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जनादेश का अपमान है एनडीए सरकार

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लाल बहादुर सिंह

अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने कभी कहा था कि लोग 2024 का वैसे ही इंतज़ार कर रहे हैं जैसे कभी 1947 का कर रहे थे। 4 जून को चुनाव परिणाम आने के साथ वह इंतज़ार खत्म हो गया। देश ने राहत की सांस ली है। मोदी-शाह के एकछत्र अधिनायकवादी शासन का अंत हो गया है। उनका दल बहुमत से 32 सीट पीछे रह गया है, पिछली बार की अपनी टैली से 63 सीट नीचे।

जनादेश की दिशा और सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है- जनता ने भाजपा को बहुमत से नीचे धकेलकर सत्ता से बाहर जाने का रास्ता दिखाना चाहा था- लेकिन वह अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका, आधे रास्ते रुक गया। चुनाव नतीजों ने एक अनिश्चितता भरे नए राजनीतिक माहौल को जन्म दे दिया है।

चुनाव नतीजों के कुछ सन्देश बिल्कुल स्पष्ट हैं। सबसे प्रमुख तो यह कि यह ब्रांड मोदी का पराभव है, यह उस मोदी मैजिक की पराजय है, जिसके नाम पर पूरा चुनाव लड़ा गया था।

मोदी जी भले तीसरी बार शपथ लें, सच्चाई यह है कि 400 पार का नारा देने के बाद 250 सीट से भी नीचे, बहुमत के आंकड़े से 30 सीट पीछे रह जाना उनकी भारी नैतिक और राजनीतिक पराजय है। वस्तुतः जनादेश मोदी-शाह के फासिस्ट राज से निजात पाने के लिए है, तकनीकी दृष्टि से भले ही वे नीतीश कुमार और नायडू जैसों के बल पर सरकार बना लें।

जनादेश मोदी के विरुद्ध है, इसे वाराणसी में मोदी के शुरुआती चक्रों में कांग्रेस प्रत्याशी से पिछड़ने (जिनमें कर्मचारियों के पोस्टल बैलट भी शामिल थे) और फिर 2019 के 5 लाख से ऊपर के अंतर की जगह इस बार मात्र 1 लाख से ऊपर के तुलनात्मक रूप से सामान्य अंतर से जीत से भी समझा जा सकता है।

सच तो यह है कि जनता ने जिस तरह मोदी को अस्वीकार किया है, नैतिकता का तकाजा है कि उन्हें स्वयं ही सरकार बनाने के दावे से पीछे हट जाना चाहिए था। बहरहाल मोदी-शाह जोड़ी ऐसी मर्यादाओं के लिए नहीं जानी जाती!

चुनाव का सबसे बड़ा सन्देश है कि हिंदुत्व की राजनीति को जनता ने खारिज कर दिया है। अयोध्या, काशी, मथुरा का उत्तरप्रदेश जो पिछले एक दशक से हिंदुत्व की राजनीति का सबसे बड़ा दुर्ग बना हुआ था, वहां जनता ने भाजपा को दूसरे नंबर की पार्टी बना दिया है और उसके वोटों और सीटों में भारी गिरावट हुई है। यह तब हुआ है जब हिंदुत्व के सिरमौर मोदी और योगी दोनों ने चुनाव प्रचार के दौरान ध्रुवीकरण को हवा देने में कुछ भी उठा नहीं रखा। जिस अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के बहाने साम्प्रदायिक उन्माद की लहर पैदा कर भाजपा ने पूरे देश में चुनावी वैतरणी पार करना चाहा था, उस अयोध्या में ही वह खेत रही। जाहिर है उस क्षेत्र की जनता ने जिसमें निर्विवाद रूप से अधिसंख्य हिन्दू ही थे, उन्होंने उसकी साम्प्रदायिक उन्माद की राजनीति को नकार दिया। दरअसल अयोध्या फैज़ाबाद के आसपास की सारी सीटें-बस्ती, अम्बेडकरनगर, सुल्तानपुर, बाराबंकी, अमेठी, रायबरेली, आजमगढ़, जौनपुर-सब भाजपा हार गई।

दरअसल यह चुनाव मोदी के चरम नफरती भाषणों के लिए भी याद किया जाएगा, जिसके लिए कोई निष्पक्ष संवैधानिक संस्था होती तो उन्हें सजा मिलती। मोदी ने तो ध्रुवीकरण को ही अपनी मुख्य थीम ही बना लिया था। उनके लगभग सारे भाषण इसी पर केंद्रित होते थे। लेकिन नतीजे से साफ है कि जनता ने इसे पसन्द नहीं किया। जिस बाड़मेर में उन्होंने घुसपैठिये और अधिक बच्चे पैदा करने वालों का जिक्र करते हुए hate speech दी थी, वे सीटें भी वे हार गए।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपनी पुरानी जीती 92 सीटें इस बार खो दी। भाजपा की 240 की टैली भी तब है जब एक नए इलाके ओडिशा में उन्हें अप्रत्याशित 19 सीटें (और राज्य विधानसभा में बहुमत) हासिल हो गई।  पश्चिम भारत और हिंदी पट्टी के अपने गढ़ों में भाजपा के मतों में क्रमशः 14.4% तथा 2.3% की गिरावट हुई है, वहीं इंडिया गठबन्धन के मतों में इन्हीं इलाकों में 12.4%, तथा 11.2% की वृद्ध हुई है।

