्ट मूवमेंट’ चलाने वाले नोबेल विजेता वांगरी मथाई से लेकर उत्तराखंड के चिपको आन्दोलन में पहाड़ों के पेड़ों से चिपक जाने वाले महिलायें जानती हैं कि प्रकृति अनमोल है। महिलायें जननी हैं और प्रकृति भी, इसिलिए दोनों सम्वेदनशील भी हैं।

फिल्म शेरनी (2021) में वन विभाग की महिला अधिकारी की भूमिका में विद्या बालान ने शानदार काम किया है। जंगल के किनारे बसे गाँव के लोग अपने जानवरों को चराने और लकड़ियाँ बीनने के लिए जंगल में जाते हैं जिन्हें शेर या कोई और जानवर शिकार बना लेता है। लोगों के मरने पर इलाक के पूर्व विधायक और वर्तमान विधायक जी में जनता को प्रभावित करने की होड़ मचती है। समाधान क्या है कि शेर/शेरनी को पकड़ो ज़िंदा या मुर्दा। ज़िंदा पकड़ने का काम केवल सरकारी वन विभाग ही कर सकता है क्योंकि खुद को कांसेर्वेनिस्ट कहने वाला पिंटू भाई तो जब भी जंगल में घुसता है अपनी बंदूक से जानवरों का शिकार करता है। दबाव में वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी भी अपना पिंड छुडाने के लिए सकारात्मक उपाय सोचने की जगह शिकारी पिंटू भाई से शेरनी का शिकार कराने का ही शोर्टकट रास्ता अपनाना चाहते हैं। विद्या जिस तरह इतने सारे लोगो के बीच विपरीत परिस्थितियों में कुछ आदिवासी महिलाओं और एक जीवविज्ञानी प्रोफेसर की मदद से शेरनी और उसके दो छोटे बच्चों को बचाने की कोशिश करती है वह काबिले तारीफ़ है। डीएफओ के पद पर तैनात विद्या इन मुश्किलों से नाराज होकर पहले तो नौकरी छोड़ना चाहती है लेकिन जब वह कैमरे में कैद शेरनी के दो शावकों को देखती है तो उन्हें बचाने की कोशिश करती है जिसके लिए वह वन संरक्षक और वन्य जीव प्रेमी होने का झूठा आवरण ओढ़े अपने सीनियर नांगिया सर को ‘पैथेटिक’ तक बोल देती है। उस महिला में खुद शेरनी सा साहस है। वह अपने मूल्यों से समझौता नहीं करती सामने चाहे कितना भी पावरफुल आदमी खड़ा हो वह अपना पक्ष रखती जरुर है। लैब में जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रजाति के जानवर या बैंगन तैयार कर उनका पेटेंट कराकर उनका बाजारू उत्पादन करना और पैसा कमाना तथाकथित सभ्य दुनिया का चलन है। जंगल के जानवरों का शिकार करना और उनके चमड़े और शरीर के अंगों को बेचकर/स्मगलिंग करके पैसा कमाना भी उसी अन्तराष्ट्रीय कारपोरेट का हिस्सा है। हमने तो अपने घरों में माँ और दादी को रोज रात खाने के बाद ‘कौर’ के रूप में गाय-बैलों-भैंसों को रोटी और चवाल खिलाते देखा है। जब तक उतना खाना पालतू जानवरों को मिल नही जाता वे हमारा इंतज़ार करते थे। कभी भूल वश कौर न दें तो कष्ट होता था क्योंकि किसानों और आदिवासियों ने जानवरों को अपने परिवार का सदस्य माना है।

फिल्म किंग कोंग का लोकप्रिय दृश्य

किंग कोंग (2005) फिल्म में एक लालची फिल्म निर्माता स्कल आइलैंड जाकर अपनी टीम के साथ नरभक्षियों पर एक फिल्म बनाना चाहता है। उनकी टीम में फिल्म की नायिका आन्न भी होती है। गोरिल्ला से मुठभेड़ में पता चलता है कि वह आन्न से प्रेम करने लगा है। क्यंकि वह आन्न को नुक्सान पहुंचाने की जगह मुश्किलों से बचाता है। उस द्वीप पर एक प्रागेतिहासिक विशालकाय गोरिल्ला से मुठभेड़ हो जाती है जिसे वे पकडकर न्यूयॉर्क ले जाते हैं और आठवे अजूबे के तौर पर उसका प्रदर्शन करना चाहते हैं। फिल्म की नायिका आन्न इस प्रदर्शन के खिलाफ है। इस फिल्म के अंतिम दृश्य को देखिये तो गोरिल्ला कोंग के उपर सेना, पुलिस और एयरफ़ोर्स चारों तरफ से हमला कर रहे हैं और वह फिल्म की नायिका आन्न को बचाने में लगा है। आन्न जानती है कि गोरिल्ला उसकी बात मानता वह मनुष्य की तरह प्रेम भी करना जानता है लेकिन अमेरिका के सभ्य कहे जाने वाले लोग एक जीव का तमाशा बनाना चाहते हैं और पैसा कमाना चाहते हैं। फिल्म की नायिका गोरिल्ला कोंग को बचाना तो चाहती है पर बचा नहीं पाती। जुरासिक वर्ल्ड: फालेन किंगडम (2018) फिल्म के महिला और पुरुष वैज्ञानिक अपने द्वारा तैयार किये गए डायनासोर को बाजार में शो करने और नीलामी करने का विरोध करते हैं। बाजार के पास भावनाओं की कद्र करने की फुर्सत नही होती। वह जानवरों को तमाशा बनाने, पकाने और खाने की वस्तु मात्र समझते हैं।

ये फ़िल्में यह सन्देश देती हैं कि केन्या में ‘ग्रीन बेल्ट मूवमेंट’ चलाने वाले नोबेल विजेता वांगरी मथाई से लेकर उत्तराखंड के चिपको आन्दोलन में पहाड़ों के पेड़ों से चिपक जाने वाले महिलायें जानती हैं कि प्रकृति अनमोल है। महिलायें जननी हैं और प्रकृति भी, इसलिए दोनों सम्वेदनशील भी हैं। इस संसार को सुंदर और अनुकूल बनाये रखना है तो हमें महिलाओं और प्रकृति के अनूकुल सम्वेदनशील जीवन जीना होगा। हॉलीवुड में ‘उम्बेर्तो डी’, और ‘लाइफ ऑफ़ पाई’ जैसी मनुष्य और जानवरों के आपसी सम्बन्धों पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं बॉलीवुड को भी हाथी मेरे साथी(1971) और तेरी मेहरबानियाँ (1985) और दोस्त (1989) जैसी और अधिक फ़िल्में बनानी चाहिए। ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म यह मौका उपलब्ध कराया है तो आसानी से ऐसी महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाई जा सकती हैं।

राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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