अग्नि आलोक

नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने भारतीय सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी

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मनीष आजाद

बंगाल की धरती से उठी बसंत का ब्रजनाद – नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन ने भारत ही नहीं, दुनिया का ध्यान भी अपनी ओर खींचा, जिसने भारत की राजनीतिक पटल के साथ-साथ मानव जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. इसके साथ ही यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि जिस समय नक्सलबाड़ी आन्दोलन भारतीय सिनेमा को, विशेषकर ‘समानांतर सिनेमा’ को प्रभावित कर रहा था, उस समय विश्व सिनेमा की क्या स्थिति थी ? वो कैसे भारतीय सिनेमा पर असर डाल रही थी ?

नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव था कि ‘हर चीज़ पर सवाल खड़े करो, जो रूढ़ियां हैं, उसको तोड़ो’. ‘तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब’, तो जो मठ और गढ़ है हमारे दिमाग के, जो सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोध हैं, उसको तोड़ती है ये सारी फ़िल्में. इन फ़िल्मों में सीधे-सीधे कहीं नक्सलवाद की बात नहीं है, पर इस आन्दोलन की जो ‘सेन्सीबिलिटी’ थी, जो विचारधारा थी, वो इन फ़िल्मों को खुले-छिपे रूप में प्रभावित कर रही थी.

वक्त के साथ विस्तृत और तेज होती नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने भारत की सम्पूर्ण क्रांतिकारी जनता को रचनात्मक तरीकों से एकसूत्र में ढ़ालकर सन् 2004 में जिस माओवादी आंदोलन में परिवर्तित किया, उसने और भी रचनात्मक तरीकों से चहुंओर प्रभाव डाला, जिससे सिनेमा जगत भी जबरदस्त तरीकों से प्रभावित हुआ. इसमें प्रकाश झा निर्देशित फिल्म चक्रव्यूह और दक्षिण भारतीय फिल्म ‘दलम – द पावर’ का महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहा है. हलांकि इसके अलावा भी अन्य फिल्में बनाई गई जिसमें ‘लाल सलाम’ जैसी फिल्में भी है, जो सीधे-सीधे माओवादी आंदोलन को केन्द में रखकर बनाई गई है.

प्रकाश झा निर्देशित ‘चक्रव्यूह’ सीधे तौर पर माओवादी आन्दोलन के विकास पर केन्द्रित है तो वहीं ‘दलम – द पावर’ दुनिया के इतिहास में सबसे अछूते विषय आत्मसमर्पण कर चुके माओवादियों के एक दलम (माओवादियों का हथियारबंद दस्ता, जो माओवादियों के ‘जनमुक्ति छापामार सेना’ की एक इकाई होती है) पर केन्द्रित है, जिसमें यह दिखाया गया है कि माओवादियों का एक दलम (प्लाटून) राजनीतिक अज्ञानता के कारण निराशा का शिकार होकर जब आत्मसमर्पण करता है, तब उसके साथ किस तरह अमानवीय घिनौना व्यवहार यह शासक वर्ग करता है.

इसके साथ ही उससे अपने विरोधियों का सफाया करवाने के लिए सत्ता तंत्र इस्तेमाल करता है. जब वह इंकार कर देता है तब यह सत्ता किस तरह उसे मार डालने का प्रयत्न करता है, जिसमें आत्मसमर्पण कर चुके सम्पूर्ण दलम के लोगों की हत्या कर दी जाती है. फिल्म के अंत में एकमात्र बच निकले दलम सदस्य पुनः माओवादियों की दलम में शामिल हो जाता है और पुलिसिया तंत्र पर हमला करता है. वहीं, चक्रव्यूह फिल्म में पुलिस की ओर से माओवादियों के प्लाटून में प्लांट किये गए एक जासूस की कहानी है, जिसने माओवादियों की कार्यशैली और वैचारिकी ने इतना प्रभावित किया है कि उसने पुलिसिया विभाग से विद्रोह कर माओवादियों के साथ हो गया और माओवादियों के प्लाटून को बचाते हुए मृत्यु के अंतिम क्षण में भी ‘No Surrender’ का नारा बुलंद करते हुए अपने प्राण की आहुति देता है.

भारतीय सिनेमा पर नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव पर लिखी गई खोजपरक आलेख को (जिसे www.workersunity.com वेबसाइट ने 6 सिरीज में प्रकाशित किया है, यहां हम एक साथ प्रस्तुत कर रहे हैं) मनीष आजाद ने लिखा है, जिसमें नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव तक ही विश्लेषित किया गया है, जबकि नक्सलबाड़ी आंदोलन के माओवादी आंदोलन में हुए विकास के बाद के परिपेक्ष्य को अछूता छोड़ दिया है. वाबजूद इसके प्रस्तुत आलेख निश्चित रूप से भारतीय सिनेमा और उसके विकास में नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव को समझने में जागरुक और क्रांतिकारी जनता को मदद करेगी. – सम्पादक

भारतीय सिनेमा पर नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव

सिनेमा का जिस तरीके से जन्म हुआ है, जिस तरीके से इसका विकास हुआ है, उस रूप में यह एक वैश्विक कला (global art) है. इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में कोई सिनेमा बनता है तो वो धरती के दूसरे कोने में जो सिनेमा के दर्शक हैं, जो सिनेमा बनाने वाले हैं, उनको ज़रूर प्रभावित करता है.

जिस समय नक्सलबाड़ी आन्दोलन भारतीय सिनेमा को, विशेषकर ‘समानांतर सिनेमा’ को प्रभावित कर रहा था, उस समय विश्व सिनेमा की क्या स्थिति थी ? वो कैसे भारतीय सिनेमा पर असर डाल रही थी ?

जब आप ‘सत्यजीत रे’ के बारे में बातचीत करेंगे तो सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल के साथ अपने एक साक्षात्कार में साफ़-साफ़ कहते हैं कि ‘मेरे ऊपर इटली के डि सिका (बाईसकिल थीफ़) और जर्मनी के ‘जीन रेना’ (दी सदर्न) की फ़िल्मों का काफी प्रभाव है.’

यदि आप डि सिका की ‘बाईसकिल थीफ़’, जीन रेना की ‘दी सदर्न’ और सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ को साथ देखेंगे तो आप ये प्रभाव साफ़-साफ़ देख पाएंगे.

नक्सलबाड़ी आन्दोलन का सिनेमा पर प्रभाव

श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपाल कृष्णन, जॉन अब्राहम, समानांतर सिनेमा के ये जो बड़े-बड़े नाम हैं, ये लोग ‘पुणे फ़िल्म संस्थान’ के माध्यम से, फ़िल्म सोसाइटी के माध्यम से और अपने प्रयासों से भी विश्व सिनेमा से अच्छी तरह परिचित थे. उस वक्त विदेशी दूतावास भी अपने अपने देशों की फ़िल्में उपलब्ध कराया करते थे.

अभी दो साल पहले ही ‘फ़ादर गैस्तन रोबर्ग (Father Gaston Roberge) की मृत्यु हुई है. भारतीय फ़िल्मकारों को विदेशी क्लासिक फ़िल्मों से परिचित कराने में इनकी भी बड़ी भूमिका है.

1917 की सोवियत क्रांति, नक्सलबाड़ी आन्दोलन, चीन की सांस्कृतिक क्रांति, फ़्रांस का 68 का छात्र आन्दोलन, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका का रास्ट्रीय मुक्ति आंदोलन…,ऐसे सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का कला पर, फ़िल्मों पर जो असर होता है, वह असर कभी भी बहुत सीधा नहीं होता.

यदि हम नक्सलबाड़ी आन्दोलन का सार देखें तो वो था – ‘राष्ट्र मुक्ति चाहते हैं, देश आज़ादी चाहते हैं, और जनता क्रांति चाहती है.’ नक्सलबाड़ी आंदोलन का क्या योगदान था ? जितना बना बनाया ढांचा था, यानी सोचने का जो परंपरागत ढांचा था, उसको नक्सलबाड़ी आंदोलन की चेतना ने ध्वस्त कर दिया.

यानी नक्सलबाड़ी आन्दोलन जब सत्ता के किले पर गोलियां बरसा रहा था, सत्ता पर हमला कर रहा था, तो हमारे दिमाग का जो ‘मेन्टल कंस्ट्रक्शन’ था, उस पर भी गोलियां चल रही थी, वो भी धराशायी हो रहा था, यानी हम चीज़ों को कैसे देखते हैं. जनता के बीच के संबंधों को कैसे देखते हैं.

जनता और सरकार के बीच के रिश्ते को कैसे देखते हैं, दलित सवाल को कैसे देखते हैं, महिला सवाल को कैसे देखते हैं, वर्ग को कैसे देखते हैं, यानी सोचने का जो पुराना तरीका था, उसे नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने बदल दिया.

यही असर सिनेमा में विशेषकर 70 के दशक में शुरू हुए समानांतर सिनेमा में आया. हमें इस दौर में चार प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं –

  1. ‘फ्रेंच न्यू सिनेमा’,
  2. ‘इटालियन न्यू वेब सिनेमा’,
  3. ‘थर्ड (वर्ल्ड) सिनेमा’ और
  4. ‘ब्लैक सिनेमा.’

यहां के समानांतर सिनेमा के डायरेक्टर इन आन्दोलनों से, विशेषकर पहले दो सिनेमा आन्दोलनों से काफ़ी प्रभावित रहे हैं. इन सिनेमा आन्दोलनों का अपना एक इतिहास है, वो कैसे पैदा हुए, कब पैदा हुए. लातिन अमरीकी देशों में जो साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष चल रहा था, क्यूबा में जो क्रांति हुई थी, चीन में जो सांस्कृतिक क्रांति चल रही थी, फ्रांस में जो छात्र आन्दोलन चल रहा था, उसका विश्व की इन फ़िल्मों से वही रिश्ता था जो रिश्ता यहां की फ़िल्मों का नक्सलबाड़ी आन्दोलन के साथ था.

