विजय शंकर सिंह
विदेश में जाकर अपने ही नागरिकों के सामने आत्ममुग्ध होकर स्वदेशी एनआरआई के दान और सरकारी धन से, एक बढ़िया इवेंट को संबोधित करना एक निजी डंका वादन तो हो सकता है, पर वह कोई सार्थक कूटनीति या विदेश नीति का सोपान नहीं हो सकता है। दुनिया का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष अपने विदेशी दौरे पर शायद ही ऐसे तमाशे करता हो, जैसे तमाशे हमारे प्रधानमंत्री जी अपने हर विदेश दौरे पर करते रहते हैं। इन तमाशों से विश्व राजनीति को नियंत्रित करने वाले बड़े देशों की बात तो थोड़ी परे रखिए, पहले अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ हमारे संबंध किस प्रकार से पिछले दस साल में ठंडे होते रहे हैं इस पर एक निगाह डाल लें।
पहले, पाकिस्तान की ही चर्चा करें जो एक घोषित शत्रु देश है। हालांकि लिखापढ़ी में वह कभी मोस्ट फेवर्ड नेशन भी रह चुका है। उससे तो हमारा संबंध अच्छा है ही नहीं और हम उससे और वे हमसे बेहतर संबंध रखने की इच्छा रखते हुए भी दोनों ही एक दूसरे से ऐसी पहल करते हुए कतराते है। इसका कारण पाकिस्तान में पाक सेना की भूमिका, जिसका दबाव लंबे समय से पाकिस्तान की सरकार पर रहा है।
एक कहावत भी बड़ी मशहूर रही है हर देश की सरकार एक सेना रखती है। जबकि पाकिस्तान की सेना एक सरकार रखती है। पाकिस्तान की आवाम भी अपने सेना की इस बेजा दखलंदाजी को पसंद नहीं करती है, पर राजनीतिक अस्थिरता और बौना राजनीतिक नेतृत्व सेना के चंगुल से निकलने के लिए फड़फड़ाता तो रहता है पर निकल नहीं पाता।
इधर हमारे यहां सत्तारूढ़ दल और उसके थिंक टैंक की अपनी सोच भी इस परस्पर रिश्ते के सामान्यीकरण में एक बाधा है। जिसकी पूरी राजनीति ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और पाकिस्तान विरोधी दृष्टिकोण पर टिकी है। साथ ही पाक प्रायोजित आतंकवाद, कश्मीर, पीओके आदि तो स्थाई पेंच हैं ही, जो रिश्तों के बीच तनाव शैथिल्यता के हर कदम को विफल कर देते हैं।
पाकिस्तान जो कभी अमेरिकापरस्त था और जिसके बारे में एक बात बराबर कही जाती रही है कि पाकिस्तान का वजूद ही अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के भरोसे है। वही पाकिस्तान आज चीन की गोद में बैठ गया है और अब चीन के चंगुल से निकलना उसका मुश्किल है लेकिन फिर भी उसकी कूटनीति का झुकाव अमेरिका की तरफ दिखता रहता है।
‘अस्त्युत्तर दिशी देवात्मनाम हिमालयो नाम नगाधिराज’ की तलहटी में स्थित नेपाल से तो भारत का नाभिनाल का संबंध है। धर्म, जाति व्यवस्था, आस्था, व्यापार, संस्कृति, खानपान, भौगोलिक स्थिति, आदि उसे भारत के अभिन्न अंग की तरह जोड़े रहती है। नेपाल में जब भूकंप आया था तब भारत ने दिल खोल कर सहायता दी थी। यह निकटता अभी भी है। पर अब नेपाल का झुकाव चीन की तरफ बढ़ रहा है। चीन की आक्रामक विस्तार नीति जो उसके सड़कों और रेल नेटवर्क के निर्माण तथा सीमा पर बस्तियां बसाने के रूप में अक्सर दिखती रहती है का असर अब नेपाल पर भी होने लगा है।
आज कम्युनिस्ट नेपाल, कम्युनिस्ट चीन की तरफ खिसक रहा है। जिस दिन बीजिंग और काठमांडू के बीच रेल नेटवर्क चीन तैयार कर देगा उस दिन नेपाल का व्यापार भारत की तुलना में चीन से अधिक बढ़ जायेगा। हालांकि, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से नेपाल, चीन की अपेक्षा भारत के अधिक निकट है। लेकिन विदेश नीति के समीकरण, सांस्कृतिक और धार्मिक मापदंडों से कम, आर्थिक और व्यापारिक मुद्दो से अधिक प्रभावित होते है।
नेपाल एक संप्रभु देश है और अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताएं तय करने का उसे भी, उतना ही अधिकार है, जितना कि, किसी भी संप्रभु देश को होता है। पर यह बात भारत के विदेश नीति के नियामकों को सोचना होगा कि, नेपाल से सदियों पुराने हमारे रिश्ते अचानक ठंडे क्यों पड़ने लगे और वह धीरे-धीरे चीन की तरफ क्यों झुकने लगा। हमने अपने पड़ोसियों को, अपने साथ मजबूती से बनाए रखने के लिए क्या किया?
