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जैसे-जैसे लोकतंत्र खत्म किया जा रहा है, नेहरू और ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं

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कृष्ण कांत

मैं पत्रकार क्यों बना ? क्योंकि इस बात ने मुझे बहुत आकर्षित किया कि एक पत्रकार सीधा प्रधानमंत्री से सवाल कर लेता है, बड़े-बड़े नेताओं को लताड़ देता है. पत्रकार जनता की आवाज होता है, ये बात मुझे बड़ी भली लगी थी.

आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं तब देख रहा हूं कि त्रिपुरा में ग्राउंड रिपोर्ट करने गईं दो महिला पत्रकारों को पुलिस ने रिपोर्ट करने से रोक दिया और हिरासत में ले लिया. आज मैं देख सकता हूं कि सरकार से तीखे सवाल करने वाले पत्रकारों के लिखने की जगहें खत्म कर दी गई हैं.

पिछले कुछ सालों से अगर आपने गौर किया हो तो लोकतंत्र की समझ रखने वाले लोग नेहरू को ज्यादा शिद्दत से याद करने लगे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत का लोकतंत्र कई वर्षों में कतरा-कतरा गढ़ा गया था, जिसका पहला श्रेय नेहरू को है. आज उसे तेजी से खत्म किया जा रहा है तो लोग नेहरू को याद करते हैं. जैसे जैसे इस देश के लोकतंत्र को खत्म किया जा रहा है, नेहरू की प्रासंगिकता बढ़ रही है.

जब भी किसी सुंदर और महान चीज को नष्ट किया जाने लगे तो उसके निर्माताओं को याद किया जाता है. सौ साल के संघर्ष के बाद मिली आजादी ही काफी नहीं थी. एक ऐसे लोकतंत्र का निर्माण भी करना था, जिसमें कई धर्म, कई जातियां, कई भाषाएं और कई संस्कृतियों को एक साथ रहना था. भारत में दुनिया का सबसे सुंदर लोकतंत्र निर्मित हुआ था. लेकिन आज वह खतरे में है और इसलिए लोकतंत्र का हामी हर व्यक्ति नेहरू को शिद्दत से याद कर रहा है.

लोकतंत्र सिर्फ भाषण में घोषणा करने से नहीं बनता. लोकतंत्र में तमाम छोटे छोटे अनाम पुर्जे लगते हैं. जो उसे मजबूत बनाते हैं. लोकतंत्र सिर्फ कागज की पोथी से नहीं बनता, लोकतंत्र एक संसदीय परंपरा का नाम है, जहां कुछ भी असंसदीय या अभद्र नहीं हो सकता.

एक बार एक महिला ने संसद परिसर में नेहरू का कॉलर पकड़कर पूछा था, ‘भारत आज़ाद हो गया. तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला.’ इस पर नेहरू ने जवाब दिया, ‘आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं.’

कहते हैं कि महिला ने बंटवारे में अपना घर गवां दिया था. नेहरू के धुर विरोधी डॉ. लोहिया के कहने पर महिला संसद परिसर में आई और नेहरू जैसे ही गाड़ी से उतरे, महिला ने उनका कॉलर पकड़कर ये सवाल पूछा था. सोचिए क्या आज कोई बूढ़ी औरत या कोई नागरिक हमारे प्रधानमंत्री से कहीं से कोई सवाल पूछ सकता है ?

यह वही देश है. लोकतंत्र का करीब सात दशक बीत चुका है. एक विदेशी कंपनी कोर्ट गई है कि भारत सरकार नागरिकों पर निगरानी रखने का दबाव बना रही है, और ये फ्रीडम आफ स्पीच पर हमला है.

प्रधानमंत्री का कॉलर पकड़ने की आजादी से शुरू हुआ सफर यहां तक पहुंच गया है कि दो ​महिला पत्रकारों को रिपोर्ट करने की आजादी नहीं है. चारों तरफ से पाबंदियां थोपने की बेचैनी बढ़ रही है. महामारी के समय सरकार महामारी से नहीं निपट रही है. सही सूचनाएं नहीं दे रही है. सरकार पूरी ताकत लगा रही है कि कहीं सच न छप जाए.

नेहरू प्रधानमंत्री बने तो देश में कोई विपक्ष नहीं था. कहते हैं कि आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी, नेहरू छद्म नाम से अखबारों में अपनी सरकार के खिलाफ लेख लिखते थे ताकि आलोचना की लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित हो सके. उनके मंत्रिमंडल में उनके घोर विरोधी डॉ. आंबेडकर थे. जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके मंत्रिमंडल में थे.

उनकी धज्जियां उड़ा देने वाले लोहिया को वे चुपचाप बैठे घंटों सदन में सुनते रहते थे. सात दशक बाद इन लोकतांत्रिक परंपराओं को और आगे जाना था. लेकिन हम कहां पहुंच गए ? आज भारत का बच्चा बच्चा मीडिया संस्थानों के लिए कहता है कि ये सब बिके हुए हैं. खरीदा किसने है ? जाहिर है आज की हमारी मजबूत सरकार ने.