इसी परिवेश में ‘फ्रेंच न्यू सिनेमा’ (गोदार, तुफ़े, ब्रेस्सा आदि) इटली का ‘नव यथार्थ सिनेमा’ (डी सिका, फ़ेलिनी, रोसेलिनी आदि) अस्तित्व में आया. इसके अलावा जो ‘थर्ड (वर्ल्ड) सिनेमा’ था, वो क्यूबा का सिनेमा था, अर्जेंटीना का, चिली का, बोलीविया का सिनेमा था. बोलविया में उस समय एक फ़िल्म आई थी ‘ब्लड ऑफ़ कॉनडोर’ (blood of condor) जो बहुत ही हिट हुई.

पहले उस पर सरकार ने बंदिश लगा दी. बाद में जनता के दबाव की वजह से उसे दोबारा रिलीज करना पड़ा. यह फ़िल्म 1959 में आई थी. उसने बहुत ही ख़ूबसूरत तरीके से फ़िल्म की पूरी तकनीक को बदल कर रख दिया. इसके बाद सेनेगल का सिनेमा था, वह भी इसी दौरान वजूद में आया. ‘सेम्बेंन उस्मान’ इसके एक तरह से मिसाल बन गये. उन्होंने ‘ज़ाला’, ‘ब्लैक गर्ल’ जैसी अहम फ़िल्में बनायीं.

ब्लैक सिनेमा आंदोलन

इसके अलावा एक और सिनेमा आन्दोलन था जिसके बारे में बहुत कम चर्चा होती हैं, वो है ‘ब्लैक सिनेमा.’ इसके प्रमुख नाम है- ‘चार्ल्स बनेट’, ‘हेल्ली गरिमा’ ‘जूलिया दाश’ आदि. जूलिया दाश ने 1991 में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म बनाई थी- ‘डॉटर  ऑफ़ द डस्ट’ ( Daughters of the Dust) जिसमें संस्कृति के मुद्दे को सबाल्टर्न नजरिये से रखा गया था.

यह एक वैश्विक परिदृश्य है, जिसमें भारतीय फ़िल्मकार इन सभी सिनेमा आन्दोलनों से प्रभावित हो रहे थे. ब्राज़ील के एक बहुत प्रसिद्ध फ़िल्मकार हैं ‘ग्लाबर रोचा’ (Glauber Rocha). इन्होंने 1964 में ‘ब्लैक गॉड व्हाइट डेविल’ (Black God White Devil) बनाई. आप नाम से ही समझ सकते हैं कि ये अलग राजनीति के साथ साथ अपना अलग सौन्दर्य शास्त्र भी रचती है. इसके एक साल बाद ही ग्लाबर रोचा ने ‘थर्ड (वर्ल्ड) सिनेमा’ का एक तरह से मैनिफेस्टो लिखा – ‘एस्थेटिक्स ऑफ़ हंगर’ (Aesthetics of Hunger).

क्यूबा के ‘जूलियो गार्सिया एस्पिनोसा’ (Julio García Espinosa) ने इसे और विस्तार देते हुए ‘फ़ॉर अ इम्परफ़ेक्ट सिनेमा’ (For a Imperfect Cinema) लिखा. उस समय हॉलीवुड का जो मुख्य धारा का सिनेमा था, वह एक ‘परफेक्ट सिनेमा’ (Perfect Cinema) माना जाता था. मतलब इस तरह की फिल्मों में एक शुरुआत होगी, उसका मध्य (Climax) होगा और उसका अन्त होगा. लाइट, कैमरा, परिधान एकदम परफेक्ट होगा.

आप जानते ही हैं कि साहित्य में ‘परफ़ेक्शन’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती है. और यदि साहित्य में आप परफ़ेक्शन की मांग करते हैं, तो ये साहित्य के ही विरुद्ध जाता है. साहित्य की ‘स्पिरिट’ के ख़िलाफ़ जाता है, साहित्य को एक तरह से मारता है. ‘जन कला’ हमेशा विकासमान (developing) होती है. उसमें जीवन होता है. जीवन होता है, इसलिए उसमें द्वन्द भी होता है और इसलिए वो कभी ‘परफ़ेक्ट’ नहीं हो सकती. यहां परफ़ेक्शन का मतलब मौत है. इसी कांसेप्ट को ‘For a Imperfect Cinema’ में स्थापित किया गया है.

ऊपर जिस फ़िल्म का मैंने नाम लिया था, ‘ब्लड ऑफ़ कॉनडोर’ (Blood of Condor), उसके डायरेक्टर ‘जोर्जे संझिनेस’ (Jorge Sanjinés) ने इसी समय ‘प्रोब्लम्स ऑफ़ फॉर्म एंड कंटेंट इन रिवोल्यूशनरी सिनेमा’ (Problems of Form and Content in Revolutionary Cinema) लिखा. इसमें उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि हमारा काम सिर्फ फ़िल्में बनाना नहीं है, हमारा काम फ़िल्मों को वितरित करना भी है. यानी जिनके लिए हम फ़िल्म बना रहे हैं, उस तक पहुंचाना. वो फ़िल्म जो दोबारा बनाई गई. उन्होंने साफ़-साफ़ बोला कि –

‘फ़िल्में हमारे लिए एक ‘क्रान्तिकारी हथियार’ हैं. इतिहास में जनता तक पहुंचने का अब तक इससे बढ़िया माध्यम हमें नहीं मिला है. इससे पहले जो भी माध्यम थे, चाहे वो गाने का हो, चाहे वो साहित्य का हो, चाहे वो कविता का हो, चाहे कहानी का हो, वो भी महत्वपूर्ण हथियार हैं, पर फ़िल्म सबसे बड़ा हथियार है.

इस हथियार को हम महज गढ़ कर छोड़ नहीं सकते, यदि आपने जनता के लिए फ़िल्म बनाई है तो वो जनता के पास जानी भी चाहिए और जनता का फीडबैक मिलना चाहिए.’

आपको आश्चर्य होगा कि उन्होंने जो फ़िल्म बनायी ‘ब्लड ऑफ़ कॉनडोर’ (Blood of Condor), उसे जब वो जनता को दिखाने ले जाते थे तो जनता उस पर कमेंट करती थी.

इस फ़िल्म में फ़्लैश बैक का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल था. जनता को यह ठीक से समझ नहीं आया तो जनता के फीडबैक के आधार पर उन्होंने उस फ़िल्म को दोबारा बनाया. अभी YouTube पर जो ‘ब्लड ऑफ़ कॉनडोर’ (Blood of Condor) फ़िल्म आपको मिलेगी वह दोबारा बनी हुई फ़िल्म है. डिस्ट्रीब्यूशन के बाद जो फीडबैक आता है, उसके बाद आपको इस हथियार को और मांझना होता है.

इसी समय (1969) में अर्जेंटीना के ‘फ़र्नान्डो सोलोनास’ (Fernando Solanas) और ‘आक्टेवियो गितेनो’ (Octavio Getino) का लिखा मशहूर दस्तावेज ‘टुवर्ड्स अ थर्ड सिनेमा’ (Towards a Third Cinema) आया. यानी पहला सिनेमा हॉलीवुड का मुख्य धारा का सिनेमा, दूसरा इतालवी-फ्रेंच नव यथार्थ का सिनेमा.

तीसरा सिनेमा आंदोलन

नव यथार्थ वाला सिनेमा, यथार्थ को तो अच्छे से दिखाते है, लेकिन इस दस्तावेज के अनुसार, सवाल इस यथार्थ को बदलने का है. यथार्थ को बदलने का प्रयास करने वाला यह सिनेमा ही ‘तीसरा सिनेमा’ है. यानी फ़िल्मों का काम यथार्थ को महज दिखाना ही नहीं है बल्कि उस यथार्थ को बदलना भी है.

इसी कांसेप्ट के आधार पर इन दोनों फ़िल्मकारों ने 1968 में एक फ़िल्म बनायीं थी – ‘द ऑवर ऑफ़ द फ़रनसेस’ (The Hour of the Furnaces). इसे हम आंदोलनात्मक-प्रचारात्मक (agit-prop) फ़िल्म कह सकते हैं.

इस फ़िल्म की शुरुआत में जब क्रांतिकारियों को पुलिस पकड़ती है तो उससे पूछती है कि नाम क्या है. तेज़ अफ़्रीकी ड्रम संगीत के बैकग्राउंड में जवाब मिलाता है- ‘विक्टिम’, सरनेम- ‘आर्गेनाइजेशन’, आकुपेशन (पेशा)- ‘रिवोल्यूशन’ और बैकग्राउंड में अफ़्रीकी ड्रम संगीत बजता रहता है. तो अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह की फ़िल्म होगी यह. भारत के मशहूर दस्तावेजी (डाक्यूमेंट्री) फ़िल्मकार ‘आनंद पटवर्धन’ की फ़िल्मों में आप इसके असर को साफ़ देख सकते हैं.

तो इन सारी फ़िल्मों की जानकारी हमारे यहां के नक्सलबाड़ी के बाद के फ़िल्मकारों को थी, यानी वो सिर्फ नक्सलबाड़ी आन्दोलन से उपजी चेतना के ही प्रभाव में नहीं थे बल्कि विश्व सिनेमा के इस ‘विश्व संस्कृति’ (World Culture) से भी जुड़े हुए थे.

यहां तुर्की के ‘यिल्माज़ गुने’ (Yilmaz Guney) का नाम लेना ज़रूरी है, जिन्होंने 70 और 80 के दशक में जेल में रहते हुए ही कई फ़िल्मों की पटकथा लिखी और वो फ़िल्में बहुत सफल रही. अंत में तो फ़िल्म को निर्देशित करने का जूनून इतना ज़्यादा बढ़ा कि वे जेल से ही भाग गए. विश्व सिनेमा पर इनका असर भी काफ़ी है.

