दुनिया का कोई भी सभ्य समाज नफरत और हिंसा को जायज नहीं मानता। लेकिन यह भी सच है कि न नफरत खत्म हुई है और न ही हिंसा। क्षणभर के लिए भी नियंत्रण खत्म हुआ तो दुर्घटना तय है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर जिस तरह नफरत फैलाई जा रही है, केंद्र सरकार को मूक दर्शक नहीं बने रहना चाहिए। यह स्पष्ट संदेश है कि अब केंद्र को इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। दरअसल, न्यूज चैनलों ने तो पत्रकारिता का इतना अवमूल्यन कर दिया है कि अब टीवी एंकरों को मजाक का पात्र बनना पड़ता है। इन्हें किसी न किसी दल की विचारधारा से जुड़ा माना जाने लगा है। कुछ गिने-चुने धीर-गंभीर पत्रकार ही सरोकार वाली पत्रकारिता करते नजर आते हैं।
प्रतीकात्मक चित्र
शीर्ष अदालत का ऑब्जर्वेशन ठीक ही है कि टीवी और सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा नफरत फैलाई जा रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस उच्छृंखलता को सभी महसूस कर रहे हैं पर इस पर लगाम के लिए किसे आगे आना चाहिए इस पर विवाद होता रहा है। बेहतर तो यही होता कि अखबारों की तरह टीवी न्यूज चैनलों के लिए एक स्वायत्तशासी नियामक तंत्र बनाया जाता, लेकिन कई बार ऐसी कोशिशों को पलीता लग चुका है। टीवी चैनलों की एक निजी संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडड्र्स अथॉरिटी (एनबीएसए) ने कुछ प्रयास जरूर किए पर वे ढाक के तीन पात ही साबित हुए। पिछले दिनों बॉम्बे हाई कोर्ट में एनबीएसए ने बताया था कि कई शिकायतों पर कार्रवाई कर कुछ चैनलों पर अधिकतम एक लाख रुपए तक का अर्थदंड भी लगाया गया है। लेकिन वैधानिक अधिकारों के अभाव में किसी चैनल को एनबीएसए का फैसला मानने को बाध्य नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए रिपब्लिक टीवी ने एनबीएसए के निर्देशों को मानने से इनकार कर संस्था से अपनी संबद्धता ही समाप्त कर दी और ऐसी ही नई संस्था बना ली।
दरअसल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार यह नहीं चाहेंगे कि किसी समाचार माध्यम को सरकार नियंत्रित करे। सरकार के मीडिया मंचों को नियंत्रित करने के प्रयास विवाद को ही जन्म देंगे। पर सुप्रीम कोर्ट के सरकार को नोटिस का मतलब यही है कि नफरत फैलाने का कारोबार हदें पार करने लगा है। सरकार ही मीडिया को नियंत्रित करे, यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं होगा। बेहतर यही होगा कि टीवी व सोशल मीडिया के लिए भी वैधानिक शक्तियों से लैस स्वतंंत्र नियामक संस्था का गठन किया जाए।