विपक्ष बनाने से शुरू हुए भारत का सफर विपक्ष मुक्त भारत तक पहुंच गया है. महान संस्कृतियां सिर्फ बनाई नहीं जातीं, बिगाड़कर विकृत भी जाती हैं. हमारी राजनीति हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति और परंपराओं को नष्ट कर रही है.

नेहरू की मौत के 55 बरस बाद भी हर बात के लिए उन्हें जिम्मेदार बताने का चलन है. यहां ​तक कि कुछ लोग फोटोशॉप के जरिये उनका चरित्र हनन करना नागरिक अधिकार समझते हैं. लेकिन आज प्रधानमंत्री समेत मौजूदा नेताओं और सरकारों की आलोचना ईशनिंदा है. यही लोकतांत्रिक निकृष्टता नेहरू को और बड़ा बनाती है.

भारत की आजादी का नायक गांधी है तो भारत के सुंदर लोकतंत्र को गढ़ने का काम नेहरू की अगुआई में हुआ था. जैसे-जैसे लोकतंत्र की खटिया खड़ी की जा रही है, नेहरू और ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं. आज की सियासत भारत की आत्मा के खिलाफ है. यह नफरत से भर गई है. यह सियासत जितना ही नीचे धंसेगी, गांधी और नेहरू और ज्यादा बड़े होते जाएंगे. आधुनिक भारत के शिल्पकार को नमन !

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साम्प्रदायिकता जितनी मजबूत होगी, जवाहरलाल नेहरू इतिहास में उतने ही महत्वपूर्ण होते जाएंगे क्योंकि इतिहास के पन्नों में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की सबसे प्रभावशाली जिद का नाम नेहरू है.

स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अपनी मौत तक नेहरू ने बार बार दोहराया कि  ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई राज्य सभ्य नहीं हो सकता.’  आज़ादी के बाद उन्होंने कहा, ‘यदि इसे खुलकर खेलने दिया गया, तो सांप्रदायिकता भारत को तोड़ डालेगी.’

उन्होंने कहा, ‘यदि कोई भी व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी अन्य व्यक्ति पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाने की कोशिश भी करेगा, तो मैं उससे अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक सरकार के प्रमुख और उससे बाहर दोनों ही हैसियतों से लडूंगा.’

जब कांग्रेस के अंदर कुछ हिंदूवादी तत्व सिर उठाने लगे तो यह कहने साहस नेहरू में था कि ‘यदि आप बिना शर्त मेरे पीछे चलने को तैयार हैं तो चलिए, वरना साफ कह दीजिए, मैं प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा लेकिन कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों से समझौता नहीं करूंगा. मैं अपनी हैसियत से इसके लिए लड़ूंगा.’

यह समझना आज ज्यादा आसान है कि गांधी ने देश की बागडोर नेहरू को ही क्यों सौंपी ? जिन्हें नेहरू और राहुल गांधी एक जैसे ही लगते हों उनसे तो कोई उम्मीद नहीं. जिन्हें आज़ादी आंदोलन की विरासत और मुजफ्फरनगर मार्का पाखंडपूर्ण धर्मनिरपेक्षता एक ही बात लगती हो, उनसे कुछ नहीं कहना लेकिन जो लोग गांधी, नेहरू, भगत सिंह, आज़ाद, बिस्मिल, अशफाक और लाखों कुर्बानियों के कर्जदार हैं और उस बलिदान का अर्थ समझते हैं, उन्हें यह ज़रूर समझना चाहिए कि अपनी विरासत से कृतघ्नता और गद्दारी बहुत महंगी पड़ेगी.

भारतीय संविधान का आदर्श चरित्र दुनिया की सबसे खतरनाक कीमत चुका कर हासिल किया गया है. इसका अपमान आपको कहीं का नहीं छोड़ेगा. नेहरू आज़ाद भारत का सबसे अहम किरदार इसीलिए बन गया क्योंकि भारतीय आंदोलन की विरासत को आगे बढ़ाने में यह एक नाम सबसे अहम रहा.

हमारे युवाओं को आज इतिहास के प्रति ईमानदार होने की जरूरत है. उन्हें यह समझना चाहिए कि इतिहास फर्जी फ़ोटो और वीडियो वायरल करने के लिए नहीं होता, इतिहास का सबसे बड़ा काम है भविष्य के लिए सबक सीखना. उन्हें नेहरू और पटेल की उस वचनबद्धता का साथ देना चाहिए कि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई राज्य सभ्य नहीं हो सकता.’

हमारी आज़ादी और लोकतंत्र की विरासत बहुत कीमती है, आज जिस पर संगठित हमले हो रहे हैं. यह लोकतंत्र आपका है, इसे बचाना आपकी जिम्मेदारी, आपका फर्ज है.

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