फ़िल्म देखना एक राजनीतिक क्रिया

‘द ऑवर ऑफ़ द फ़रनसेस’ (The Hour of Furneces) बनाने वाले सोलोनास (2 साल पहले ही इनकी मृत्यु हुई है) ने साफ़-साफ़ लिखा कि – ‘फ़िल्म देखना भी एक राजनीतिक क्रिया है.’

आप समझिये कि किस परिस्थिति में ये लिखा गया था. उस समय बोलीविया में इस तरह की फ़िल्में प्रतिबंधित कर दी जाती थी. इसके कारण वे गुरिल्ला माध्यम से फ़िल्म बनाते भी थे और गुरिल्ला माध्यम से फ़िल्म दिखाते भी थे.

गांव में गुप्त रूप से जाते थे, और अपनी फ़िल्में दिखाते थे. यदि पुलिस को खबर हो गयी तो वो गांव को घेर लेती थी. कई लोग पकड़े भी जाते थे, फ़िल्म यूनिट को वहां से भागना पड़ता था. इसलिए वहां पर यदि कोई फ़िल्म देखने आता था तो यूं ही नहीं चला आता था कि हमको सिर्फ मनोरंजन करना है, वो आता था तो यह समझ कर आता था कि इसमें ख़तरा है.

यानी यहां फ़िल्म देखना भी एक राजनीतिक सचेत क्रिया थी. जब इस तरह की फ़िल्में बनेंगी तो वास्तव में फ़िल्म देखना भी एक राजनीतिक क्रिया होगी.

अब थोड़ा ब्लैक सिनेमा के बारे में चर्चा कर लेते हैं. ब्लैक सिनेमा में ‘हेल्ली गेरिमा’ (Haile Gerima) का नाम आता है, ‘चार्ल्स बेनेट’ (Charles Burnett) का नाम आता है. हेल्ली गेरिमा की एक बहुत शानदार फ़िल्म 1975 में आई थी – ‘संकोफ़ा’ (Sankofa). यह इथियोपिया की पृष्ठभूमि पर थी. फ़िल्म का सन्देश था कि –

‘भविष्य में जाने के लिए हमें अनिवार्यतः अतीत में जाना होगा और वहां से भविष्य के लिए ताकत/संकल्प जुटाना होगा.’

स्टूडियो की कैद से आज़ादी

चार्ल्स बेनेट की 1978 में आयी ‘किलर ऑफ़ शीप’ (Killer of Sheep) भी काफी महत्वपूर्ण फ़िल्म है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सिनेमा आंदोलनों ने फ़िल्म को ‘स्टूडियो सिस्टम’ से बाहर निकाला. यानी स्टूडियो की कैद से ‘आज़ाद’ किया. इससे पहले जो फ़िल्में बनती थी, वो ज़्यादातर स्टूडियो में बनती थी.

आउटडोर शूटिंग का रिवाज़ बहुत कम था. प्रगतिशील फ़िल्में तो बनती थी लेकिन ‘स्टूडियो सिस्टम’ में ही. जैसे आप भारतीय सन्दर्भ में देखें तो ‘नीचा नगर’, ‘माटी के लाल’, ‘अछूत कन्या’, ‘बंदिनी’, ‘दो बीघा जमीन’, ये जितनी प्रगतिशील फिल्में हैं. ये ‘स्टूडियो सिस्टम’ में बनी हैं.

मतलब, गांव का दृश्य है तो गांव को स्टूडियो में बना लिया. ‘नीचा नगर’ में मज़दूरों की बस्ती है या पूंजीपतियों का बड़ा-सा घर है तो स्टूडियो के अन्दर ही बना लिया और जो स्टार वो कास्ट करते थे वो भी ज़्यादा परिचित चेहरे ही होते थे, यानी ‘स्टार’ होते थे, ‘हीरो’ होते थे.

इन सिनेमा आंदोलनों ने पहली बार सिनेमा को ‘स्टूडियो सिस्टम’ से बाहर खींच कर ले आये. बांगला में हम जब आयेंगे तो ‘पाथेर पांचाली’ वो पहली फ़िल्म थी जो स्टूडियो के बाहर वास्तविक गांव में शूट की गयी थी और सत्यजीत रे को बहुत दिक्कत हुई थी. कोई कैमरामैन तैयार ही नहीं था उनकी फ़िल्म को शूट करने के लिए. अंततः सुब्रत मित्रा उनके कैमरामैन बने.

सुब्रत मित्रा ने इसके पहले कोई भी फ़िल्म शूट नहीं की थी. उस समय जितने भी स्थापित कैमरामैन थे, वो हंसी उड़ाते थे कि अरे ऐसा कैसे हो सकता है, स्टूडियो से बाहर आप कैसे शूट करेंगे ?सत्यजीत रे पूरी यूनिट लेकर बंगाल के एक गांव में चले गए और वहां पर उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ को शूट किया.

‘मिनिमलिस्ट’ अप्रोच

दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि टेक्नोलॉजी में जो परिवर्तन आता है, वह भी इस चीज को संभव बनाता है. जैसे 60 के पहले जो कैमरा थे वो बड़े और भारी हुआ करते थे, लेकिन 60 के बाद जो कैमरे आये वो थोड़े छोटे और हल्के हो गए. बाद में ‘हाथ वाला कैमरा’ (Handycam) आने से तो यह और भी आसान हो गया. आप कैमरा लेकर कहीं भी निकल सकते हैं. अब जीवन को कृत्रिम तरीके से स्टूडियो में निर्मित करने की बजाय, आप जिस तरह के जीवन को फिल्माना चाहते हैं, सीधे वहां जा सकते हैं.

इसलिए आप देखेंगे कि 60 के बाद जिस समानान्तर सिनेमा की हम बात करते हैं उसमें कथावस्तु (Content) को आप छोड़ भी दीजिये तो आपको इन फ़िल्मों में एक ताज़गी नज़र आएगी. ‘रियल लोकेशन’ की शूटिंग है, एकदम नए कलाकार हैं, ‘मिनिमलिस्ट’ अप्रोच है. मिनिमलिस्ट अप्रोच का मतलब है कि कम से कम संसाधन में फ़िल्म बनाना. ज़्यादा तामझाम न करना.

एक बार श्याम बेनेगल ने अपने एक इंटरव्यू में बोला कि ‘माइकल जैक्सन’ जब डांस करता है तो यदि आप लाइट और म्यूजिक ऑफ़ कर दीजिये, तो आपको कैसा लगेगा माइकल जैक्सन का डांस ? मुझे तो वो बन्दर जैसे कूदता-उछलता लगेगा.’ यानी वहां डांस पर टेक्नोलॉजी, लाइटिंग, एडिटिंग हावी है.

यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि ‘पुणे फ़िल्म संस्थान’ जैसी जो भी फ़िल्म संस्था है वो ज़्यादातर यूरोपियन केन्द्रित है. वहां पर इटालियन फ़िल्मों के बारे में, फ्रेंच न्यू सिनेमा के बारे में, अमरीकी फ़िल्मों के बारे में ज़्यादा पढ़ाया जाता है.

नए फ़िल्मकार अधिकांशतः यूरोपियन फ़िल्मों की ही बात करते हैं. क्यूबा की फ़िल्मों के बारे में, सेनेगल की फ़िल्मों के बारे में अफ्रीका की फ़िल्मों के बारे में लैटिन अमेरिका की फ़िल्मों के बारे में, उनकी जानकारी बहुत कम होती है या उसको नज़रंदाज़ किया जाता है.

नक्सलबाड़ी आन्दोलन और मलयालम सिनेमा

भारतीय फ़िल्मों और उस पर नक्सलबाड़ी आन्दोलन के असर की बात करें तो मलयालम फ़िल्मों पर उसका गहरा असर दिखता है. यहां एक बड़ा नाम ‘जॉन अब्राहम’ का है. वे ‘ऋत्विक घटक’ के शिष्य थे. यहां पर आप देखेंगे कि समानान्तर सिनेमा में जो लोग सक्रिय थे, वो आपस में भी एक दूसरे से काफ़ी जुड़े हुए थे. ‘मणि कौल’ ऋत्विक घटक के शिष्य थे.

जॉन अब्राहम ने मणि कौल की एक फ़िल्म ‘उसकी रोटी’ में सहायक डायरेक्टर की भूमिका निभाई थी. गोविन्द निहलानी ने श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में सहायक डायरेक्टर की भूमिका निभाई हैं. जॉन अब्राहम ने ‘पुणे फ़िल्म संस्थान’ से पढ़ाई की.

चंदे से बनी फ़िल्म

जॉन अब्राहम ने 1986 में ‘अम्मा आर्यान’ (Amma Ariyan) बनायी थी, जो नक्सलबाड़ी पृष्ठभूमि पर थी. बहुत बेहतरीन फ़िल्म है ये लेकिन जॉन अब्राहम का इससे भी बड़ा योगदान था, ‘ओदेशा कलेक्टिव फ़िल्म सोसायटी’ बनाना.

नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद से फ़िल्म सोसाइटी की बाढ़-सी आ गयी थी. हर जगह एक फ़िल्म सोसायटी बनती थी, उस फ़िल्म सोसाएटी के माध्यम से फ़िल्में दिखाई जाती थी, उस पर गंभीरता से चर्चा होती थी. कई जगह तो उस फ़िल्म सोसाइटी के चंदे से फ़िल्में तक बनी हैं.