इस चुनाव में rural distress और किसान आंदोलन द्वारा उसको दी गयी राजनीतिक दिशा का असर साफ देखा जा सकता है। ग्रामीण भारत में भाजपा 2019 की 236 सीटों से 71 घटकर 165 सीटों में सिमट गयी, जबकि कांग्रेस 31 सीटों से बढ़कर 75 पर पहुंच गई। किसान आंदोलन के गढ़ों में उसे भारी धक्का लगा है। पंजाब में तो वह पूरी तरह साफ हो गयी है। हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी उसे भारी धक्का लगा है। हिंदी पट्टी से दो शीर्ष किसान नेता राजाराम सिंह और अमरा राम संसद पहुंचने में सफल हुए हैं।

मोदी को नीतीश, नायडू की सहमति से पुनः NDA का नेता चुन लिया गया है और वे PM पद की शपथ लेने जा रहे हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस नायडू ने 2019 में मोदी की हटाने के लिए राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की जोड़तोड़ की कोशिश की थी और 2023 में जिस नीतीश कुमार ने यही प्रयास किया था, उन्हीं दोनों किरदारों के ऊपर आज मोदी की तकदीर निर्भर हो गयी है! मोदी के साथ नीतीश और नायडू का गठबन्धन बेमेल है।

त्रिशंकु लोकसभा के कारण 10 साल बाद

देश में एक बार फिर गठबन्धन सरकार का दौर लौट आया है। स्वाभाविक रूप से राजनीतिक अस्थिरता और मध्यावधि चुनाव की संभावना इसमें अंतर्निहित है। जिस नायडू और नीतीश कुमार पर मोदी अपनी सरकार चलाने के लिए निर्भर हैं, वे बेहद घुटे हुए राजनेता हैं, अपने समर्थन की भारी कीमत वसूलेंगे। सर्वोपरि कई crucial मसलों पर जैसे मुस्लिम आरक्षण, अग्निवीर योजना, CAA कानून, UCC, जाति जनगणना आदि पर उनकी राय अलग है। दरअसल इन दोनों ही नेताओं का मुस्लिम समुदाय के बीच आधार है और कुल मिलाकर वे सेक्युलर credentials के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में भाजपा अपने कई core issues पर समझौता करके और समर्पण करके ही सरकार चला सकती है। ऐसे में एकछत्र राज के आदी मोदी-शाह सरकार के इकबाल का क्या होगा?

चुनाव की एक विशेषता यह भी रही कि लंबे अंतराल के बाद हिंदी पट्टी से 3 कम्युनिस्ट सांसद सदन में होंगे। भाकपा माले ने पहली बार बिहार की 2 सीटों पर जीत दर्ज की है, उनमें से एक सीट आरा उसने 35 साल पहले IPF के बैनर पर जीता था। उसे पुनः हासिल करने के अलावा पार्टी ने काराकाट की नई सीट पर भी इस बार कब्जा किया है। आरा सीट से सुदामा प्रसाद ने पूर्व गृह सचिव और 2 बार से वहां के सांसद व मोदी सरकार में मंत्री आर के सिंह को 5 लाख से ऊपर मत हासिल कर पराजित किया, वहीं काराकाट में राजाराम सिंह ने भोजपुरी फिल्मों के कलाकार पवन सिंह और उपेन्द्र कुशवाहा को 1लाख से अधिक वोट से हराया। माकपा के अमरा राम ने राजस्थान की सीकर सीट पर जीत हासिल की है। अच्छी बात यह भी है कि ये तीनों कम्युनिस्ट नेता किसानों-गरीबों के तपे-तपाये नेता हैं, साथ ही तीनों का विधायक के बतौर लम्बा विधानसभा का अनुभव भी है। इस बार संसद में कुल 9 वाम सांसद होंगे।

उम्मीद है किसानों, युवाओं, समाज के वंचित तबकों के बीच जो आकांक्षाएं जागृत हुई हैं,  उन्हें फलीभूत करने के लिए वे सड़कों पर उतरेंगे और नई सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों और कदमों के खिलाफ़ जनमुद्दों पर आने वाले दिनों में बेमेल गठबन्धन सरकार के खिलाफ जनांदोलनों की नयी लहर देखने को मिलेगी।

आशा की जानी चाहिए कि देश में जनता के नए लोकतांत्रिक उत्साह के माहौल, विपक्ष की बढ़ी हुई संसदीय ताकत तथा बैसाखियों पर निर्भरता के कारण अब भाजपा-आरएसएस अपना कोई खतरनाक फासीवादी एजेंडा देश पर थोपने में सफल नहीं हो पाएंगे।

 (लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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