मीनाक्षी अग्रवाल
हाल ही में सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शर्मिला जालान का नया उपन्यास उन्नीसवी बारिश पढ़ने का सुअवसर मिला। अब तक कुल मिलाकर शर्मिला की पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें दो उपन्यास हैं, शादी से पेशतर और उन्नीसवीं बारिश और बाकी तीन कहानी संग्रह हैं, बूढ़ा चाँद, राग विराग एवं अन्य कहानियाँ एवं माँ, मार्च एवं मृत्यु।
शर्मिलाजी के लेखन के विषय में प्रयाग शुक्ल की टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगीं जिसमें वे कहते हैं कि – शादी से पेशतर हो या वागर्थ में प्रकाशित उसकी चर्चित (और मंचित) कहानी बूढ़ा चाँद हो, प्रायः अचूक बाहरी डिटेल्स और पत्रों के अन्तर्मन के डिटेल्स मिलाकर उसके कथा-संसार को अर्थ प्रवण बनाते हैं।
शर्मिला जालान का नया उपन्यास उन्नीसवीं बारिश भी इस विशेषता से अछूता नहीं है।
उपन्यास की नायिका चारुलता उन्नीस वर्ष की नवयौवना युवति हैं। जो सृष्टि की हर छोटी-बड़ी चीज को बारीकी से अनुभव करती है और उसे ऐसे साथी की तालाश रहती है, जिसके साथ वह इन अनुभवों को साझा कर सके। उसका मन अत्यंत कोमल एवं जिज्ञासु है और अच्छे-बुरे में पार्थक्य करने की शक्ति उसमें है। वह हिमांशु में अपना साथी तलाशने की कोशिश करती है पर असफल होती है। वह मन का साथ चाहती है बाहरी नहीं। हिमांशु में गहराई नहीं है। उसके अंदर बेचैनी है और वह अपने अंदर की छटपटाहट का कारण स्वयं में ढूंढ़ने की कोशिश करती है।
दूसरों को पत्र लिखकर क्या होगा? उसे खुद से बात करनी है। उसे खुद को ही पत्र लिखना चाहिये।
यह आज की नारी का उपन्यास है। वह किसी के भी लिये अपने ‘स्व’ को नहीं छोड़ना चाहती चाहे वह हिमांशु हो या समरेश या फिर स्वयं उसके पिता। उसने अपनी माँ के खालीपन को जिया है। वह अपनी माँ के दर्द को भलिभांति समझती है। इसीलिए जब सेवानिवृत्त होने के बाद उसके पिता बनारस छोड़कर कोलकाता आ जाते हैं तो वह उनको मन से स्वीकार नहीं कर पाती। जिन दिनों माँ और उसे बाबा की सबसे ज्यादा जरूरत थी बाबा बनारस में थे।
वह उस बाबा के साथ रह सकती थी जो तहखाने से उसे निकालते थे। पर सामने जो व्यक्ति बैठा है वह कोई और नहीं है। चारुलता कैसे-कैसे डर और परेशानियों से गुजरी, बाबा नहीं जानते। परिवार में मान-सम्मान के साथ उठने-बैठने के लिये अपने को बनाये-बचाये रखने के लिये माँ ने कब, कैसे क्या किया? बाबा नहीं जानते। माँ ने क्या कहा क्या छुपाया, क्यों ढंका, क्या दिखाया, कैसे हंसी, कैसे रोयी, बाबा नहीं जानते।
बाबा कहते हैं उन्होंने धनार्जन करके चारु, उसकी माँ एवं बाकी परिवार की जरूरतों को पूरा किया है। पिता क्योंकि धनार्जन करते हैं, इसलिये अपनी सभी बातों को अपना पक्ष मजबूत करने के लिये अपनी तरह से डिफाइन करते हैं। उनके सामने माँ की किसी भी इच्छा का कोई मूल्य नहीं है। चारु के होते हुये भी वे अपना वारिस किसी लड़के को बनाना चाहते हैं। माँ अपने भतीजे को गोद लेना चाहती है परंतु पिता अपने भाई के लड़के दीपक को ही अपना वारिस घोषित करते हैं।
चारुलता की माँ सब कुछ समझती है, परंतु विद्रोह करने का साहस नहीं कर पाती क्योंकि ना तो वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है और ना ही उनकी मानसिक बनावट इस प्रकार की है। एक तरह से चारु अपनी माँ की प्रतिक्रियावादी अभिव्यक्ति है ।