‘अम्मा आर्यान’ फ़िल्म ‘ओदेशा कलेक्टिव फ़िल्म सोसायटी’ के चंदे से ही बनी थी. आप इसको आज के ‘क्राउड फंडिंग’ से कंफ्यूज मत कीजियेगा, ‘क्राउड फंडिंग’ भी बढ़िया चीज़ है. लोग मदद करते हैं. लेकिन क्राउड फंडिंग में डायरेक्टर के साथ या फ़िल्म बनाने वाली यूनिट के साथ उस तरह का ‘आर्गेनिक रिलेशन’ नहीं रहता.

‘अदुरगोपाल कृष्णन’ ने भी अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘चित्रलेखा फ़िल्म सोसायटी’ बनायी थी. इस सोसायटी ने भी उनकी फ़िल्म को फ़ंड किया था. यहां पर जो व्यक्ति फ़िल्म के लिए पैसा देता था उसका फ़िल्म यूनिट के साथ एक ‘आर्गेनिक रिलेशन’ रहता था. वो कई बार महत्वपूर्ण सुझाव भी देता था.

‘द हॉन्टेड माइंड’

इसी रूप में फ़िल्म मेकिंग एक तरह से सामूहिक प्रयास होता था. हालांकि बंगाल में सत्यजीत रे ने अन्य साथियों के साथ मिलकर काफ़ी पहले ही फ़िल्म सोसाइटी बना ली थी. इस सोसाइटी के माध्यम से ही कलकत्ता के बुद्धिजीवियों व फ़िल्म प्रेमियों को बहुत सी फ़िल्में जैसे चार्ली चैप्लिन की, जॉन फोर्ड की, जीन रेना … जैसे विश्व के प्रसिद्ध निर्देशकों की फ़िल्में देखने को मिली. यानी एक निरंतरता भी है लेकिन नक्सलबाड़ी के बाद इसमें एक गुणात्मक छलांग आ गया.

इसी ‘ओदेशा कलेक्टिव फ़िल्म सोसाइटी’ के एक और फ़िल्मकार थे – ‘सत्यम.’ सत्यम का फ़िल्म से ज़्यादा डॉक्युमेंट्री में बड़ी भूमिका थी. उन्होंने नक्सलबाड़ी के शहीद ‘कामरेड वर्गीस’ पर बहुत महत्वपूर्ण डाकूमेंट्री बनायी थी. वर्गीस नक्सलबाड़ी आन्दोलन में केरल के पहले शहीद थे, जिनको 1976 में पुलिस ने गोली मार दी थी.

कामरेड वर्गीज को जिसने गोली मारी थी, उसे यह घटना ज़िन्दगी भर परेशान करती रही. अपने ऊपर के ऑफिसर के कहने पर उसने निहत्थे वर्गीज को गोली मारी थी. अपने तमाम अंतरद्वन्द के बाद अंततः 94-95 के आसपास उसने स्वीकार किया कि वर्गीज को फ़र्जी मुठभेड़ में मारा गया था और उसने ‘फ़ला’ आफिसर के कहने पर खुद वर्गीज को गोली मारी थी.

उसके इसी अन्तरद्वन्द पर एक फ़ीचर फ़िल्म भी है जो 2007 में आई थी. लेकिन सबसे पहले सत्यम ने अपनी डॉक्युमेंट्री में उसके अंतरद्वन्द को पकड़ा कि कैसे ऑफ़िसर के कहने पर उसने गोली मार तो दी, लेकिन उसके बाद वह व्यक्ति तिल-तिल मरता रहा. इस फ़िल्म का नाम ‘द हॉन्टेड माइंड‘ (The Haunted Mind) है.

अदूरगोपाल कृष्णन का सिनेमा

उसके बाद जो दूसरा नाम है वो अदूरगोपाल कृष्णन का नाम है, जिन्होंने ‘चित्रलेखा फ़िल्म सोसाइटी’ बनायी थी. चित्रलेखा फ़िल्म सोसाइटी की पहली फ़िल्म ‘स्वयंवरम’ (Swayamvaram) थी. इन फ़िल्मों को आप देखेंगे तो पाएंगे कि इन फ़िल्मों में आउटडोर शूटिंग है, फ़िल्म मेकिंग के तमाम तामझाम एकदम नहीं है, लगभग सभी ऐसे नए कलाकार हैं जिन्होंने शायद ही कभी अभिनय किया हो.

‘स्वयम्वरम’ में जो नायिका है, उसने तो पहले अभिनय किया था (वह वहां की स्थापित ऐक्टर थी) लेकिन जो नायक है उसने पहले कभी अभिनय नहीं किया था इसलिए ऐसी फ़िल्मों में एक अलग तरह की ताज़गी मिलती है. इसी फ़िल्म में स्लम में जब पति पत्नी रहने के लिए जाते है तो उनके बगल में एक वेश्या रहती है, उसके बगल में मज़दूर है यानी आपको एक पूरा सन्दर्भ दिखता है. पूरा समाज दिखता है.

तथाकथित मुख्यधारा के सिनेमा में कैमरा हमेशा हीरो पर फोकस रहता है इसलिए ‘Third (world) Cinema’ क्लोज-अप का बहुत कम इस्तेमाल करता था. यहां कैमरा ना सिर्फ मुख्य कलाकारों पर फोकस करता है बल्कि उनके आसपास की जो चीजें हैं, परिस्थितियां हैं उसको भी फ्रेम में रखता है.

इससे कलाकारों की सामाजिक पहचान का पता चलता है, वे कहां रहते हैं, क्या उनकी सस्कृति है, क्या उनका समाज है आदि. आप हॉलीवुड-बॉलीवुड की फ़िल्में देखेंगे तो उसमे पूरा फोकस अक्षय कुमार, सलमान ख़ान या जो भी हीरो है उसी पर रहता है.

उसकी पहचान क्या है, वो कहां से पैसा कमाता हैं, उनकी सांस्कृतिक जड़ें क्या हैं, इसके बारे में ना कोई जानकारी होती है, ना उसको देने की कोई ज़रूरत समझी जाती है क्योंकि वहां फ़िल्म एक ‘प्रोडक्ट’ है इसलिए बहुत सारे फ़िल्म समीक्षक इसे फ़िल्म मानते ही नहीं हैं. इस फ़िल्म इंडस्ट्री से तो ‘प्रोडक्ट’ ही निकलेगा, कला तो उससे निकलेगी नहीं.

फ़िल्म ‘कुमाटी’ का असर

तीसरा महत्वपूर्ण नाम ‘जी अरविन्दम’ का है. इन्होंने भी बहुत सारी फ़िल्में बनायी. 72 में उन्होंने ‘कंचन सीता’ बनायी थी. यह राम और सीता की परम्परागत कहानी पर आधारित फ़िल्म है, इसमें उन्होंने राम के रूप में एक आदिवासी को चुना.

एक आदिवासी को राम की भूमिका देने के कारण उनपर काफी हमले हुए और कई जगह उनकी फ़िल्मों को रोक दिया गया. फिर उसके 2-3 साल बाद उनकी एक बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म आई ‘कुमाटी.’ कुमाटी वहां एक लोक फार्म है. फ़िल्म में एक जादूगर आता है, बच्चों को इकठ्ठा करता है और बच्चे जो चाहते हैं, उनको वो बना देता है.

बच्चे पक्षी बनकर, बकरी बनकर, सांप बनकर खूब मस्ती करते हैं. फिर जाते समय जादूगर उन सब को वापस बच्चा बना देता है. इसी प्रक्रिया में एक बच्चा कुत्ता बनकर कहीं छुप जाता है, और जादूगर, जिसे कुमाटी बोलते है, चला जाता है.

अब वह साल भर बाद आएगा तो साल भर इसे कुत्ता ही रहना पड़ेगा. साल भर तक ये बच्चा कुत्ता बनकर घूमता है चारों तरफ़. उसको पहली बार गुलामी का अर्थ पता चलता है. जब एक साल बाद कुमाटी आता है तो उसे दुबारा बच्चा बनाता है.

उसके बाद बच्चा जो पहला काम करता है वह यह कि घर में जाकर अपने तोते को आज़ाद कर देता है क्योंकि कुत्ता बनकर उसको पता चल गया था कि गुलामी क्या होती है. बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है.

नक्सली आन्दोलन का प्रभाव था कि चीज़ों पर सवाल खड़े करो, जो रूढ़ियाँ हैं, उसको तोड़ो. ‘तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब’, तो जो मठ और गढ़ है हमारे दिमाग के, जो सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोध हैं, उसको तोड़ती है ये सारी फ़िल्में.

इन फ़िल्मों में सीधे-सीधे कहीं नक्सलवाद की बात नहीं है, पर इस आन्दोलन की जो ‘सेन्सीबिलिटी’ थी, जो विचारधारा थी वो इन फ़िल्मों को खुले-छिपे रूप में प्रभावित कर रही थी.

1970 के दशक की प्रमुख फ़िल्में

उसके बाद नाम आता है, ‘पी. ए. बाकर’ का. इन्होंने कम फ़िल्में बनायीं हैं. बाकर ने 1975 में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म बनायी जो नक्सल आन्दोलन पर ही आधारित थी. फ़िल्म का नाम था-‘व्हेन द रिवर कबानी टर्न्ड रेड’(When the River Kabani Turned Red). ‘कबानी’ केरल की एक नदी का नाम है. फ़िल्म का नाम ही बहुत कुछ कह देता है.

अब यदि हम उसी दौर के कन्नड़ सिनेमा की बात करें तो गिरीश कनार्ड, गिरीश कसारवेली, वी. बी. कारंत जैसे दिग्गजों का नाम सामने आता है. गिरीश कसारवेली ने 1977 में अनंतमूर्ती की कहानी ‘घटश्राद्ध’ पर एक फ़िल्म बनायी थी. ये हिंदी में ‘दीक्षा’ नाम से बनी है. इसमें नाना पाटेकर दलित है, एक ब्राह्मण का बच्चा है।

उसको नहीं पता कि क्या छूआछूत है, वो नाना पाटेकर को सहज ही छूने जाता है तो नाना पाटेकर भागता है कि ब्राह्मण का बच्चा मुझे कैसे छू सकता है. फिर भागते हुए नाना पाटेकर को भी थोड़ा मज़ा आने लगता है. बच्चे को भी मज़ा आने लगता है. फिर नाना पाटेकर बच्चे के छूने से बचते हुए बोलता है- ‘मुझे पानी छू सकता, मुझे सूरज की रोशनी छू सकती, मुझे हवा छू सकती, लेकिन ब्राह्मण का बच्चा नहीं छू सकता.’ कमाल का संवाद है यह, बेचैन कर देने वाला.

