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देशी -विदेशी पूँजी की फ़ण्डिंग हज़म करने वाले वॉल्व से अधिक कुछ नहीं हैं एनजीओ 

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 पुष्पा गुप्ता 

एनजीओ आज देश के कोने-कोने में पसर गये हैं। ये किसी एक समस्या पर या कुछ समस्याओं (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य) पर काम करने की बात करते हैं और इनको मुख्यतया बड़ी-बड़ी फ़ण्डिग एजेंसियों से पैसे मिलते हैं। ये सारी फ़ण्डिंग एजेंसियाँ बड़े-बड़े कॉरर्पोरेट घरानों द्वारा सीधे संचालित होती हैं जैसे फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन, गेट्स फ़ाउण्डेशन, रॉकफ़ेलर फ़ाउण्डेशन, भारत में नीता अम्बानी फ़ाउण्डेशन, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन आदि-आदि। 

     ये जनता को बोलते हैं कि आप ख़ुद अपनी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं और हम कॉरपोरेट से लायी भीख से आपकी उस समस्या का समाधान कर देंगे। कॉरपोरेट घराने जनता से सौ रुपये लूटकर चवन्नी वापस जनता को दान कर देते हैं और जनता के बीच ये भ्रम फैलाते हैं कि पूँजीवाद कितना सन्त है!

     एनजीओ की धारणा को भी स्पष्ट कर लेना बहुत ज़रूरी है। पहली बात, जन-संगठन और संस्था दो चीज़ें होती हैं। अगर सख़्त क़ानूनी परिभाषा के हिसाब से देखें तो सभी पंजीकृत या गैर-पंजीकृत ग़ैर-सरकारी संस्थाएँ—ट्रस्ट, सोसाइटी आदि—एनजीओ (नॉन गवर्नमेंटल ऑर्गनाइज़ेशन) कहलाएँगी।

      पर हमारा तात्पर्य देशी-विदेशी पूँजी- प्रतिष्ठानों द्वारा स्थापित फ़ण्डिंग एजेंसियों से वित्त-पोषित होने वाले उन दैत्याकार देशव्यापी ढाँचों वाले एनजीओ से है जो भारत ही नहीं, पूरी तीसरी दुनिया—एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के देशों में अपने पंजे फैलाये हुए हैं।

बहुत सीधा सवाल है कि मुनाफ़े के लिए मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने वाले और दुनिया को बार-बार विनाशकारी युद्धों में धकेलने वाले साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लुटेरों में इतनी मानवता भला क्यों जाग उठती है कि वे गरीब देशों के बच्चों की भूख मिटाने, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और औरतों की ख़ुदमुख्‍़तारी और आज़ादी के लिए इतने चिन्तित हो उठते हैं कि इस काम में सालाना अरबों डॉलर लगा देते हैं। 

     इस पर सैकड़ों शोध-पत्र और दर्ज़नों किताबें छप चुकी हैं। पहली बात तो 172 वर्षों पहले कार्ल मार्क्स ने ही स्पष्ट कर दी थी कि दमित-उत्पीडित मज़दूर वर्ग की विकासमान वर्ग-चेतना को कुन्द और भ्रष्ट करने के लिए दुनिया भर का पूँजीपति वर्ग अपने निचोड़े गये अधिशेष का एक छोटा-सा हिस्सा सुधार और चैरिटी के कामों पर ख़र्च करता है। 

     यानी एनजीओ नेटवर्क का मुख्य काम है वर्ग-संघर्ष के उभारों को रोकना, उनकी भड़कती आँच पर पानी के छींटे मारते रहना। ये सभी एनजीओ तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों में इसलिए काम करते हैं क्योंकि यहीं पर शोषण-उत्पीड़न ज़्यादा है और पश्चिम के पूँजीवादी “स्वर्गों” की अपेक्षा क्रान्ति की आग भड़कने का ख़तरा इन देशों में सबसे अधिक है। जबसे नव-उदारवाद का दौर चला है और राज्य ने कीन्सियाई नुस्ख़ों से पीछे हटते हुए सार्वजनिक राशन-वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीब-कल्याण की सभी योजनाओं से हाथ खींचना शुरू कर दिया है, तबसे इन बुनियादी जन-अधिकारों को भीख, दान और दया-धरम की चीज़ बना देने वाले एनजीओ की भूमिका और बढ़ गयी है।

