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कामगारों और शिक्षकों में अंतर समझने की जरूरत

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हेमन्त कुमार झा

एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

आज से पंद्रह-सोलह वर्ष पहले, संभवतः 2007 के दौरान बिहार में एक कोई केके आए थे. आज वाले के के पाठक नहीं, वे कोई और थे. तमाम अखबार वाले उन्हें ‘केके’ कह और लिख कर ही संबोधित करते थे इसलिए उनका वही शॉर्ट नाम याद आ रहा है. तत्कालीन गवर्नर साहब के शिक्षा सलाहकार टाइप की कोई चीज बन कर वे बिहार आए थे. सुना है, पूर्व में किसी निजी विश्वविद्यालय में किसी पद पर थे वे.

तो, बिहार आते ही यहां की उच्च शिक्षा की दुर्दशा देख उनकी आत्मा जाग उठी और वे नालंदा, विक्रमशिला वाले पुराने बिहारी गौरव को फिर से जगाने हेतु पिल पड़े. अब जब, यह बिहार है तो बाहर से आए किसी भी पदाधिकारी को यह विशेषाधिकार मिल जाता है कि वह यहां के शिक्षकों, कर्मचारियों, विश्वविद्यालय से जुड़े हाकिमों आदि को अकर्मण्य और कामचोर समझ कर ही अपनी भावी कार्य योजनाएं तय करे. केके ने भी इसी विशेषाधिकार और विशेष मनोविज्ञान के साथ बिहार में कदम रखने की कृपा की थी.

आते ही वे अपने प्रिय शगल निरीक्षण, बोले तो औचक निरीक्षण, में जुट गए. आज सुबह की पाली में इस कॉलेज, दोपहर में उस कॉलेज, संध्या काल में किसी और कॉलेज और… कल फिर किसी और जिला के कॉलेजों की लिस्ट लेकर सुबह सुबह ही पुनः तत्पर.

शानदार, एयरकंडीशंड एसयूवी गाड़ी पर सवार केके जिधर निकलते, उस इलाके के कॉलेजों के प्रिंसिपल, प्रोफेसर आदि के मोबाइल घनघनाने लगते. सब एक दूसरे को सतर्क करने लगते कि केके की गाड़ी गुजरी है. कल हो कर अखबारों में खबरों के शीर्षक होते, ‘फलां कॉलेज में छात्रों की कम उपस्थिति देख बुरी तरह भड़के केके’…’तीन प्रोफेसर बिना सूचना के एब्सेंट पाए गए तो बिफर उठे केके’…’फलां कॉलेज के प्रिंसिपल को जम कर फटकार लगाई केके ने’ आदि आदि.

केके अक्सर उन कुलपतियों को अपने काफिले में बुला लेते थे जिनके क्षेत्राधिकार वाले कॉलेजों में उन्हें औचक निरीक्षण के लिए जाना होता था. इससे उनका रुतबा बढ़ता था कि देखो, वाइस चांसलर इसके पीछे पीछे चल रहा है. बिहार को नालंदा-विक्रमशिला लौटाने की जिद ठान चुके केके को तत्कालीन गवर्नर सह चांसलर ने ‘फ्री हैंड’ दिया बताते थे.

कई पत्रकार बंधुओं के तो मन खिल उठे. एक से एक शीर्षक देकर अपने अखबारों में केके के कॉलेज निरीक्षण अभियान की ऐसी चुटीली, रपटीली, कंटीली खबरें लिखते थे कि पब्लिक को मजा आ जाता था, ‘आब सब परफेसरवन के बुझाई…!’

एक बार किसी निजी पारिवारिक समारोह में जाने के लिए केके साहब ने कुछ दिनों की छुट्टी ली और बिहार से बाहर चले गए. शायद आठ-दस दिनों के लिए. शिक्षा देखने वाले पत्रकारों को इस दौरान मन ही नहीं लगता था, शिक्षा की खबरों वाले अखबारी पेज सूने-सूने से हो गए थे.

