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मिट्टी न मिलने से संकट में निजामाबाद की अनूठी  विरासत !

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विजय विनीत

आज़मगढ़। निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले का एक छोटा कस्बा है, जो अपनी अनूठी काली मिट्टी के बर्तनों की कला के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। इस कला की जड़ें सैकड़ों साल पुरानी हैं, और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी ने संजोकर रखा है।

यहां के कारीगरों ने इस कला को न केवल संरक्षित किया, बल्कि उसे वैश्विक पहचान भी दिलाई। इन कारीगरों द्वारा बनाए गए काले चमकदार बर्तनों पर चांदी से जटिल पुष्प और ज्यामितीय पैटर्न उकेरे जाते हैं, जो इन्हें विशिष्ट बनाते हैं।

हालांकि, आज इस कला का भविष्य अनिश्चित है। मिट्टी और अन्य कच्चे माल की बढ़ती कीमतें, बिजली की समस्या और बाजार की कमी ने इस पारंपरिक शिल्प को संकट में डाल दिया है। पहले जो मिट्टी 300-400 रुपये प्रति ट्रैक्टर मिलती थी, आज उसकी आधी मात्रा 2500 रुपये तक बिक रही है।

इसके साथ ही, नक्काशी के लिए इस्तेमाल होने वाले जस्ता, सीसा, और पारे की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। पारा, जो पहले 6000 से 8000 रुपये प्रति किलो मिलता था, अब 14,000 रुपये प्रति किलो तक पहुंच चुका है।

38 वर्षीय पुष्पा प्रजापति, जिन्हें इस साल राज्य शिल्पी अवार्ड से सम्मानित किया गया, कहती हैं, “हमारी सबसे बड़ी समस्या मिट्टी और बिजली की है। बिना मिट्टी के हम क्या करेंगे?”

उनका परिवार पूरी तरह इस शिल्प पर निर्भर है, और मिट्टी की कमी ने उनके काम को बुरी तरह प्रभावित किया है। उनके पति बैजनाथ प्रजापति बताते हैं कि ब्लैक पॉटरी को पकाने के लिए भट्ठी में 15-16 दिन लगते हैं, जो ईंधन की खपत को भी बढ़ाता है।

निजामाबाद आज़मगढ़ जिले से करीब 25 किमी दूर है, जहां करीब 500 कारीगर इस कला को जिंदा किए हुए हैं। यह मुगलों के समय का एक पुराना कस्बा है, जिसे पहले हनुमंतगढ़ कहा जाता था और बाद में आक्रमणकारियों ने इसका नाम बदलकर निजामाबाद कर दिया। यहां की ब्लैक पॉटरी काज़ी वंश मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के समय में उभरी।

इतिहासकारों के मुताबिक साल 1696 से 1697 के बीच अब्दुल फराह, गुजरात से काली मिट्टी का बर्तन बनाने वाले कुछ कारीगरों को अपने साथ निज़ामाबाद लेकर आए। उन्होंने कलाकारों को काली मिट्टी का बर्तन और फूलदान बनाने के लिए प्रेरित किया, जो किसी हद तक फारसी शैली से प्रभावित थे।

धीरे-धीरे, कुशल कारीगरों ने राख और धुएं के माध्यम से काली छटा जोड़ने की तकनीक खोजी, जिसके चलते काली मिट्टी के बर्तन का उदय हुआ। बाद में निजामाबाद कस्बे के प्रजापति समुदाय ने इस कला को विकसित किया और इसे आगे बढ़ाया।”

निजामाबाद में हम कुम्हारों के मुहल्ले में पहुंचे तो सभी मर्द और औरतें बर्तन बनाने में व्यस्त थे। संभवतः दिवाली नजदीक होने की वजह से कुम्हारों का पूरा परिवार मिट्टी का बर्तन बनाने और सुखाने में व्यस्त था। तमाम बर्तन सूखने के लिए कतारों में रखे हुए थे।

