अग्नि आलोक

भारत में किसी राजनीतिक व्यक्ति के लिए ऐसा जुनून पहले कभी नहीं देखा

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नया संसद भवन बनने के बाद अब सबकुछ बदल गया है। हालांकि इतिहास बदलने की कोशिशें मौजूदा सरकार बहुत पहले से कर रही है। आख़िर नया भारत गढ़ा जा रहा है। दिल्ली में कई जगहों और सड़कों के नाम बदले गए। दर्जनों ऐतिहासिक मस्जिद, मज़ार, स्मारक और ऐतिहासिक स्थलों की पहचान मिटा दी गई या बदल दी गई। डॉ. आंबेडकर इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम हैं। अब देखना है कि आने वाले साल में 14 अप्रैल को क्या व्यवस्था रहेगी? कितने आमजन बिना पास का नवनिर्मित प्रेरणा स्थल तक पहुंच पाएंगे? इससे भी बढ़कर, कितने लोग अपने महानायक का मूर्तियों की इस भीड़ में खड़ा देख पाना बर्दाश्त कर पाएंगे?

सैयद जै़ग़म मुर्तजा

तक़रीबन 12 साल पुरानी बात है। शनिवार का दिन था और तारीख़ अंग्रेज़ी कैंलेंडर के मुताबिक़ 14 अप्रैल 2012 थी। मैं उन दिनों राज्यसभा टीवी में कार्यरत था और तब दफ्तर 12-ए, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड हुआ करता था। उस रोज़ जनरल शिफ्ट थी इसलिए आराम से लगभग सुबह 11.30 बजे केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पर उतरा। बाहर निकल कर जो मैंने देखा वो अविस्मरणीय था।

मेट्रो स्टेशन के बाहर भारी भीड़ थी। आसपास कारों के अलावा बहुत सारी बस, ट्रक, टेंपो, पिकअप, और दूसरे वाहन खड़े थे, जो अमूमन नहीं होते। बड़े व्यवसायिक वाहन तो उस क्षेत्र में ऐसे भी प्रतिबंधित हैं। प्रारंभ में तो माजरा समझ नहीं आया, लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ा स्थिति साफ होती गई। लोगों के हाथों में बाबा साहब की तस्वीरें थीं। गाड़ियों पर अलग-अलग संस्थाओं के बैनर बंधे थे। सड़क पर जगह-जगह स्टॉल लगे थे। उत्साहित लोग नारे लगा रहे थे। बिल्कुल ईद जैसा समां था।

आगे बढ़ा तो पाया कि संसद मार्ग पर लोगों की लंबी क़तारें लगी हैं। हाथों में फूलमाला लिए लोग अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे थे। वे लोग आंबेडकर जयंती के मौके पर अपने महानायक को श्रद्धांजलि देने आए थे। जी आपने सही पढ़ा– महानायक। आंबेडकर ने वंचितों के लिए जो किया, उसके मद्देनज़र महानायक उनके लिए छोटा शब्द है।

बीते 14 अप्रैल, 2019 को आंबेडकर जयंती के मौके पर संसद मार्ग पर उमड़े लोग (तस्वीर : क्षितिज कुमार)

बहरहाल, लोगों की आंखों में बाबा साहेब को श्रद्धांजलि देने की अधीरता साफ दिख रही थी। मैंने भारत में किसी राजनीतिक जीवित या मृत व्यक्ति के लिए ऐसा जुनून पहले कभी नहीं देखा था। संसद मार्ग के अलावा तालकटोरा रोड और महादेव रोड वाले मोड़ तक भी चारों तरफ भारी भीड़ थी। 

लोग एक-एक कर संसद के मुख्य प्रवेश द्वार के बग़ल में बने छोटे गेट से दाख़िल हो रहे थे। डॉ. आंबेडकर की मूर्ति पर श्रद्धासुमन अर्पित करके पास ही बने दूसरे गेट से बाहर आ रहे थे। 

कांस्य की बनी 24 फीट ऊंची (12 फीट का आधार)। यह मूर्ति 2 अप्रैल, 1967 से संसद परिसर में इस जगह पर थी। शायद तभी से यह आयोजन हर साल होता चला आ रहा होगा। आंबेडकर जयंती पर यहां लोगों के जुटान की तीन प्रमुख वजहें मानी जा सकती हैं। एक, डॉ. आंबेडकर के प्रति उनका सम्मान। दूसरा, इसी बहाने संसद भवन में दाख़िल होने का अधिकार। तीसरा, संविधान, संसद, और संसदीय परंपरा में अपनी भी हिस्सेदारी होने का बोध।