अब आइए भारत भूटान संबंध पर। भूटान भारत द्वारा प्रोटेक्टेड देश है। संप्रभु है, पर भूटान, की सुरक्षा का दायित्व भारत पर है। वहां के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की ट्रेनिंग भारत की पुलिस प्रशिक्षण अकादमियों में होती रही है और अब भी होती है। मेरे साथ भी भूटान पुलिस के दो अधिकारी पुलिस प्रशिक्षण अकादमी मुरादाबाद में ट्रेनिंग किए थे और जब मैं भूटान गया तो उनसे वैसे ही मुलाकात हुई जैसे अपने भारतीय दोस्तों से।
भारतीय सेना की कुछ बटालियन भूटान में उसकी सुरक्षा के लिए रहती है। आम तौर पर भारत की जो विदेश नीति होती है, भूटान भी उसी नीति का अनुसरण करता है। साल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति के बाद बांग्लादेश को एक स्वतंत्र और संप्रभु देश की सबसे पहले मान्यता भारत ने दी थी और उसके तुरंत बाद भूटान ही था जिसने बांग्लादेश को मान्यता दे दी।
आज वही भूटान चीन के साथ बातचीत कर रहा है। डोकलाम विवाद हल करने के लिए, चीन से वह बात कर रहा है। लेकिन इस बातचीत में क्या भारत की भी कोई भूमिका है? नॉर्थ-ईस्ट को जोड़ने वाला चिकन नेक गलियारा और चुम्बी वैली पर चीन की बहुत पहले से नज़र है। इसी मकसद से चीन, भूटान और बांग्लादेश दोनों के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ा रहा है।
भारत को इस बात का पूरा प्रयास करना होगा कि चीन अपने विस्तारवादी और ‘कर्ज दो कब्जा करो’ की नीति का शिकार, न तो भूटान को बना सके और न ही बांग्लादेश को। भूटान सरकार की, चीन की हुकूमत के साथ, नजदीकियां इधर बढ़ी हैं, और भूटान पर डोरे डालना, चीन की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण एजेंडा है। चीन बेहद खामोशी के साथ अपने पत्ते खेलता है। उसकी यही खामोशी, उसके कई महत्वपूर्ण राज पोशीदा रखती है।
बांग्लादेश एक ऐसा देश है जिसे अस्तित्व में लाने में भारत की, अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत को साल 1971 मे, बांग्लादेश के लिए, पाकिस्तान से युद्ध करना पड़ा। भारत उस युद्ध मे विजयी हुआ और पाकिस्तान टूटा। पाकिस्तान न सिर्फ टूटा, बल्कि द्विराष्ट्रवाद का वह मिथ भी टूटा कि धर्म और राष्ट्र एक होते हैं। भाषाई अस्मिता और सांस्कृतिक दूरी ने धर्म के नशे की खुमारी उतार दी।
भारत से बांग्लादेश से संबंध बहुत अच्छे हैं और बांग्लादेश की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि, चीन चाह कर भी बांग्लादेश में वह सब तिकड़म नहीं कर सकता जो वह नेपाल और भूटान में कर रहा है। फिर भी बांग्लादेश के साथ यदा-कदा कुछ मामलों में मत वैभिन्नता को छोड़ कर आपसी रिश्ते की गर्माहट बरकरार है। लेकिन चीन यहां भी बांग्लादेश को आर्थिक सहायता की पेशकश करता है और देता भी है।