हर तरफ चहल-पहल थी। हम अचानक नाथ पॉटरी उद्योग के अंदर पहुंचे तो हमारी मुकालात पुष्पा से हुई। वह बर्तनों पर नक्कासी कर रही थीं और उनके पति बैजनाथ प्रजापति चाक पर मिट्टी के बर्तन बना रहे थे। वहीं कुछ अन्य कारीगर मिट्टी के बर्तनों को सुखाने और आंवा तैयार करने में जुटे थे।

36 वर्षीया पुष्पा को प्रदेश सरकार ने इसी साल आठ फरवरी को राज्य शिल्पी अवार्ड से नावाजा है। वह कहती हैं, “हम कुम्हार हैं और मिट्टी ही हमारे लिए सब कुछ है। हम पोखरी की काली मिट्टी से बर्तन और दूसरे उत्पाद बनाते हैं। सबसे बड़ी दिक्कत मिट्टी और महंगी बिजली की है”।

“मिट्टी के बिना हम क्या करेंगे? नक्काशी को चांदी जैसा रंग देने के लिए मिट्टी के बर्तनों में खांचे भरने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले जस्ता, सीसा और पारे की कीमत भी पिछले दो-तीन सालों में काफी बढ़ गई है।”

“पारंपरिक भट्टी, जिसे आवान के नाम से जाना जाता है, में एक बार में 5,000 तक छोटे लाल मिट्टी के बर्तन बनाए जा सकते हैं। दूसरी ओर, काली मिट्टी के बर्तनों के लिए भट्ठी में एक बार में 250 से 300 पीस बनते हैं।

जहां लाल मिट्टी के बर्तनों को पूरी तरह से पकाने में सिर्फ़ एक या दो दिन लगते हैं, वहीं काली मिट्टी के बर्तनों को पकाने में 15 से 16 दिन लगते हैं, जिससे ईंधन की खपत कई गुना बढ़ जाती है।”

पुष्पा के पति बैजनाथ प्रजापति नाथ पॉटरी उद्योग के मालिक हैं। प्रदेश सरकार ने इन्हें भी शिल्प कलाकार का अवार्ड दिया है। अपने कारोबार को लेकर वो ढेरों समस्याएं गिनाते हैं।

बैजनाथ कहते हैं, “मुबारकपुर के बुनकरों को सस्ती बिजली मिलती है और हमें व्यावसायिक रेट पर। पहले हाथ की चाक हुआ करती थी और अब ये बिजली से चलती है। समय से बिल अदा न करें तो धंधा ठप हो जाता है। बिजली का बिल भरते-भरते हालत खराब हो जाया करती है”।

“हम काली मिट्टी का फूलदान, गिलास, प्लेट, अगरबत्ती होल्डर, कप, थाली और कई तरह की मूर्तियां बनाते हैं। दिवाली नजदीक है, तो काम थोड़ा ठीक है, अन्यथा पूरे साल बस किसी तरह से धंधा चलता है। कई बार जब माल नहीं बिक पाता तो घर चलाना मुश्किल हो जाता है।”

“ब्लैक पॉटरी को आगे बढ़ाने के लिए सरकार ने कुछ सुविधाएं जरूर दी है। इस धंधे में कारीगर बहुत ज्यादा हैं, लेकिन सिर्फ 27 लोगों को ही मिट्टी के लिए जमीन का पट्टा मिल पाया है। जो जमीन दी गई है, वहां तहसील भवन है। सुंदरीकरण के नाम पर उस जमीन पर कब्जा कर लिया गया और वहां तालाब बना दिया गया”।

“हम जो मिट्टी खरीदते हैं, उसकी गुणवत्ता ठीक नहीं है। कारीगरों को मिट्टी को कई बार प्रोसेस करना पड़ता है। मिट्टी को पहले छानते हैं और बाद में उससे घड़े और बर्तन बनाते हैं। फिर उसे पाउडर किए गए वनस्पति पदार्थ से धोया जाता है। बाद में सरसों के तेल से रगड़ा जाता है। बर्तन को एक दिन सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है।”

