शशिकांत गुप्ते
शायर गोहर कानपुरी रचित यह गीत सन 1982 में बहुत प्रचलित हुआ था। दूल्हा बिकता है बोलो खरीदो गे। दहेज लोभियों द्वारा दी जा रही प्रताड़ना से पीड़ित युवतियां के पक्ष उक्त गीत लिखा गया है। इस व्यंग्यात्मक गीत की पैरोडी वर्तमान में चल रही सियासी नौटंकी एकदम प्रासंगिक है।
मतदान करने वाली देश की जनता के साथ जो छलावा हो रहा है और इस छल-कपट को जो प्रश्रय दिया जा रहा है। वह लोकतंत्र को कमजोर करने की साज़िश है। यह भी उतना ही कटु सत्य है कि भारत के लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता को कोई भी खत्म नहीं कर सकता है।
लोकतंत्र में मताधिकार का महत्व है। मतदाता के मत को अमूल्य कहा गया है।
जब भी देश के किसी दल के कुछ सदस्य सत्ता की धुरी पर घूमने पर लालायित होतें हैं, तब वे अपने मतदाताओं के अमूल्य कहलाने वाले मत के साथ ना इंसाफी करतें हैं। साथ ही देश की जनता का जो पैसा चुनावी प्रक्रिया में खर्च होता है उसका भी अपव्यय होता है
इन्ही मुद्दों पर गम्भीरता से सोचने समझने पर उपर्युक्त गीत की पैरोडी गुनगुना ने का मन करता है।
जिस तरह दहेज के लोभियों की प्रताड़ना स्त्री को भोगना पड़ती है,उसी तरह सत्ता के लोभियों के द्वारा जो नौटंकी की जाती है,
उसका ख़ामियाजा भी जनता को ही वहन करना पड़ता है।
इसी तारतम्य में प्रस्तुत है पैरोडी।
दूल्हे की जगह नेता लिखकर पैरोडी बन गई।
नेता बिकता है बोलो खरीदोगे
ये जो संसार है चोर बाजार है
धोखा बिकता है बोलो खरीदोगे
माल-ओ-जर भी मिले और मकान में
माँगते है जमी आस्मा दलबदल ने में
रिश्ते नातो के होते है सौदे यहा
पाँव पर गिर गयी पगड़िया बेशर्मी में
रस्म के नाम पे धर्म के नाम पे
दाता बिकता है बोलो खरीदोगे
भेष बदले हुए जैसे अर्थी चली
जनता माँगे दुआ लाज रख ले खुदा
लाल जोड़े मे छुपके ग़रीबी चली
वक़्त है निर्दयी, जनता तो रोने लगी
जी रहा है नेता हो गयी वो नेत्री
*
मसली जाएगी कब तक ये बेबस जनता
राम गोपाल हो या शराफ़त अली
सब है बहरूपीए इनसे ये पूछिए
नेता बिकता है बोलो खरीदोगे
यह बात भी उतनी ही सत्य है कि बिकाऊ माल कभी भी टिकाऊ नहीं होता है।
पूर्व में सड़क पर माल बेंचने वालें चिल्ला चिल्ला कर माल बेंचतें थे।
रास्ते का माल सस्ते में।
इसतरह खरीदो और बेंचो के खेल में अंतः खरीदने वाला और बिकने वाला दोनों ही नुकसान में रहतें हैं।
बिकने वाले और खरीदने वाले तात्कालिक लाभ को देखतें हैं। इस तरह के सौदों का दूरगामी परिणाम दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ता है।
कारण इसतरह के सौदे सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ पूर्ति के लिए होतें हैं। ऐसे लोग परस्पर एक दूसरें को धोखा ही देतें हैं।
शशिकांत गुप्ते इंदौर