अब आते हैं श्रीलंका पर, श्रीलंका और चीन के बीच बढ़ती रणनीतिक साझेदारी पर भी भारत को नजर रखनी है और हिंद महासागर के इस द्वीप राष्ट्र जो भारत की ही तरह कभी ब्रिटिश उपनिवेश था और भारत के आजाद होने के लगभग ढाई साल बाद आजाद हुआ, के साथ भारत के संबंध काफी अच्छे रहे हैं और आज भी है।
राष्ट्रपति जयवर्धने के कार्यकाल में, जब श्रीलंका, एलटीटीई के तमिल उग्रवाद से जूझ रहा था तब भारत ने सैन्य सहायता भी इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) के रूप में भेजी थी। हालांकि, विदेश नीति के विशेषज्ञ राजीव गांधी के इस फैसले को उचित नहीं मानते हैं और यह भी दुर्भाग्य रहा है कि राजीव गांधी उसी एलटीटीई के षड्यंत्र के शिकार हुए। साल 1991 में, जब वे तमिलनाडु के श्रीपेरूमबदुर में एक आतंकी घटना में मारे गए। इसमें एलटीटीई का हांथ था।
चीन की नजर, हिंद महासागर पर है और हिंद महासागर पर, अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए श्रीलंका और मालदीव पर, कूटनीतिक नियंत्रण करना जरूरी है। आर्थिक रूप से कमज़ोर श्रीलंका को चीन ने न सिर्फ सस्ते दर और आसान शर्तों पर ऋण दिया बल्कि अपने नौसैनिक बेड़ों के लिए श्रीलंका के बंदरगाहों की भी सुविधा ली। प्रत्यक्ष रूप से, चीन इन कदमों से अमेरिका को चुनौती देता हुआ दिख रहा है पर जिस तरह से हिमालयी देशों में वह धीरे धीरे अपनी कूटनीतिक पैठ बढ़ा रहा है उसे देखते हुए हिंद महासागर में उसके बढ़ते वर्चस्व का निशाना भारत भी है।
श्रीलंका-चीन संबंधों के इतिहास और हाल के दिनों में श्रीलंका के प्रति चीनी पहल पर यह तर्क दिया जाता है कि, हिंद महासागर में श्रीलंका की भू-रणनीतिक स्थिति और भारत से, उसकी निकटता को देखते हुए, बुनियादी ढांचे के विकास और चीनी विकासात्मक सहायता की आकांक्षा, मुख्य रूप से लाभ को अधिकतम करने के लिए हेजिंग अपनाने हेतु, श्रीलंकाई विदेश नीति के विकल्प को चीन आकार दे रहा है।
हिंद महासागर में श्रीलंका को शामिल करने के चीन के हालिया प्रयासों का उद्देश्य, उसके वाणिज्यिक और सुरक्षा हितों की रक्षा और विस्तार करना है। हालांकि चीन और श्रीलंका कोई सीमा साझा नहीं करते हैं, लेकिन, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के एक लेख के अनुसार, “अपने विस्तार के एजेंडे में, बौद्ध धर्म की पृष्ठभूमि का एक आधार भी, चीन ने ढूंढ निकाला है।”
नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका में अपने हितों को मजबूत करने के बाद, चीन की नजर, मालदीव पर है। मालदीव के नए राष्ट्रपति, मोहम्मद मुइजू, के घनिष्ठ संबंध चीन से हैं और यह बात छुपी हुई नहीं है। मुइज्जू ने सत्ता में आने पर, अपना भारत विरोधी रुख दिखा दिया और, कहा कि, भारत को, अब मालदीव से अपनी, सेना हटा लेनी चाहिए।