ज़ाहिर है, वंचित वर्गों के पास गर्व करने और इतिहास में अपनी हिस्सेदारी बताने के अवसर बहुत कम हैं। डॉ. आंबेडकर इस शून्यता को भरते हैं। उनका क़द इतना बड़ा है कि सदियों के शोषण और ग़ैर-बराबरी का बोध डॉ. आंबेडकर का योगदान समझने भर से मिट जाता है। वरना उनकी मूर्तियों की देश में कहीं कोई कमी नहीं है। लोगों के इस रेले का रुख़ मध्य प्रदेश में उनके जन्मस्थान महूं (अब अंबेडकरनगर) की तरफ भी हो सकता था, लेकिन महत्व जगहों से ज़्यादा प्रतीकों का होता है और संसद भवन से बड़ा प्रतीक लोकतंत्र में भला और क्या होगा।

ख़ैर, अब इस मेले का स्थान शायद बदल जाएगा। क्योंकि केंद्र सरकार ने ब्रह्मेश वाघ की बनाई इस मूर्ति को दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया है। हालांकि मूर्ति का स्थान अभी भी संसद भवन परिसर ही है, लेकिन न तो अब इसको देखकर पहले जैसा बोध हो पा रहा है और न ही पहले जैसी प्रमुखता इसको हासिल है। एक तो यह कि पहले यह मूर्ति एकदम प्रवेश द्वार के पास थी, दूसरे इसका रुख़ संसद की तरफ इस तरह था मानों कोई संदेश दे रही हो। अब यह मूर्ति महात्मा गांधी और दूसरी अन्य महान विभूतियों के साथ नवनिर्मित प्रेरणा स्थल पर स्थापित कर दी गई है।

हालांकि 15 जून, 2024 को प्रेरणा स्थल का उद्घाटन करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने दावा किया कि “प्रेरणा स्थल लोगों को भारत के इतिहास में इन महान विभूतियों के योगदान की याद दिलाएगा और लोगों को प्रेरणा देने का काम करेगा।” दूसरी तरफ मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इसपर आपत्ति जताते हुए कहा है कि “महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर समेत क़रीब 50 महापुरुषों की मूर्तिंयों का स्थान बदलने का सरकार का फैसला एकतरफा और ग़ैरज़रूरी है।” 

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इन तमाम मूर्तियों को एक कोने में खड़ा करके इनका महत्व कम करने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने साफ शब्दों में कह कि “यह क़दम लोकतंत्र की भावना का ख़िलाफ है।”

सरकार के क़दम का बचाव करते हुए लोकसभा के निवर्तमान स्पीकर ओम बिड़ला ने दावा किया है कि कोई भी मूर्ति हटाई नहीं गई है, बस इनका स्थान बदला है। लेकिन क्या स्थान बदलने से इन मूर्तियों का वही महत्व रह जाएगा, जो था? 

इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं है। अगर डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी की मूर्तियों की ही बात करें तो दोनों संसद परिसर में दो अलग-अलग दिशाओं में लगी थीं। दोनों ही जगहों का एक विशेष महत्व था।

उस समय संसद मार्ग से दाख़िल होने पर पहला सामना डॉ. आंबेडकर से होता था, जबकि राजपथ (अब कर्तव्य पथ) की तरफ से दाख़िल होने पर संसद का रिसेप्शन क्षेत्र पार करते ही गांधी जी नज़र आते थे। इसी तरह राज्य सभा गैलरी से निकलते वक़्त नीचे झांको तो पहली नज़र महाराणा प्रताप की घोड़े पर सवार मूर्ति पर पड़ती थी। इसके अलावा मुख्य भवन के आसपास बिरसा मुंडा, महात्मा जोतीराव फुले, और मेजर दुर्गा मल्ला की मूर्तियां भी थीं। संसद के आंगन, वेटिंग हॉल, लाइब्रेरी बिल्डिंग और संसदीय सौंध में क़रीब पांच दर्जन मूर्तियां थीं।

नया संसद भवन बनने के बाद अब सबकुछ बदल गया है। हालांकि इतिहास बदलने की कोशिशें मौजूदा सरकार बहुत पहले से कर रही है। आख़िर नया भारत गढ़ा जा रहा है। दिल्ली में कई जगहों और सड़कों के नाम बदले गए। दर्जनों ऐतिहासिक मस्जिद, मज़ार, स्मारक और ऐतिहासिक स्थलों की पहचान मिटा दी गई या बदल दी गई। डॉ. आंबेडकर इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम हैं। अब देखना है कि आने वाले साल में 14 अप्रैल को क्या व्यवस्था रहेगी? कितने आमजन बिना पास का नवनिर्मित प्रेरणा स्थल तक पहुंच पाएंगे? इससे भी बढ़कर, कितने लोग अपने महानायक का मूर्तियों की इस भीड़ में खड़ा देख पाना बर्दाश्त कर पाएंगे? मैं एक बार फिर 14 अप्रैल के इंतज़ार में हूं।

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