छुट्टियां खत्म कर केके वापस आ गए. अखबार वालों ने तफसील से बताया कि वे किस फ्लाइट से कितने बजे पटना एयरपोर्ट पर उतरे, किस गाड़ी से वापस लौटे और अब आगे की उनकी क्या क्या कार्रवाइयां संभावित हैं. पटना के एक प्रमुख अखबार के शिक्षा संवाददाता ने फ्रंट पेज पर अपनी खबर का शीर्षक डाला, ‘प्रोफेसर साहब सावधान, केके का फिर चलेगा अभियान.’

बिहार का उच्च शिक्षा जगत फिर गुलजार हुआ. इस बार केके किंचित अधिक गंभीर, अधिक आक्रामक थे. अबकी बार के पहले ही औचक निरीक्षण में उन्होंने नालंदा जिला के दो या शायद तीन कॉलेज प्रिंसिपलों को सस्पेंड कर दिया. उन्हें तो एक चपरासी को भी सस्पेंड करने का अधिकार नहीं था तो घुमाने के लिए साथ लिए गए कुलपति महोदय किस काम आते ?

फिर तो, बिहार के कई कॉलेज प्रिंसिपल इस तरह सस्पेंड कर दिए गए जैसे औचक निरीक्षण में निकला कोई आईजी-डीआईजी इस थाना और उस ओपी के दारोगा-जमादार आदि को सस्पेंड करता चलता है. अब तो केके के रुतबे के क्या कहने. अखबार वाले उछलते, किलकते शब्दों में सस्पेंशन की खबरों को ऐसे परोसते कि लगता कि बस, अब सूर्योदय होने को ही है क्योंकि अंधेरों की जिम्मेदार रात्रि पर उजालों की किरणों का आक्रमण जो हो चुका है.

लेकिन, यहां थोड़ी बहुत गड़बड़ होने लगी. केके के अति अपमानजनक रवैया से प्रिंसिपलों, प्रोफेसरों की जमात में असंतोष फैलने लगा. वह पीढ़ी अभी रिटायर नहीं हुई थी जिसने कठिन तपस्या और संघर्षों से अपनी और अपने पद की गौरव-गरिमा के साथ ही अपने अधिकार कई चरणों में कई सरकारों से हासिल किए थे. वे महज सुविधाभोगी, रीढ़विहीन जंतु ही नहीं थे. उन्होंने आवाजें उठानी शुरू कर दी.

अब माहौल में थोड़ी गर्माहट आने लगी. स्थानीय किसी निकट शुभेच्छु ने केके को समझाया, ‘ई बिहार बा, तनी संभल के चलीं, रौआ के साथ एतनी पुलिसवन से ही काम न चली.’ केके पहले थोड़े डरे, फिर संभले और फिर तन कर खड़े हुए. जो गवर्नर का आदमी है उसे क्या डरना और उसे पुलिसवालों की क्या कमी !

अब, दृश्य यह था कि आगे आगे केके की गाड़ी, उनके पीछे किसी न किसी विश्वविद्यालय के कुछेक हाकिमों की गाड़ियां और सबसे पीछे एक बड़ी वैन, या कहें मध्यम साइज की बस में सीआरपीएफ या इसी तरह के किसी अर्द्ध सैनिक बल की भारी भरकम टुकड़ी. जिस भी कॉलेज कैंपस में केके का काफिला पहुंचता, उनके गाड़ी से उतरने के पहले ही बस से अर्द्ध सैनिक बल के जवान कूद पड़ते और पोजिशन लेने लगते. फिर तो ऐसा समां बंधता कि ऊपर कहीं से इस मनोहारी, बौद्धिक, सांस्कृतिक दृश्य को देखते देवगण पुष्पवर्षा करने को उत्साहित हो उठते.