एनजीओ वाले एक और काम यह करते हैं कि बहुत सारे संवेदनशील और ज़हीन युवाओं को “समाज बदलने” का एक सुगम मार्ग बता देते हैं, “वेतनभोगी बनकर कुछ राहत और सुधार के काम करते रहो, मन को तसल्ली देते रहो, क्रान्ति-व्रान्ति के जोखिम, तकलीफ़ और अनिश्चितता भरे काम में ज़िन्दगी और करियर क्यों तबाह करोगे?” मध्यवर्गीय नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा जो बेरोज़गारी से परेशान होता है, वह लाखों की तादाद में इस एनजीओ नेटवर्क में सर्वेयर, मुलाज़िम आदि बनाकर बेरोज़गारी भत्ते बराबर वेतन पर ज़िन्दगी काट देता है और रोज़गार के अपने जनवादी अधिकार पर संगठित होकर लड़ने के रास्ते से दूर हो जाता है।

      यह तो हुआ एनजीओ का राजनीतिक लक्ष्य। इस पर भी बहुत साहित्य मौजूद है कि किस प्रकार एनजीओ अपने आप में बुर्जुआ उत्पादन का एक ऐसा सेक्टर बन गया है, जिसमें सहकारिता आदि का गठन करके श्रमशक्ति का अपार दोहन किया जाता है और विशेषकर स्वावलम्बिता के नाम पर स्त्रियों को ठगा जाता है।

       इसके अतिरिक्त एनजीओ बड़ी पूँजी के लिए बाज़ार-विकास की सम्भावनाओं का अध्ययन करने और सस्ता श्रम-बाज़ार विकसित करने का भी काम करते हैं। किस तरह एनजीओ के ज़रिये लोगों को खतरों और दुष्प्रभावों के बारे में बताये बिना, फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियाँ दवाओं का परीक्षण करती रही हैं और आम अशिक्षित ग़रीबों ने उसकी क्या कीमत चुकाई है, इस पर पिछले तीस वर्षों के दौरान दर्जनों रपटें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के काले कारनामों के बारे में आज भला कौन नहीं जानता?

दुनिया में सान्ता क्लाज़ का चेहरा लिये घूमने वाली कई विशाल अमेरिकी फ़ण्डिंग एजेंसियों और एनजीओ का वहाँ के मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स से कितना गहरा रिश्ता है और बहुत “कल्याणकारी बुर्जुआ जनवादी” देश माने जाने वाले स्कैण्डेनेवियन देशों की फ़ण्डिंग एजेंसियाँ और एनजीओ किस तरह वहाँ की फ़ार्मा कम्पनियों और हथियार कम्पनियों के लिए काम करते हैं, इस पर भी काफी सामग्री और दस्तावेज़ उपलब्ध हैं।

      ऐसी बातें केवल क्रान्तिकारी वामपंथी कहते हों ऐसी भी बात नहीं है। प्रो. जेम्स पेत्रास और प्रो. हेनरी वेल्तमेयर ने इन एनजीओ के वैचारिक-राजनीतिक कामों के बारे में काफी कुछ लिखा है। कोई भी जेम्स पेत्रास की वेबसाइट पर जाकर पढ़ सकता है। 

     जेम्स पेत्रास ने तो विस्तार से यह भी बताया है कि वर्ग-संघर्ष की राजनीति को हाशिये पर डालने के लिए किस तरह अमेरिका के बुर्जुआ ‘थिंक टैंक्स’ ने ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ की सैद्धांतिकी विकसित की और उसे तीसरी दुनिया की शोषित-उत्पीड़ित आबादी के बीच फैलाने के लिए मुख्य वाहक की भूमिका एनजीओ ने निभायी।

     एनजीओ किस तरह सन्त का मुखौटा पहने साम्राज्यवादियों और उनके जूनियर पार्टनर देशी पूँजीपतियों के ख़ूनी पंजों पर चढ़े सफ़ेद दस्ताने की भूमिका निभा रहे हैं, इस पर ‘मंथली रिव्यू’ पत्रिका की नियमित लेखिका जॉन रोयलोव्स भी अब तक कई गम्भीर और विस्तृत लेख लिख चुकी हैं। उनमें से कुछ उनके ब्लॉग ‘आर्ट एंड एस्थेटिक्स’ पर भी मौजूद हैं जिन्हें कोई पढ़ सकता है। और भी कई राजनीतिक लेखकों और अकादमीशियनों ने इनके काले कारनामों के बारे में लिखा है।