बैजनाथ कहते हैं, “बर्तन को सुंदर बनाने के लिए तेज लकड़ी की छड़ों से जटिल नक्काशी की जाती है। चाक पर गढ़े गए बर्तनों को चावल के भूसे के साथ बंद भट्ठियों में रखा जाता है, जो उन्हें काली रंगत और अनोखी चमक प्रदान करती है।

छड़ों द्वारा बनाए गए grooves को जस्ता, सीसा और पारा के मिश्रण से भरा जाता है, ताकि अंतिम चमक प्राप्त हो सके, और फिर बर्तन को कई बार पॉलिश किया जाता है। ब्लैक पॉटरी का अनोखा सफर जितना चमकदार लगता है, उतना ही जटिल और बोझिल है।

अमेजन के जरिये हमने काम शुरू किया, लेकिन भारी घाटा उठाना पड़ा। पैकेजिंग की अच्छी व्यवस्था नहीं होने के कारण ग्राहकों तक उत्पाद सही सलामत नहीं पहुंच पाता है।”

बैजनाथ और पुष्पा के साथ उनके पुत्र सत्यम, शिवम, पुत्री सोम्या व अंशिका भी ब्लैक पॉटरी के अच्छे कलाकार बन गए हैं, लेकिन वो भविष्य में इस धंधे से जुड़कर काम करना नहीं चाहते। सत्यम ने फार्मेसी का कोर्स किया है और वह जाब की तलाश में है।

बैजनाथ कहते हैं, “हम भी नहीं चाहते कि हमारे बच्चे इस धंधे में आएं। मिट्टी के काम में कोई इज्जत नहीं है। इस धंधे में हमारी कई पीढ़ियां गुजर गईं और हमारे बाद इस कारोबार को शायद ही कोई आगे बढ़ा पाएगा।”

युवा कारीगर आनंद कहते हैं कि पहले उनके पिता और दादा मिट्टी को सिर्फ़ एक बार छानते थे, उसके बाद ही वे इस पर काम करते थे। ब्लैक पॉटरी के लिए विपणन या सरकारी खरीद की व्यवस्था नहीं है, जिसके चलते कलाकारों के सामने कई बार भूखों मरने की नौबत आ जाती है।

इस धंधे से जुड़े शिल्प कलाकार मिट्टी और पेड़ की छाल जैसे बुनियादी कच्चे माल के लिए हमेशा संघर्ष करते रहते हैं। निजामाबाद के काले मिट्टी के बर्तनों को सरकार की एक जिला, एक उत्पाद (ODOP) पहल और भौगोलिक संकेत टैग योजना के तहत पंजीकृत किया गया है।

हालांकि, इसके बावजूद, निजामाबाद बाजार में बसे शिल्पकारों के लगभग 250 परिवार जीवित रहने और अपनी कला को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारी शायद ही कभी उनसे मिलने आते हैं।

मिट्टी के कलाकार अंकित कहते हैं, “हमें व्यावसायिक दरों पर बिजली मिलती है। “अगर सरकार हमारे काम को बढ़ावा देना चाहती है, तो कम से कम उन्हें हमें सस्ती दरों पर बिजली देनी चाहिए। महंगाई और कच्चे माल की कमी के संकट से लगातार जूझ रहे कारीगर बहुत लंबे समय तक इस खूबसूरत कला की विरासत को शायद जीवित नहीं रख पाएंगे?”