लेकिन, माहौल में अब कुछ कुछ ट्विस्ट आने लगा था. मुए पत्रकार किसी के हुए हैं क्या ? सेटिंग गेटिंग की विधा में देश में अपनी ऊंची रैंकिंग रखने वाले कुछेक बिहारी प्रिंसिपलों और हाकिमों से केके की तथाकथित अतिरिक्त नजदीकी की खबरें भी हवाओं में फैलती, अखबारों के पन्नों पर रहस्यमयी चुगलियां करती तैरने लगीं. कुछ पत्रकारों से भी उनकी नजदीकियां बढ़ने की खबरें आती रहती थी जो अक्सर ‘एक्सक्लूसिव’ खबरें दे कर केके का मान बढ़ाते थे और किसी कॉलेज या उसके प्रिंसिपल या यूनिवर्सिटी के किसी पदाधिकारी की मिट्टी पलीद कर देते थे.

एक दौर था उन केके साहब का. क्या रुतबा था ! उन दिनों जो पीढ़ी जवान हो रही थी उनमें से कुछ लोगों ने जरूर यह स्वप्न पाला होगा कि अफसर, डॉक्टर में क्या रखा है, मुझे तो केके बनना है.

बहरहाल, दौर तो होते ही हैं करवटें बदलने के लिए. एक दिन उस दौर ने भी करवट ली जिसमें केके कहीं बिला से गए. तरह तरह की चर्चाएं, तरह तरह के कयास. कोई कहता कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें बहुत डांटा, कोई कहता कि उनके तानाशाही वाले व्यवहार ने उनके अभियान को भोथरा कर दिया, कोई कुछ कहता, कोई कुछ. खैर, केके फिर बिहार में नजर नहीं आए. अगर नजर आए भी तो खबरों में तो बिल्कुल नहीं आए.

केके एक ऐसे वृत्तांत की तरह बिहार के उच्च शिक्षा जगत में अगले कुछ वर्षों तक याद किए जाते रहे जिनकी चर्चा कर लोग हंसते. वे उदाहरण बने कि शिक्षकों के सम्मान से खिलवाड़ कर, उनके साथ अपमानजनक व्यवहार कर, संस्थाओं को जन वितरण प्रणाली की दुकान समझ कर, इंस्पेक्टर राज कायम कर शिक्षा, शिक्षार्थी, शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों का भला नहीं हो सकता.

शिक्षा एक संवेदनशील मसला है और इसका बाकायदा शास्त्र है, जिसका नाम शिक्षाशास्त्र है. नौकरशाही के फरमानों से और इंस्पेक्टर राज से शिक्षा में सुधार आना होता तो यह तो बहुत आसान तरीका है लेकिन अफसोस, चीजें इतनी आसान नहीं होती.

आजकल, स्मार्टफोन और यूट्यूब का जमाना है. कितना आसान हो गया है कोई वीडियो बनाना और उसे सोशल मीडिया पर डाल देना.
तो, इधर कुछ महीनों से अक्सर एक खास तरह के वीडियो दिखते हैं. हैंडीकैम से शूट किए गए, मोबाइल से शूट किए गए.

बड़ी साइज की चमकती एसयूवी गाड़ियों का काफिला अचानक से किसी अलाने गांव के किसी फलाने उत्क्रमित विद्यालय के कैंपस में घुसता है. चुइं…चुइं..करती, माहौल में उत्तेजना भरती गाड़ियां रुकती हैं, हाकिमों के उतरने के पहले गाड़ियों से कूद कर वातावरण को भयाक्रांत करते पुलिस वालों की बूटों की धमक, अचानक से बुरी तरह सहम से गए शिक्षक, अचानक से देह में झुरझुरी पैदा कर देने वाले कौतूहल से घिरे बच्चे, अचानक से हैरान, परेशान, हलकान प्रभारी हेडमास्टर.