‘वी. बी. कारंत’ और ‘गिरीश कर्नाड’ ने 1972 में ‘वंशवृक्ष’ फ़िल्म बनाई. इसमें एक विधवा महिला के संघर्षों की कहानी है, वह भी बहुत मशहूर हुई थी. उसको नेशनल अवार्ड भी मिले थे.

असम में ‘जानू बरुआ’ का नाम है. इसके अलावा ‘भवेंद्र नाथ सैकिया’ का नाम है. जानू बरुआ ने हिंदी में भी काफी फ़िल्में बनाई हैं, ‘मैंने गाँधी को नहीं मारा’…आदि. असम में समानान्तर सिनेमा उतना मजबूत नहीं था. असम में फ़िल्म इंडस्ट्री भी काफी कमज़ोर है.

जानू बरुआ ने 83 में ‘अपरूपा’ बनाई थी. उसमें भूपेन हजारिका ने संगीत दिया था. ‘सुहासिनी मुले’ जो भुवन शोम की नायिका थी, उन्होंने यह फ़िल्म की थी. आज की शब्दावली में इसे एक ‘फ़िमिनिस्ट फ़िल्म’ भी कह सकते हैं.

मणिपुरी फ़िल्म ‘My Son, My Precious’

इसी समय (1981) मणिपुर में भी एक अच्छी फ़िल्म बनी थी, ‘My Son, My Precious’, जहां पर एक टीचर एक अनाथ बच्चे को पढ़ाते हुए, उसके साथ इस कदर एक रिश्ते में बंध जाती है कि उस बच्चे के पिता का पता लगाने और उसको न्याय दिलाने के संघर्ष में शामिल हो जाती है. बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है. मणिपुर की फ़िल्म इंडस्ट्री भी काफ़ी कमजोर है. ज़्यादा फ़िल्में नहीं बनी है.

अब हम लोग आते हैं मराठी सिनेमा पर. मराठी सिनेमा काफी समृद्ध है. उसमें एक बड़ा नाम है- ‘जब्बार पटेल’ का. जब्बार पटेल ने वहां के ग्रामीण इलाके का जो वर्ग संघर्ष था, (वह सीधे–सीधे नक्सलबाड़ी से प्रभावित था) उस पर ‘सामना’ फ़िल्म बनाई.

उसमें कहीं भी नक्सल शब्द नहीं है, लेकिन उसमें जो वर्ग संघर्ष आ रहा है, वह इसी आन्दोलन की प्रेरणा से ही आ रहा है. यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि मराठी नाटकों में उस वक़्त विजय तेंदुलकर का दबदबा था, उन्होंने नई धारा ही शुरू कर दी थी.

इस दौरान कई महत्वपूर्ण फ़िल्मों की स्क्रिप्ट भी उन्होंने ही लिखी. हिंदी की भी और मराठी की भी. ‘सामना’ के बाद ज़ब्बार पटेल की दूसरी फ़िल्म 1979 में राजनीतिक भ्रष्टाचार पर आई. नाम था- ‘सिंघासन.’ इसकी स्क्रिप्ट विजय तेंदुलकर ने ही लिखी थी. फिर आई ‘तीसरी आज़ादी’, जो दलित नज़रिए से रामायण, महाभारत को पुनर्व्याख्यायित करती है.

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विजय तेंदुलकर और महेश एन्चुक्वार ने कई उन हिंदी फ़िल्मों की भी स्क्रिप्ट लिखी जो सीधे-सीधे नक्सलवाद की विचारधारा या उसकी ‘सेंसिबिलिटी’ से प्रभावित थी.

जैसे राजनीति में बांग्ला ने एक दिशा दिखाई, वैसे ही सिनेमा में भी इसने दिशा दिखाई. हम सभी मानते हैं कि 1955 में सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ ने भारत में समानान्तर सिनेमा की नींव रख दी. हालांकि 1952 में ही ऋत्विक घटक ने ‘नागरिक’ बना ली थी लेकिन उस वक़्त वह रिलीज़ नहीं हो पाई. सत्यजीत रे ने अपने एक इंटरव्यू में कहीं कहा है कि यदि ‘नागरिक’ 52 में रिलीज़ हो जाती तो यह ‘न्यू वेव सिनेमा’ की पहली फ़िल्म होती.

अब यदि हम छलांग लगा कर 70 के दशक में आयें तो तीन बड़े नाम हैं – ‘सत्यजीत रे’, ‘मृणाल सेन’ और ‘ऋत्विक घटक.’ सत्यजीत रे की जो तीन फ़िल्में नक्सल आन्दोलन से प्रभावित मानी जाती हैं, वे हैं- ‘प्रतिद्वंदी’, ’सीमाबद्ध’ और ‘जन अरन्य.’

सत्यजीत रे

यदि आप सत्यजीत रे की पुरानी फ़िल्मों को देखेंगे, मसलन ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपूर संसार’ आदि तो आप पाएंगे कि सत्यजीत रे की फ़िल्में राजनीतिक तौर पर ज़्यादा मुखर नहीं होती, जैसे मृणाल सेन की फ़िल्में होती है. यह आन्दोलन का ही प्रभाव था कि सत्यजीत रे जैसे फ़िल्मकार ने भी इस दौर में अपेक्षाकृत मुखर फ़िल्में बनाई. ‘प्रतिद्वंदी’ में जो मुख्य कलाकार है, वह बेरोज़गार है.

जब वह एक साक्षात्कार के लिए जाता है तो साक्षात्कार लेने वाला उससे पूछता है कि 60 के दशक की कोई सबसे महत्वपूर्ण बात बताइये. बेरोजगार नौजवान बोलता है कि 60 के दशक की सबसे महत्वपूर्ण बात है ‘वियतनाम युद्ध.’

इस पर साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति चौंक कर बोलता है कि इसी दशक में तो इन्सान चांद पर गया है, तो क्या चांद पर जाना बड़ी बात नहीं है ?

नौजवान उत्तर देता है – ‘चांद पर जाना अपेक्षित था क्योंकि तकनीक का विकास इस तरह से हो रहा था, लेकिन वियतनाम की जनता ने जो कर दिखाया, यानी साधारण जनता ने जो असाधारण काम कर दिखाया है, वह अप्रत्याशित था.’

ज़ाहिर-सी बात है कि इस जवाब के बाद नौजवान को नौकरी नहीं मिली. यह संवाद उस समय के बंगाल के मूड को दिखाता है.

ऋत्विक घटक

दूसरा बड़ा नाम आता है ‘ऋत्विक घटक’ का. ऋत्विक घटक की फ़िल्म ‘जुक्ति, तर्को, गप्पो’ (रीज़न, डिबेट एंड स्टोरी) में नक्सल आन्दोलन के बारे में आपको उनका कमेंट मिलेगा. ऋत्विक घटक ने इसमें खुद भी अभिनय किया है.

फ़िल्म में ऋत्विक घटक कई लोगों से मिलते हैं. किसान से मिलते हैं, मजदूर से मिलते हैं. उनसे बात करते जाते हैं. इस प्रक्रिया में आपको उस समाज और उस समय का एक चित्र मिलेगा और उस पर ऋत्विक घटक की प्रतिक्रिया मिलेगी. रास्ते में जंगल से गुजरते हुए उन्हें एक गुरिल्ला नक्सली मिलता है.

उससे बात होती है, तो ऋत्विक घटक उससे कहते हैं – ‘तुम एक ही समय पर सफल भी हो और असफ़ल भी’ (you are successful and unsucessful at the same time). उस समय के नक्सल आन्दोलन पर यह बहुत ही अर्थपूर्ण टिप्पणी थी.

इसके अलावा ऋत्विक घटक ने जो फ़िल्में बनाई हैं उसमे ‘मेघे ढाके तारा’, और ‘सुवर्ण रेखा’ बेहतरीन फ़िल्म है. ऋत्विक घटक जैसे फ़िल्मकार फॉर्म में भी कई चीज़ें तोड़ते हैं.

जैसे ‘सुवर्णरेखा’ में घटक ने जानबूझ कर सुबह के समय गाया जाने वाला राग दोपहर में दर्शाया है. इससे एक खास तरह का प्रभाव पैदा होता है, जो कहानी को अपनी तरह से धक्का देते हुए आगे बढ़ाता है.

मृणाल सेन

इसके अलावा इस दौर के जो सबसे मुखर राजनीतिक फ़िल्मकार हैं, वह निश्चित ही ‘मृणाल सेन’ हैं. उनकी triology (‘कलकत्ता 71’, ‘इंटरव्यू’, और ‘पदातिक’) सीधे-सीधे नक्सल आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर है.

‘इंटरव्यू’ फ़िल्म में बेरोज़गार युवक को साक्षात्कार के लिए जाना है. नौजवान काफ़ी बेचैन और डरा हुआ है. वह जानता है कि साक्षात्कार आपके चयन के लिए नहीं होता है. जैसे हमारी परीक्षा प्रणाली आपको पास करने के लिए नहीं है.

जैसा कि प्रसिद्ध शिक्षाविद ‘अनिल सदगोपाल’ बताते हैं कि हमारी परीक्षा प्रणाली एक छलनी है, जिसका मुख्य काम लोगों को फेल करना या छांटना होता है. फ़िल्म में उस नौजवान को साक्षात्कार के लिए पैंट शर्ट चाहिए लेकिन वह तो बंगाली बाबू है, वह परंपरागत ड्रेस धोती-कुरता में रहता है.