उपन्यास का प्रत्येक पात्र एकाकीपन से ग्रसित है। चाहे वह बाबा हों, चारुलता, नीरु दीदी या फिर हिमांशु या मृत्युंजय ही क्यों ना हो।
बाबा का जीवन एक सामान्य व्यक्ति का जीवन है। जीवन की जटिलताओं में जकड़ा हुआ व्यक्ति जिसका अपने होने और करने पर कोई अधिकार नहीं होता। वे कहते हैं -‘ सच कहता हूँ चारु को ई ऐसी ताकत है जो हमसे बड़ी है। वह हमें वह नहीं रहने देना चाहती जो हम हैं। वह हमें वही बनाती है जो हम कभी बनना नहीं चाहते रहे होंगे।’
बाबा के जीवन में माँ है और वे उनके प्रति जिम्मेदार भी हैं। परंतु फिर भी उनके अंदर एक रिक्तता है। इसी को भरने के उद्देश्य से वे ज्योति पाठक से जुड़ते हैं और कहीं ना कहीं नीरु दीदी से भी जुड़े हुये हैं। परंतु अंततः अकेले ही हैं। चारुलता एवं हिमांशु भी साथ-साथ होते हुये मन से साथ नहीं हैं। अतःअलग हो जाते हैं।
उपन्यास की एक मुख्य पात्र नीरु दीदी को भी अपने जीवन में किसी के आने का इंतजार है परंतु कोई ऐसा आए जिसका आना ‘छल’ न हो।
नीरु दीदी ने साहित्य को पढ़ा ही नहीं, जिया भी है। उनके चिंतन में गंभीरता है। वह मेधा पाटकर के जीवन संघर्ष से प्रेरित हैं परंतु इस बात को समझती हैं कि सबके जीवन का संघर्ष अलग-अलग स्तर का होता है। वह चारु से कहती हैं-‘चारुलता जीवन इतना ही नहीं है जितना दिखता है। जीवन वह भी है जो नहीं दिखता।’
नीरु दीदी समाजवादी सामाजिक कार्यकर्ता रक्तिम दा के संपर्क में आती हैं। उनके माध्यम से लेखिका ने समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया है। रक्तिम दा मेधावी और प्रतिभावान थे परंतु उन्होंने अपना जीवन हाशिये पर रहने वाले पिछड़े एवं वंचित लोगों के उत्थान के लिये न्यौछावर कर दिया। जब व्यक्ति ‘स्व’ से आगे बढ़ेगा तभी देश और समाज के लिये कुछ कर पायेगा। एक बड़ा जीवन जी पायेगा। इसी संदर्भ में एक जगह नीरु दीदी चारुलता से संवाद करते हुए कहती हैं -‘तृष्णा किसके जीवन में नहीं होती। पर तृष्णा छोड़ना इतना आसान नहीं। हर पल लड़ना पड़ता है। जीवन में जो हर पल लड़ता है खुद से, उसी के हिस्से में सब कुछ आता है। जिसे हम आस्था कहते हैं।’
नीरु का चरित्र परिपक्व है। वे सही एवं गलत में भेद कर पाती हैं और किसी से भी विद्वेष नहीं रखतीं। चारुलता के मित्र हिमांशु के बारे में उपन्यास के उत्तरार्द्ध में वे कहती हैं –‘मैं तो पहले ही दिन से जानती थी हिमांशु तो वह है मतलब जो नदी होती है न, उसके ऊपर का उथला जल। नीचे साफ स्वच्छ गहरा पानी होता है। रक्तिम दा जैसे लोग गहरे पानी का जल थे।’
नीरु रविंद्रनाथ के साहित्य एवं जीवन से प्रभावित है। वह कहती हैं – ‘कितना अकेलापन भोगा है रवीन्द्र बाबू ने।’
लेखिका ने मृत्युंजय के माध्यम उन व्यक्तियों के जीवन पर प्रकाश डाला है जो अपनी शक्ति एवं जुनून के साथ देश एवं समाज के लिये कार्य करते हैं पर समाज उनकी नोटिस नहीं लेता और वे जीवन से ही निराश हो जाते हैं।