वाया नियोजित शिक्षक, शिक्षामित्र से प्रभारी हेडमास्टर बनने की लंबी यात्रा तय चुका वह अचानक से अपने चारों ओर डीईओ, डीपीओ, एसडीएम, डीएम, एसपी के साथ काले चश्मे में एक बड़े साहब को देखता है जो सामने खड़े हेडमास्टर से बातें करते हैं लेकिन उसे देखते नहीं, उनकी नजरें सामने खड़े आदमी से अधिक पूरे माहौल को टटोलती रहती हैं. वे कैंपस में घूमते हैं, डांटते हैं, मुस्कुराते हैं, कुछ प्रिय, कुछ अप्रिय बोलते हैं फिर अपनी गाड़ियों पर सवार हो जाते हैं.

काफिला निकल पड़ता है…एक गाड़ी निकली, फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी, फिर पांचवीं…और इन सबसे आगे किंचित डरावने स्वरों में कुइं कुइं की जोर जोर से आवाज निकालते सायरन वाली, लाल नीले रंगों के बल्बों से भुक भुक करती पुलिस की गाड़ी. ठहरी सांसों और विस्फारित आंखों से तमाशा देखते स्कूल के अगल बगल के लोग. ओझल होती गाड़ियों और गुम होती सायरन की आवाज के साथ लोगों की चेतना लौटती है और वे मुग्ध भाव से अपने स्कूल के मास्टर-हेडमास्टर की फजीहत पर मुदित होते, आपस में चर्चा करते अपनी राह लेते हैं.

साहबों के अपने अपने दौर होते हैं और दौर तो होते ही हैं बदलने के लिए. हर दौर की अपनी कहानियां, अपनी अच्छाइयां, अपनी उलझनें होती हैं. ये वाले साहब, जिनके नाम में भी संयोग से केके ही है, इन मायनों में अलग हैं कि ये किसी पत्रकार तो क्या, किसी जनप्रतिनिधि तक को अपने पास फटकने नहीं देते. बड़ी बात ये है कि इनकी ईमानदारी की कसमें स्वयं मुख्यमंत्री खाते हैं. यह अलग बात है कि बोलने, बिगड़ने की रौ में अक्सर वे आत्म संतुलन खो देते हैं और बेहद संभ्रांत स्वरों में उच्चरित होती गालियों के एकाध शब्द वाया मोबाइल वीडियो जगत में व्याप जाते हैं.

लोग कहते हैं, अखबारों में छपता है कि मास्टर जी लोग पहले से ज्यादा आने लगे हैं, बच्चे पहले से ज्यादा आने लगे हैं, स्कूलों के बाथरूम और उनकी चारदीवारियां पहले से साफ दिखती हैं, हर महीने परीक्षा होती है, उनकी रिपोर्ट जाती है, कमजोर बच्चे चिह्नित होते हैं, उनके लिए मिशन दक्ष नाम का एक स्पेशल प्रोग्राम चलता है, सुबह पौ फटते ही दौड़ते हांफते स्कूल की राह धरते प्रभारी जी शाम का अंधेरा घिरने पर वीडियो कांफ्रेंसिंग में दिन भर की प्रगति बताते हैं आदि आदि आदि.

बात रही कि शिक्षा और शिक्षण के साथ उपलब्धि और अधिगम में क्या प्रगति हुई तो यह कौन बता सकता है ? लकीरें पीटने से इतिहास की इबारतें थोड़े ही लिखी जाती हैं. शिक्षा को अगर इंस्पेक्टर राज और फरमान दर फरमान से ही सुधरना होता तो फिर बात ही क्या थी. फिर, शिक्षा शास्त्र और शिक्षा शास्त्रियों की जरूरत ही क्या थी. फिर शिक्षकों के साथ सिस्टम के संवेदनशील और जटिल मनोवैज्ञानिक संबंधों की व्याख्याओं और इन पर लिखी किताबों की जरूरत ही क्या थी, फिर प्लास्टिक फैक्ट्री के कामगारों और विद्यालय के शिक्षकों में अंतर समझने की जरूरत ही क्या थी !

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