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नयन सुख नाम अपाहिज़?

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शशिकांत गुप्ते

एक अंधे और लंगड़े मित्र की कहानी का यकायक स्मरण हुआ। ये कहानी बचपन में पढ़ी थी।
कहानी में मित्रता निभाने के लिए प्रेरक संदेश है।
कहानी काल्पनिक ही होती है।
कहानी जो प्रेरक संदेश है, वह सिर्फ पुस्तकों में पढ़ने,सुनने और दूसरों को सुनाने तक ही सीमित रहता है।
इस संदर्भ में यह शेर प्रासंगिक है।
किताबों के दौर से तो कब के बाहर आ गए हम
अब हमें किताबें नहीं जिंदगी पढाती
है
इस शेर के प्रसिद्ध शायर हैं, गुलजार जिनका पूरा नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा” है
जिंदगी को गहराई से पढ़ने पर जहन में यथार्थ के दर्शन होते हैं।यथार्थ में पाव से लंगड़ा और जन्म से अंधा होने को अभिषाप कह सकतें हैं।
लेकिन जो आंखों से अंधे और नाम नयन सुख हो,और जो पांव से नहीं जहन से अपाहिज हो तो क्या किया जाए?
वर्तमान में उपर्युक्त मानसिकता ही सर्वत्र पाखंड को फैलने का कारण बन रही है।
आज बगैर पांव के झूठ की दौड़ को आँखों से अंधे सच समझ रहें हैं, और भ्रमवश इस दौड़ को सिर्फ निहार ही नहीं रहें हैं,बल्कि भूरी भूरी प्रशंसा भी कर रहें हैं।
उक्त कल्पनातीत कहानी में अंधा, लंगड़े को अपने कांधे पर बैठा कर संकट ग्रस्त स्थान से सुरक्षित स्थान ले जाने में सहयोग करता है।
आज के नयन सुख ने,लंगड़े को महंगाई,बेरोजगारी,आपसी सदाचार के विरुद्ध पनप रहे मानसिक वैमन्यस्ता,धर्मांधता,
आदि समस्याओं से दूर कथित अच्छेदिनों की सैर करवाने के लिए अपने कांधे पर बिठाया है।
अच्छेदिनों की ओर अग्रसर अंधे और लंगड़े को रास्ते में ही खड़े एक आम आदमी ने रोका।
रास्ता रोकने का कारण पूछने पर आम आदमी ने कहा,अपने जैसे औसाद आदमी के अच्छेदिन कभी भी आने वाले नहीं हैं।
अच्छेदिन सिर्फ चंद लोगों के आ भी गए हैं, और वे “अ”वेध रूप से विदेशों में मौज मस्ती के साथ सैर सपाटा कर रहें हैं।
सिर्फ विज्ञापनों में कैद अच्छेदिनों की सैर हवा हवाई सैर ही साबित हो रही है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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