वह बहुत प्रयास करता है, यहां वहां से उधार लेता है, लेकिन उसे पैंट-शर्ट नहीं मिल पाता. एक कपड़े के शो-रूम के सामने से जब वह गुज़रता है, तो वह देखता है कि दुकान के सामने जो पुतला रखा है, उसने पैंट-शर्ट पहना हुआ है.

उसके दिमाग में तुरंत स्ट्राइक करता है कि मैं इसका कपड़ा चुरा लूँ. यहां मृणाल सेन ने जो दिखाया है, वह एक तरह का ‘कल्चरल टसल’ है. मतलब उस नौजवान की अपनी जो सांस्कृतिक जड़े हैं, उन जड़ों से कटने के लिए उसको बाध्य किया जा रहा है.

यहां वह बुत विदेशी संस्कृति का प्रतीक बन जाता है, जिसमें वास्तव में कोई जीवन नहीं है, कोई जीवन्तता नहीं है लेकिन वह प्रभावी (dominating) है.

’कलकत्ता 71’ में मृणाल सेन ने उस वक़्त वहां जितने भी वर्ग थे, उनके अंदर क्या हलचल थी, इसे अपना विषय बनाया है. उनकी ‘पदातिक’ फ़िल्म में सिम्मी ग्रेवाल ने काम किया है.

फ़िल्म में पुलिस से बचकर भागा हुआ एक नक्सल नौजवान है. किसी सम्बन्ध के कारण से वह सिम्मी ग्रेवाल के घर में आकर रहता है. वहां भी एक ‘कल्चरल टसल’ होता है. इसमे ‘न्यूज़रील’ का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया गया है. बीच-बीच में आपको भ्रम होगा कि आप डाक्यूमेंट्री देख रहे हैं.

70 के बाद इन राजनीतिक फ़िल्मकारों के यहाँ ‘फिक्शन’ और ‘डाक्यूमेंट्री’ का गैप कम हुआ है. यह भी नए दौर के प्रभाव के ही कारण है.

मृणाल सेन की एक और बहुत महत्वपूर्ण फ़िल्म है- ‘अकालेर संधाने’ (In Search of Famine).

यह फ़िल्म उन्होंने 1980 में बनाई थी. फ़िल्म में एक ‘फ़िल्म यूनिट’ है. ये यूनिट 1942 के अकाल पर एक फ़िल्म बना रही है. इसी उद्देश्य से वह यूनिट बंगाल के ही एक गांव में जाती है. जब वे ‘क्लाइमेक्स’ शूट कर रहे होते हैं, जहां एक बच्चे के भूख से मरने को फिल्माया जा रहा था, तो उसी गांव की एक ग़रीब महिला जो भीड़ में खड़ी शूटिंग देख रही है, अचानक चिल्ला उठती है, क्योंकि उसे अपनी वर्तमान समय की भुखमरी याद आ जाती है कि कहीं मेरा बच्चा भी भूख से न मर जाये. यानी उसकी भी स्थिति वही है जो 1942 में बंगाल की थी.

बंगाली सिनेमा का हिंदी फ़िल्मों से रिश्ता यानी एक तरह की निरन्तरता है. यह ‘फ़िल्म के अंदर फ़िल्म’ के माध्यम से एक तरह का ‘एलियनेशन इफ़ेक्ट’ (ब्रेख्त) भी पैदा करती है. यह आपको झकझोर कर रख देती है. आप बहुत कुछ सोचने पर बाध्य हो जाते है. आप 1942 के अकाल पर फ़िल्म बनाने आये हैं और बंगाल के गाँव में यह अभी भी अतीत नहीं हुआ है.

इसके अलावा ‘गौतम घोष’ एक खास फ़िल्मकार हैं. इन्होने हिंदी में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘पार’ बनाई. बंगाली फ़िल्मकारों ने बहुत सारी फ़िल्में हिंदी में भी बनाई हैं.

इसलिए उनकी आवाजाही रहती है हिंदी में भी. सत्यजीत रे ने भी हिंदी में फ़िल्में बनाई ‘शतरंज के खिलाड़ी.’ ‘गौतम घोष’ ने एक और फ़िल्म बांगला में ‘अन्तर्जली यात्रा’ बनाई. यह ब्राह्मण ‘पोलिगमी’ के बारे में है.

साल 1989 में ‘तपन सिन्हा’ ने ‘एक डॉक्टर की मौत’ बनाई. ‘अपर्णा सेन’ एक बड़ा नाम है. उन्होंने ‘36 चौरंगी लेन’ 1984 में बनायी थी. ‘बुद्धदेव दास गुप्ता’ ने एक बेहतरीन फ़िल्म ‘बाघबहादुर’ बनाई.

‘पवन मल्होत्रा’ द्वारा अभिनीत यह फ़िल्म 1989 में आई थी. बुद्धदेव दास गुप्ता ने ही ‘दुरत्व’ (Dooratwa) भी बनाई. यहां बैकग्राउंड है नक्सलवाद का. एक नक्सली और एक महिला के रिश्ते के बीच के तनाव पर फ़िल्म है.

गैर तेलुगु लोगों द्वारा बनाई गईं तेलुगु फ़िल्में

अब हम आते हैं तमिल सिनेमा पर. तमिल सिनेमा में समानान्तर सिनेमा उस तरीके से नहीं आया. उसका एक बड़ा कारण शायद यह था कि तमिल सिनेमा में जाति के खिलाफ़ फ़िल्में बनाने की बड़ी पुरानी परंपरा है.

वह यहाँ के द्रविण आन्दोलन के कारण था. करुणानिधि फ़िल्मों के बहुत सफल पटकथा लेखक थे. ये लोग द्रविण आन्दोलन और पेरियार की ‘जस्टिस पार्टी’ की पैदाइश थे.

इसलिए यहाँ की फ़िल्मों में कितना ही मेलोड्रामा हो, रोना, गाना, डांस, कितना भी हो लेकिन जाति के खिलाफ़ एक धारा इन फ़िल्मों में जरूर रही है.

इस सन्दर्भ में हिंदी फ़िल्मों में तो सन्नाटा ही रहा है. ‘सुजाता’, ‘अछूत कन्या’, जैसी दो–चार फ़िल्मों को छोड़ दें, तो ‘मुख्य धारा’ की हिंदी फ़िल्मों के लिए आज भी यह विषय एक ‘टैबू’ बना हुआ है.

लेकिन तमिल में यह परम्परा बनी रही है और आज भी जारी है लेकिन वहां पर समानान्तर सिनेमा का ऐसा कोई बड़ा मूवमेंट नहीं रहा है.

लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां पर समानान्तर सिनेमा की जो पहली फ़िल्म मानी जाती है, वह मलयालम के मशहूर फ़िल्मकार जान अब्राहम ने ही बनाई थी.

‘डंकी इन दि ब्राहमन विलेज’

अंग्रेजी में उसका अर्थ होगा- ‘डंकी इन दि ब्राहमन विलेज.’ ये फ्रांस के मशहूर फ़िल्मकार ब्रेस्सा (Robert Bresson) की एक फ़िल्म (Au Hasard Balthazar) से प्रभावित है.

कहानी कुछ यूं है- एक गधा ब्राह्मणों के गांव में आ जाता है.

पहले ब्राह्मण उसे अपशकुन मानते हैं, उसको मार देते हैं, बाद में जब गांव पर विपत्ति टूटती है तो उनको लगता है कि गधे को मारने से ही विपत्ति टूटी है, तो ब्राह्मण उसे देवता बना देते हैं, उसकी पूजा करने लगते हैं, तो इस तरह यह ब्राह्मणों के पाखंड पर एक जबर्दस्त व्यंग्य (सटायर) है.

अब हम तेलुगु में आते हैं. तेलुगु में एक दिलचस्प चीज़ है – तेलुगु में समानान्तर सिनेमा की जो फ़िल्में बनी हैं, वो अधिकांशतः गैर तेलुगु लोगों ने बनाई हैं.

यहां पहली समानान्तर फ़िल्म बंगाल के प्रसिद्ध फ़िल्मकार मृणाल सेन ने ‘कफ़न’ (1977) नाम से बनाई. यह फ़िल्म इसी नाम की प्रेमचंद की एक कहानी पर आधारित है.

श्याम बेनेगल की तेलुगु फ़िल्म ‘अनुग्राहम’

हिंदी के मशहूर फ़िल्म डायरेक्टर श्याम बेनेगल ने यहां तेलुगु में ‘अनुग्राहम’ बनाई. बंगाल के ही एक और मशहूर फ़िल्म डायरेक्टर गौतम घोष ने इसी समय तेलुगु में ‘मां भूमि’ बनाई, जो तेलंगाना के आन्दोलन पर आधारित थी, इसे उन्होंने उसी समय हिंदी में भी बनाया. इस फ़िल्म में तेलंगाना आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित किया गया है. बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है.

इसके बाद बड़ा नाम ‘बी. नरसिम्हाराव’ का है, उन्होंने ‘दासी’, ‘माटी-मानुशुल’ बनाई. ओमपुरी को लेकर उन्होंने एक फ़िल्म ‘अंकुरम’ नाम से बनाई. हालांकि ये थोड़ी बाद की फ़िल्म है.

हिंदी सिनेमा पर समानांतर सिनेमा और नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव

हिंदी पर आते हैं. तकनीकी रूप से देखें तो 1966 में बनी ‘भुवन शोम’ (मृणाल सेन) और 1969 में बनी ‘उसकी रोटी’ (मणि कौल) से समानांतर सिनेमा की शुरुआत मानी जा सकती है.

