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भारत के अख़बार साम्प्रदायिकता का बीजारोपण पोषण और धंधा करते हैं

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•शशिभूषण,

अब घरों, बाहर, दफ़्तरों, सैलून, बाज़ार से लेकर धर्म स्थलों तक कोई भी बड़े आराम, साहस और आज़ादी से मुसलमानों का विरोध करता मिल जाता है। ज़रा सी बातचीत में ही ऐसा सुनाई देने लगता है जैसे मुसलमान आपदा या शैतानी ताक़त वाले जीव हैं। मुसलमानों का धड़ल्ले से विरोध अब सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक सतह पर उतराती शोर मचाती चुप कराती डरा देती चीज़ है। 

मेरे ख़याल से भारत के हिंदी भाषी राज्यों में हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायीकरण की कार्ययोजना लगभग क़ामयाब हो चुकी है। कहने की ज़रूरत नहीं इसे मीडिया-सोशल मीडिया के महा बिजनेस के द्वारा अंजाम दिया गया। जो थोड़ी बहुत कसर अभी बाक़ी है उसके लिए साल-डेढ़ साल का समय काफ़ी होगा। इसके बाद अनुमान किया जा सकता है कि हिंदू-मुस्लिम एकता का भारतीय विचार आने वाले पचास सौ साल में पनप पाए तो पनप पाए। 

कितने शर्म, अफ़सोस की और आपराधिक सच्चाई है कि भारत के अख़बार साम्प्रदायिकता का बीजारोपण पोषण और धंधा करते हैं और ज़ाहिर रूप से पर्यावरण, विकास और हरियाली बचाने के कर्मकांड रचते हैं। टीवी के बारे में किन्हीं शब्दों में क्या कहा जा सकता है? यह मानों नफ़रत का एक महा अनुष्ठान ही है जो बारहों मास चौबीसों घंटे चलता है।

क्या अब भी कोई है जो इसे महसूस नहीं कर पा रहा है कि भारत में जातिवाद को भी हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने प्रतिस्थापित कर दिया है? अगर कोई साहस करके कह बैठे जातिवाद है तो उसे हिंदू विरोधी और मुसलमान परस्त मान लिया जाता है। मणिपुर के हालात तो बताते हैं कि साम्प्रदायिक-जातीय हिंसा का विस्तार ऑक्टोपस बन चुका और भारतीय जनमानस को अब आंदोलित भी नहीं करता।

पूरी दुनिया में जब धार्मिक राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी राजनीति का बोलबाला बढ़ रहा है तब भारत जैसे कर्ज़ से लदे देशों में कौन हैं जिन्हें भय नहीं लगता और हिंसा के घोर घन मंडराते नहीं दिखाई देते? 

धर्म गंदी राजनीति है। शासन करने वालों का अंतिम हथियार। धन पर विजय नामुमकिन सी होती है। ऐसे में यही सवाल मन में उठता है कि कैसे और किस तरह आने वाले समय में इंसानियत लोकतंत्र और समाजवाद की राजनीति अपनी पैठ बना पाएगी?

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