       भारत में 1980 के दशक के अन्त में ही साम्राज्यवादी एजेंटों के रूप में एनजीओ की भूमिका पर बहुत अधिक दस्तावेज़ी साक्ष्यों और तथ्यों के साथ पी.जे. जेम्स की पुस्तक आ चुकी थी। ‘राहुल फ़ाउण्‍डेशन’ ने भी ‘एनजीओ : एक ख़तरनाक साम्राज्यवादी कुचक्र’ लेख-संकलन दो दशक से भी अधिक पहले प्रकाशित किया था जिसके कई संस्करण हो चुके हैं। इसी प्रकाशन से ही एक पुस्तक ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ पर भी छपी है जो मुख्यतः एनजीओ के विश्वव्यापी जाल और उसकी राजनीति को ही एक्सपोज़ करती है। परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘एक तयशुदा मौत’ भी एनजीओ की राजनीति और उसके अन्तःपुरों में व्याप्त घटिया षड्यंत्रकारी राजनीति पर केन्द्रित है। 

     इस उपन्यास के लेखक स्वयं एनजीओ में काम करते थे। एनजीओ में ही काम करने वाले योगेश दीवान की भी एक पुस्तक है, ‘दास्ताने-स्वयंसेविता’।

         यहीं पर एक भ्रम का निवारण करना भी ज़रूरी है। कुछ लोग सोचते हैं कि हर प्रकार के सुधार के काम अपने आप में एनजीओ टाइप काम हैं और क्रान्तिकारी इन कामों से परहेज़ करते हैं या इन्हें ग़लत मानते हैं। यह भ्रान्त धारणा अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन और क्रान्तियों के इतिहास की नाजानकारी से पैदा हुई है। चूँकि भारत के संशोधनवादी कम्युनिस्ट चुनाव लड़ने और अर्थवादी-ट्रेड-यूनियनवादी कामों के अतिरिक्त सामाजिक आन्दोलन के काम करते ही नहीं, इसलिए उनका आचरण देख-देखकर कुछ लोग कम्युनिस्टों के बारे में ही ग़लत धारणा बना लेते हैं। 

      क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आम जनता के बीच राजनीतिक और आर्थिक कामों के साथ-साथ सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक और आर्थिक सुधार के भी काम करते हैं और विविध रचनात्मक गतिविधियाँ करते हैं। सुधार और सुधारवाद में उसी तरह से बुनियादी फर्क है जैसे आर्थिक काम और अर्थवाद में, या ट्रेड-यूनियन कार्य और ट्रेड यूनियनवाद में। क्रान्तिकारी जब सुधार का काम करता है तो उसका मक़सद जनता से निकटता बनाना, उसकी पहलक़दमी जगाना, उसे रूढ़ियों से मुक्त करना, उसकी चेतना उन्नत करना या आपदा की स्थिति में उसे फ़ौरी मदद पहुँचाना होता है। 

      क्रान्तिकारी के लिए सुधार-कार्य वर्ग-संघर्ष के लिए जन-लामबन्दी की प्रक्रिया का एक अंग है, जबकि सुधारवादी के लिए सुधार ही परम लक्ष्य है। एनजीओ सुधारवाद का लक्ष्य जनता की क्रान्तिकारी चेतना के विकास को रोकना, उसकी वर्ग-चेतना को कुन्द करना और उसे सुधारों के गुंजलक में ही फँसाचे रखना है।

‘एनजीओ ब्राण्‍ड सुधारवाद’ आम सुधारवाद से भी बहुत अधिक खतरनाक होता है, उसे देशी-विदेशी पूँजी ने अपनी तथा पूरी बुर्जुआ व्यवस्था की सेवा के लिए ही संगठित किया है—इस बात को समझना आज बहुत ज़रूरी है। 

      एनजीओ सेक्टर के शीर्ष थिंक टैंक अक्सर पुराने रिटायर्ड क्रान्तिकारी, अनुभवी, घुटे हुए सोशल डेमोक्रेट और घाघ-दुनियादार बुर्जुआ लिबरल होते हैं जो देशी-विदेशी पूँजी की फ़ण्डिंग से जन-असन्तोष के दबाव को कम करने वाले सेफ़्टी वॉल्व का, एक क़िस्म के स्पीड-ब्रेकर का निर्माण करते हैं। साथ ही यह रोज़गार के लिए भटकते संवेदनशील युवाओं को “वेतनभोगी समाज-सुधारक” बनाकर इसी व्यवस्था का प्रहरी बना देने वाला एक ट्रैप भी है।

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