लेकिन नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद आप देखेंगे तो बड़ा नाम ‘श्याम बेनेगल’ और ‘गोविन्द निहलानी’ का आता है. श्याम बेनेगल ने 73 में ‘अंकुर’ बनाई. इस फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी ‘गोविन्द निहलानी’ ने की थी.

संवाद ‘सत्यजीत दुबे’ ने लिखा था. फिर 75 में ‘निशांत’ आयी. इसे ‘विजय तेंदुलकर’ ने लिखा था. संवाद फिर से सत्यजीत दुबे ने लिखा. ‘अंकुर’ नक्सल आन्दोलन से सीधे प्रभावित थी.

गांव में दलित का, विशेषकर दलित महिला का जो शोषण है, उसे यहां दिखाया गया है. अंतिम दृश्य बहुत ही ख़ास है. 2013 में आयी ‘नागराज मंजुले’ की मराठी फ़िल्म फ़ैड्री (Fandry) यदि आप देखेंगे तो इससे रिलेट कर पाएंगे. फ़ैड्री (Fandry) के अंतिम दृश्य में बच्चा सीधे ढेला मारता है, जो कैमरे के लेन्स पर जाकर लगता है.

यह उसका प्रतिरोध है. ठीक ऐसे ही ‘अंकुर’ के आख़िरी दृश्य में शबाना आजमी का छोटा बच्चा, उस सामंत को ढेला मारता है, जिसने उसकी मां का शोषण किया है. यहीं पर फ़िल्म ख़त्म हो जाती है. यह एक नयी चेतना थी. दिलचस्प है कि सत्यजीत रे ने बेनेगल की इस फ़िल्म पर लिखते हुए इसके अंत की आलोचना की है.

सत्यजीत रे ने फ़िल्म की तारीफ़ करते हुए लिखा कि अंत में बच्चा जो ढेला मारता है, वह कलात्मक नहीं है. वह नहीं होता तो फ़िल्म ज़्यादा महत्वपूर्ण होती. लेकिन यही अंतिम दृश्य तो नक्सलवाद की परंपरा से फ़िल्म को जोड़ता है, वरना तो यह फ़िल्म नक्सलवादी आन्दोलन के पहले भी बन सकती थी.

अच्छी फ़िल्में नक्सलवादी आन्दोलन के पहले भी बनी हैं लेकिन जो अंतर आ जाता है वह यह कि अब फ़िल्में एक ख़ास दिशा की ओर संकेत भी कर रही हैं.

तेलंगाना आन्दोलन में एक क्रूर सामंत का घर पूरा तबाह कर दिया गया था. उसी पर आधारित है ‘निशांत’ फ़िल्म. गिरीश कर्नाड अध्यापक हैं, गांव वालों को संगठित करते हैं. गांव वाले मिलकर उस क्रूर सामंत का पूरा किला ढहा देते हैं .

इसके बाद ‘गोविन्द निहलानी’ का नाम आता हैं. गोविन्द निहलानी की महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘हज़ार चौरासी की मां’ है, ‘आक्रोश’ है. विजय तेंदुलकर ने ही ‘आक्रोश’ की पटकथा लिखी थी.

इसके अलावा निहलानी की महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘पार्टी’ है. यह मराठी के ‘महेश एन्चुक्वार’ के एक नाटक पर आधारित है. पटकथा भी उन्होंने ही लिखा था. ‘पार्टी’ एक बेहतरीन फ़िल्म है और जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इन फ़िल्मों ने पहले से चली आ रही कई परिपाटियों को भी तोड़ दिया. जैसे की एक परिपाटी ये थी कि फ़िल्म में शुरुआत, मध्य (क्लाइमेक्स) और अंत होना चाहिए.

लेकिन ‘पार्टी’ फ़िल्म को आप कहीं से भी देखना शुरू कर सकते हैं. फ़िल्म एक ही रात की कहानी है. एक पार्टी चल रही है और पार्टी में मध्य वर्ग के लोग हैं. ज़्यादातर कला जगत के लोग हैं. वे किस तरह से पाखंड करते है, उसे बेहतरीन तरीके से यहां दिखाया गया है.

‘आर्ट सोसाइटी’ का एक तबका किस तरह से सत्ता के साथ नाभिनाल बद्ध है, उसे यहां बहुत ही बेबाक तरीके से दर्शाया गया है. इसमे अमित एक अनुपस्थित कलाकार है, लेकिन इसकी उपस्थिति पूरी फ़िल्म पर छायी रहती है.

अमित नक्सली है और कवि भी है. वह गांव में जाकर काम कर रहा है. अमित का दोस्त ओमपुरी इस पार्टी में आता है और बोलता है-

‘आप कलाकार के रूप में जीवित रहना चाहते हैं या मनुष्य के रूप में जीवित रहना चाहते हैं.’

मुझे लगता है कि यह सवाल आज हमारे सामने भी है. हम पहले मनुष्य है या कलाकार. आगे वह कहता है-

‘यदि मनुष्य हैं तो मनुष्य की पीड़ा के साथ जुड़ना पड़ेगा आपको. मनुष्य की पीड़ा, यानी बगल के गांव में जो हो रहा है, किसानों, नौजवानों का जो टार्चर हो रहा है वह मनुष्य के रूप में ही हो रहा है. कलाकार के रूप में जुड़ने से पहले आपको मनुष्य के रूप में उनसे जुड़ना होगा. तब जाकर आप का कलाकार जागृत होगा. यदि आप मनुष्य के रूप में जुड़ने से पहले, कलाकार के रूप में उन किसानों, नौजवानों से जुड़ेंगे तो आपकी रचना खोखली होगी.’

इसके बाद समाज में स्थापित माने जाने वाले साहित्यकार ‘बरवे जी’ अपनी आत्मालोचना करते हुए कहते हैं-

‘हमारे ख़ूबसूरत शब्दों में भूसा भरा हुआ है. हम तो इसलिए लिखते हैं कि लिखना है.’

इस तरह की बहस होती है इस साहित्यिक पार्टी में. बेहतरीन फ़िल्म है यह. इसे कई–कई बार देखने की ज़रूरत है. इसके बाद उनकी अगली फ़िल्म ‘आघात’ आयी, जो ट्रेड यूनियन संघर्ष के बारे में थी. इसे भी विजय तेंदुलकर ने ही लिखा था.

इस परंपरा में और भी बहुत सी फ़िल्में हैं. ‘एम. एस. सथ्यु’ की महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘गर्म हवा’ है, जो इसी दौरान आई थी. इसका अंतिम दृश्य अगर आप देखेंगे तो आपको एहसास होगा कि यह फ़िल्म अगर नक्सल आन्दोलन से पहले बनती तो शायद उसका अंत वह नहीं रहता.

यानी सईद मिर्ज़ा साहब जब बाध्य होकर पाकिस्तान जाने की जिद कर लेते हैं और जाने लगते हैं तो उन्हें रास्ते में मजदूरों का एक जुलूस दिखाई देता है. जुलूस में ‘इन्कलाब–जिदाबाद’ के नारे लग रहे हैं.

‘फ़ारुख शेख’ जो सईद मिर्ज़ा साहब का बेटा है, अपने पिता से बोलता है कि – हमको पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए. इस जुलूस में शामिल हो जाना चाहिए.’ अंत में दोनों पाकिस्तान जाने का इरादा छोड़कर उस जुलूस में शामिल हो जाते हैं.

आज के दौर में जो कलावादी लोग हैं, उनको लगेगा कि ये प्रोपेगेंडा है, कला को ऐसे नहीं होना चाहिए, कला को बहुत मुखर नहीं होना चाहिए, कला को मौन रहना चाहिए आदि, आदि. लेकिन उस समय की ‘सेंसिबिलिटी’ यही थी.

इसी तरह जब आप ‘जॉन फोर्ड’ की मशहूर फ़िल्म है ‘द ग्रेप्स ऑफ़ राथ’ (The Grapes of Wrath) का अंत देखेंगे तो आपको यहां भी प्रोपोगंडा लग सकता है. फ़िल्म के अंत में मुख्य पात्र अपनी मां से बोलता है-

‘मैं कम्यून में जा रहा हूं. कम्युनिस्ट पार्टी में जा रहा हूं क्योंकि मुझको मजदूरों–किसानों की लड़ाई लड़नी है.’

यह आन्दोलन का प्रभाव होता है कि वह रचनाकारों को खुल कर बोलना सिखाता है. जब आन्दोलन का प्रभाव नहीं रहता है तो लोग खुल कर बोलने से हिचकते हैं. उन पर ये दबाव रहता है कि अगर हम खुल कर किसानों-मजदूरों की राजनीति पर बोलेंगे तो हम पर यह आरोप लग जाएगा कि आप कला जानते ही नहीं हैं. आप तो प्रोपेगेंडा कर रहे हैं.

‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ सईद मिर्ज़ा की 1980 की फ़िल्म है. यहां भी अंतिम दृश्य में नसीरुद्दीन शाह, मजदूरों के आन्दोलन में, उनके साथ सीधे-सीधे शामिल हो जाता है. आज ऐसी फ़िल्में कोई बनाएगा तो इन दृश्यों से शायद परहेज़ करे. 1985 में प्रकाश झा की ‘दामुल’ आयी. क्या बेजोड़ फ़िल्म थी !

अंतिम दृश्य में दलित नायिका ‘लॉ एंड आर्डर’ को अपने हाथो में ले लेती है और हंसिया से गांव के क्रूर सामंत का गला काट देती है. खून स्क्रीन पर बिखर जाता है और फ़िल्म ख़त्म हो जाती है. यह फ़िल्म सीधे-सीधे नक्सल आन्दोलन की जो ‘सेंसिबिलिटी’ थी, जो विचारधारा थी, उसको सामने रखती है.