उपन्यास बहुत पठनीय है पढ़ते हुये पाठक का मन उसमें रम जाता है। उन्नीसवां बसंत, बीसवा बसंत एक जैसे ही लगते हैं परंतु मन के अंदर हमारी चेतना में उस समय के अंतराल में जो परिवर्तन होते हैं वे ही उन्हें विशेष बनाते हैं। लेखिका ने इसके माध्यम से पात्रों के मन की गहराइयों में उतरने की कोशिश की है और सफल भी हुई हैं। लेखिका ने पात्रों की मनःस्थिति को कुशल चितेरे की भांति उपन्यास के पन्नों पर उकेर दिया है।
लेखिका ने कोलकाता शहर के गली-चौराहों का इतना सजीव विवरण प्रस्तुत किया है कि पाठक स्वयं को वहाँ घूमता हुआ महसूस करता है।
उपन्यास के उत्तरार्द्ध में नीरु दीदी के पत्रों के माध्यम से लेखिका ने जीवन के कुछ अहम मुद्दों पर प्रकाश डाला है जो बहुत ही प्रभावशाली एवं तार्किक हैं। साथ ही ये पत्र जीवन, समाज, धर्म, साहित्य के प्रति लेखिका के गहन चिंतन एवं संतुलित दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं।
लेखिका ने नीरु और चारुलता के पत्रों के माध्यम से विविध बातों पर रौशनी डाली है। एक पत्र में नीरु दीदी कहती हैं- ‘कवि को अपने कवि होने का पक्का आश्वासन अपने अंदर से ही मिलता है। कवि को अपनी लड़खड़ाती मगर अदम्य आस्था से ही उसे प्रेरणा एवं शक्ति दोनों मिलती है।’
कुछ पंक्तियाँ पाठक को भावुक भी कर देती हैं जैसे चारु को लिखे गये एक पत्र में नीरु लिखती हैं-‘वहाँ तेज बारिश के साथ ओले बरसे हैं पर यहाँ दिन का तापमान 42 है। क्या तुम कुछ ओले भेज सकती हो।’
यह उपन्यास मूलतः औसत मनुष्य के औसत जीवन में स्वयं को तलाशने का उपन्यास है। मनुष्य चाहता कुछ है और हो कुछ और जाता है।यह चाहने और होने के बीच की कशमकश का उपन्यास है। यह एक तरफ जीवन के छिछलेपन और दूसरी तरफ उसमें उतर कर मिलने वाली गहराई का उपन्यास है। जीवन साहित्य से भिन्न है परंतु साहित्य से जीवन संवरता है, उसमें गंभीरता आती है, इस बात की ओर इंगित करता हुआ उपन्यास है। हमारे ऊपर एक अदृश्य सत्ता का भी प्रभुत्व इस बात को मानने का उपन्यास है। उपन्यास में कहीं-कहीं डायरी शैली का प्रयोग किया गया है और कहीं-कहीं पत्र शैली का। पत्रों के माध्यम से जीवन, समाज, धर्म संबंधित गूढ़ रहस्यों को सहज एवं प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया गया है। नीरु द्वारा चारु को लिखे गये पत्र अर्थपूर्ण, सघन एवं हृदय स्पर्शी है।
लेखिका की शैली बातूनी है। उनका प्रत्येक पात्र मुखर है। वह बात करना चाहता है और खूब बात करता है और हर विषय पर बात करता है।उपन्यास में किसी विशेष घटना का उल्लेख नहीं है। ना ही कोई समस्या है और ना ही कोई समाधान प्रस्तुत किया गया है। पात्रों के जीवन में सामान्य घटनायें घटती हैं और उससे उनके जीवन में पड़ने वाले प्रभाव एवं फलस्वरुप आने वाले बदलावों का वर्णन है।
कुल मिलाकर उपन्यास को किसी एक कटघरे में रखना मुश्किल है। वह कभी मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ समझता प्रतीत होता है तो कभी जीवन दर्शन प्रस्तुत करता है। कभी सामाजिक विसंगतियों की बात करता है तो कभी व्यक्ति के अंतर्द्वंद्व को दर्शाता है। उपन्यास पढ़ते हुये पाठक आत्ममंथन करता चलता है और समाज को एक नई दृष्टि से देखने की कोशिश करता है जोकि उपन्यास की सफलता है।
उपन्यास : उन्नीसवीं बारिश
लेखक – शर्मिला जालान
(प्रथम संस्करण- 2022)
प्रकाशक:- सेतु प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य- ₹260