याद कीजिए, एक बार जब मालदीव में तख्ता पलट हुआ था तो भारतीय सेना ने वहां जाकर, स्थिति सामान्य की थी। यदि हमारी सेना, मालदीव से लौटती है तब, हिंद महासागर में, अपने अपने क्षेत्राधिकार को लेकर चीन और भारत के बीच का तनाव और गहरा हो सकता है। मालदीव में तैनात भारतीय सेना, वहां के रडार स्टेशनों और उसके निगरानी विमानों की देखरेख करती है।
इसके अलावा भारतीय युद्धपोत भी मालदीव के विशेष आर्थिक क्षेत्र में गश्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। चूंकि हिंद महासागर में मालदीव की लोकेशन रणनीतिक रूप से बेहद अहम है, इसलिए भारत को हिंद महासागर में कमजोर करने के लिए चीन, पिछले कुछ सालों से मालदीव को खूब लुभाता रहा है। चीन ने मालदीव में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। खाड़ी के देशों से तेल भी, यहीं से होकर गुज़रता है, इसलिए भी चीन हिंद महासागर के इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण पुख्ता कर लेना चाहता है।
दक्षिण एशिया या भारतीय प्रायद्वीप में, भारत सबसे बड़ा और इस भू राजनीतिक क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण किरदार है और अपने पड़ोस के इन सभी देशों के साथ उसके संबंध आजादी के बाद से ही अच्छे रहे हैं। यह संबंध और भी मधुर तथा प्रगाढ़ हों, इसी उद्देश्य से सार्क का गठन किया गया और उसका मुख्यालय काठमांडू रखा गया।
अपनी आबादी, भौगोलिक विशालता, समृद्ध इतिहास, मजबूत और विशाल सैन्य बल तथा, आर्थिकी के कारण भारत जो इस इलाके का स्वाभाविक नेता है, को अपने पड़ोस के उन देशों को अपने साथ कूटनीतिक और अन्य तरह से जोड़े रखने के लिए, निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। भारत प्रयास कर भी रहा है पर, चीन की खामोश और आक्रामक कूटनीतिक दांव पेंच के सामने, अपने बेहद निकट के पड़ोसी मुल्कों के नेतृत्व के बीच जो भारत विरोधी धारणा पनप रही है, उसका निवारण नहीं कर पा रहा है।
यह सवाल उठता है कि, क्या भारत की वैदेशिक नीति की प्राथमिकता में, उसके पड़ोसी देश हैं भी या नहीं। या, हमने उन्हें एक स्वाभाविक मित्र मान लिया है कि, वे कहां जायेंगे, और अपनी प्राथमिकता में अमेरिका और यूरोप के देशों को अधिक तरजीह दे दी है। अपने दस साल के कार्यकाल में बहुत कम ही देश ऐसे होंगे, जहां प्रधानमंत्री जी की यात्रा न हुई हो।
हर देश के राष्ट्रध्यक्ष के साथ, उनकी आलिंगन बद्ध फोटो और भारत के विश्व गुरु, डंका बज रहा है। मोदी विश्व राजनीति की पतवार हैं, जैसे अतिशयोक्ति पूर्ण खबरें, गोदी मीडिया पर अक्सर पीएम की हर विदेश यात्रा के दौरान और उसके बाद दिखती रखती हैं। पर जब पड़ोस पर नजर जाती है तो, हमारे पड़ोसी हमारे बजाय, चीन के अधिक निकट जाते दिख रहे है। ऐसा क्यों है और इसे दुरुस्त करने के लिए सरकार कर क्या रही है, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल है जिसका समाधान, विदेश नीति के विशेषज्ञों को सोचना चाहिए।