महिलाओं के संघर्ष पर ‘केतन मेहता’ की ‘मिर्च मसाला’ है. याद आती है – ‘कैथर कला की औरतें.’ अगर औरतें नक्सल आन्दोलन में नहीं लड़ी होती, तो ‘मिर्च मसाला’ भी नहीं बनती.

‘एक रुका हुआ फैसला’ बासु चटर्जी की फ़िल्म है. बासु चटर्जी भी बहुत चुप-चुप फ़िल्में बनाने वाले व्यक्ति हैं, जिनका पॉलिटिक्स से कोई सीधा लेना देना नहीं रहता है लेकिन ‘एक रुका हुआ फैसला’ मुखर फ़िल्म है.

यहां तमाम संवादों के बहाने न्यायपालिका के तमाम जातिवादी और वर्गीय पूर्वाग्रहों को उजागर किया गया है. हालांकि यह एक अंग्रेजी फ़िल्म ‘12 एंग्री मेन’, का एक तरह से रीमेक है लेकिन एक शानदार रीमेक है.

सईद मिर्ज़ा की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म है – ‘सलीम लंगड़े पर मत रो.’ इन्हीं की 1992 के दंगों पर बनी ’नसीम’ है. कुंदन शाह की ’जाने भी दो यारो’ भ्रष्टाचार पर जबरदस्त व्यंग (सटायर) है.

महेश भट्ट ने 1980 में ‘अर्थ’ बनाई. यह ‘नारी चेतना’ की एक बेहतरीन फ़िल्म है. इस दौरान अभिनय में भी काफी प्रयोग हुए. ‘अर्थ’ में शबाना आज़मी का अभिनय देखिये. जब शबाना आज़मी रोती है तो वह दरअसल रोती नहीं, रोने को दबाती है, रोने की फीलिंग को ‘supress’ करती हैं. इसका दर्शकों पर ज़बरदस्त असर होता है.

शबाना आज़मी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि मैंने उसे सचेत तरीके से किया था. शबाना आज़मी ने कहा- ‘मैं फ़टकर रो देती तो मैं दर्शकों को अपने साथ बहा ले जाती लेकिन मैं दर्शकों को बहा ले जाना नहीं चाहती थी. मैं अपनी स्थिति समझाना चाहती थी, इसलिए मैं अपना दुःख रोक रही थी, और जितना ज़्यादा मैं रोक रही थी उतना ज़्यादा वह प्रभावी हो रहा था.’

तो ये एक मोटा मोटी दृश्य है भारतीय सिनेमा का. निश्चित ही बहुत सारा छूट गया है, जिसके बारे में मुझे जानकारी नहीं है जैसे उड़िया सिनेमा आदि.

1960 से पहले डाक्यूमेंट्री यानी ‘दस्तावेजी फ़िल्मों’ में उतना काम नहीं था. ज़्यादातर सरकार के सहयोग से उसी तरह की डाक्यूमेंट्री बनती थी, जो पहले आप पिक्चर हाल में फ़िल्म शुरू होने से पहले देखते थे.

हालांकि इसी दौरान सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे लोगों ने कुछ अच्छी डाक्यूमेंट्री बनायी. मृणाल सेन ने ‘लेनिन’ पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी. लेकिन उसे राजनीतिक डाक्यूमेंट्री नहीं कह सकते. इस समय स्वतंत्र डाक्यूमेंट्री मेकर के रूप में जो बड़ा नाम आता है वह है ‘एस. सुखदेव’ का.

एस. सुखदेव नेहरु से बहुत प्रभावित थे. इन्होंने बहुत-सी फ़िल्में बनाई हैं. 1979 में उनकी मृत्यु हो गयी थी. वे अंत तक नेहरू के ही प्रभाव में रहे. फिर भी नक्सल आन्दोलन से पहले की उनकी फ़िल्में और नक्सल आन्दोलन के बाद की उनकी फ़िल्मों में आप एक खास अन्तर पाएंगे.

नक्सल आन्दोलन के बाद की उनकी एक फ़िल्म में वे बोलते है- ‘सिद्धार्थ तुमने एक बीमार को देखा, एक रोगी को देखा, एक बूढ़े को देखा तो तुमने दुनिया छोड़ दी, यहां आओ तो तुम्हें दिखेगा कि कितने बीमार हैं, कितने रोगी हैं, कितने बेसमय मर जा रहे हैं, अब तुम कहां जाओगे.’

सत्यजीत रे, एस सुखदेव जैसे लोग सीधे-सीधे नक्सल आन्दोलन से प्रभावित नहीं थे लेकिन चूंकि ये सच्चे कलाकार थे, इसलिए जब ये कलाकार असल जीवन को ‘कैप्चर’ करते थे तो उनकी फ़िल्मों में वह बदला हुआ यथार्थ आता ही था.

1970 के बाद डाक्यूमेंट्री फ़िल्म मेकिंग में जो सबसे बड़ा नाम है, वह है ‘आनंद पटवर्धन’ का. आनंद पटवर्धन सीधे–सीधे लैटिन अमेरिकन डाक्यूमेंट्री मेकर की तरह, फ़िल्में बनाना, फ़िल्मों को डिस्ट्रीब्यूट करना, और फ़िल्म को एक क्रांतिकारी हथियार की तरह इस्तेमाल करना, इसी कांसेप्ट (concept) के साथ फ़िल्म बनाते हैं.

उन्होंने जेपी आन्दोलन पर बेहतरीन फ़िल्म बनाई थी- ‘वेव्स ऑफ़ रेवोलुशन’ (Waves of Revolution). 1978 में ‘प्रिज़नर ऑफ़ कांसंस’ (Prisoners of Conscience) बनाई. उसमें ‘मेरी टायलर’ का एक इंटरव्यू है.

वह बताती हैं कि नक्सलियों को किस तरह से पकड़ा और टॉर्चर किया जाता था. एक घटना का जिक्र करती हुई वो कहती हैं कि एक गांव में एक नक्सली को टॉर्चर करते हुए ‘इलेक्ट्रिक शॉक’ दिए गए जबकि उस गांव में बिजली नहीं थी. यानी सरकार गांव में बिजली नहीं दे पा रही है लेकिन उसी गांव में नक्सलियों को ‘इलेक्ट्रिक शॉक’ दिया जा रहा है.

आनंद पटवर्धन की दूसरी खूबी यह है कि वह सोवियत रूस के ‘आइजेन्स्टीन’ (Sergei Eisenstein) के ‘मोन्ताज़ थियरी’ का ज़बरदस्त इस्तेमाल करते हैं. इसी फ़िल्म में जब आदिवासी क्रांतिकारी ‘किस्ता गौड’ को फांसी दी जा रही है तो दूसरे ही सीन में ‘रिपब्लिक डे’ परेड है. ड्रम बज रहा है, ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा’ गाया जा रहा है.

1985 में उनकी एक और डाक्यूमेंट्री फ़िल्म आई थी- ‘हमारा शहर.’ यह एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म है. फ्रेडरिक एंगल्स ने जिसे ‘सोशल वॉर’ कहा था, यह डाक्यूमेंट्री उसकी कहानी कहती है. यह ‘सोशल वॉर’ मुम्बई में कैसे चल रहा है, उसे यह फ़िल्म बेहतरीन तरीके से ‘कैप्चर’ करती है. इसमें ‘गोदरेज समूह’ के मालिक गोदरेज का एक इंटरव्यू है. गोदरेज कहते हैं-

‘इन सारे लोगों को फैक्ट्री में बुलाया जाय, काम करवाया जाय, और फिर पैक कर इनके घर भेज दिया जाय, इनको यहां रखने की ज़रूरत नहीं है. ये चूहे हैं, इनको इंसान की तरह रहने की आदत नहीं है.’

इसमें मुम्बई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर ‘जे एफ़ रिबेरो’ का भी एक इंटरव्यू है. जे.एफ़. रिबेरो बोलते हैं-

‘यदि इनको हम फुटपाथ से नहीं हटायेंगे, इनकी झुग्गी–झोपड़ियां नहीं तोड़ेंगे तो ये पहले हमारे सार्वजानिक जगहों पर कब्ज़ा करेंगे, फिर सड़क पर कब्ज़ा करेंगे, फिर एक दिन आपके हमारे घरों में आ जायेंगे, जैसे चीन और सोवियत रूस में हुआ.’

यह रिबेरो का बयान है ऑन कैमरा. ये ‘सोशल वार’ नहीं तो और क्या है. पूरी सीरीज है उनकी- ‘राम के नाम’, ‘युद्ध और शांति’, ‘हमारा शहर’, ‘जय भीम कामरेड’, ‘रीज़न’ आदि.

दूसरा महत्वपूर्ण नाम ‘संजय काक’ का है. वह 1986 से सक्रिय हैं. उनकी बहुत महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘रेड एंट ड्रीम’ ( Red Ant Dream) है. कश्मीर पर एक शानदार फ़िल्म ‘जश्ने आज़ादी’ बनाई. ‘रेड एंट ड्रीम’ ( Red Ant Dream) तो आज के नक्सल आन्दोलन पर है. यह सभी फ़िल्में उसी परंपरा में आती है, जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है. इसी समृद्ध परंपरा के कारण आज नए-नए फ़िल्मकार बेहद महत्वपूर्ण व उम्दा दस्तावेजी फ़िल्म बना रहे हैं.

अंत में फ़्रांस के मशहूर फ़िल्म समीक्षक, डाक्यूमेंट्री मेकर और ‘द सोसायटी ऑफ़ द स्पेक्टैकल’ (The Society of the Spectacle) के लेखक ‘गी दूबो’ (Guy Debord) की एक दिलचस्प व महत्वपूर्ण उद्धरण से मैं अपना यह लेख समाप्त करना चाहूंगा. उन्होंने लिखा है-

‘दुनिया को फ़िल्माने का काम बहुत हुआ, असल सवाल उसे बदलने का है.’

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