“निजामाबाद की कंचन चाक पर खूबसूरत आकृतियां गढ़ लेती हैं। वह कहती हैं, “हमने बेडियों को तोड़ा है। पुरुषों की तरह मैं भी अच्छे बर्तन और खिलौने बनाती हूं। कई बार रूढ़ियां टूट जाती हैं लेकिन रूढ़ियों के कथानक बने रह जाते हैं जो कई पीढ़ियों तक चलते रहते हैं।”

बीसवीं सदी की शुरुआत में ही आजमगढ़ शहर रेल नेटवर्क से जुड़ गया था। यह शहर बनारस, जौनपुर, गाजीपुर और गोरखपुर के बीच स्थित है, लेकिन इसके बावजूद न तो यह प्रशासनिक शहर बन पाया और न ही व्यापारिक या औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।

यह एक ग्रामीण रूप में ही रह गया। छोटे और गरीब किसान रोज़गार के लिए शहरों की ओर जाने को मजबूर हुए, जबकि बड़े किसानों ने बनारस और इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों का रुख किया। मध्यवर्ग की कमी के कारण शहर में आर्थिक गतिविधियां भी न के बराबर रहीं, जिससे समृद्धि की संभावनाएं थम सी गईं।

इन हालातों में आजमगढ़ के शिल्पकारों के लिए अपनी कला और जीवन को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती बन गया। खासकर 1980 के बाद का दौर न केवल निज़ामाबाद के कुम्हारों की जिंदगी पर भारी पड़ा, बल्कि मऊनाथ भंजन के कस्बों और गांवों में रहने वाले जुलाहों के लिए भी मुश्किलें बढ़ गईं।

इन कठिनाइयों के बावजूद, निज़ामाबाद के कुम्हारों ने अपनी सामाजिक स्थिति को संभाले रखा और कला को जीवित रखने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे।

आजमगढ़ में कुम्हारों की जिंदगी और उनकी कला के लिए मिट्टी तैयार करने की प्रक्रिया शुरू से ही बहुत खास रही है। पहले मिट्टी को अच्छे से कूटकर उसे तैयार किया जाता है, और उसमें एक खास तरह का मिश्रण जिसे ‘काबिज’ कहा जाता है, डाला जाता है।

यह काबिज आमतौर पर आम के पेड़ की छाल, अड़ुस की पत्तियां, बांस की पत्तियां, लाल रंग की अड़िछी मिट्टी और सोडा मिलाकर बनाया जाता है। इन सभी चीजों को मिलाकर एक पेस्ट तैयार किया जाता है, जिसे सूखने के बाद ओखली में कूटा जाता है। यह मिश्रण मिट्टी में चिकनाई और मजबूती लाता है, जिससे मिट्टी बर्तन बनाने के लायक हो जाती है।

बर्तन बनने के बाद इन्हें घिसा और छिला जाता है, फिर धीरे-धीरे सुखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ‘आवां’ बनाना, यानी बर्तन पकाने की भट्टी तैयार करना। निजामाबाद के कुम्हार लकड़ी के कोयले या खदानों के कोयले का इस्तेमाल नहीं करते।

वे सूखी लकड़ी भी इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उसमें पानी का अंश होता है जो तापमान को सही तरीके से नियंत्रित नहीं कर पाता। इस काम के लिए गोबर के कंडे और पुआल का इस्तेमाल सबसे बेहतर माना जाता है, क्योंकि यह तापमान को 800 डिग्री सेल्सियस पर स्थिर रखता है,

जो काले बर्तनों को बनाने के लिए आदर्श है। अगर तापमान 900 डिग्री तक बढ़ जाए, तो बर्तन का रंग लाल हो जाता है, और अगर 700 से कम हो जाए तो यह भूरा हो जाता है।

रामजतन प्रजापति, जो एक अनुभवी कुम्हार हैं, बताते हैं कि बर्तनों को पकाने के लिए आवां लोहे की गोल जाली पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर बनाया जाता है। खास बात यह है कि एक बार जब इसमें आग दे दी जाती है, तो अंदर ऑक्सीजन का प्रवेश नहीं होता, जिससे बर्तनों को उचित ताप और मजबूती मिलती है।

जब आवां ठंडा हो जाता है, तब बर्तनों को बाहर निकालकर उन पर पारा और शीशे का मिश्रण घिसा जाता है। इससे बर्तनों पर बने चित्र और रेखाएं उभर आती हैं, और बर्तन का गहरा काला रंग सामने आता है।

शिल्प और समाज की बदलती सच्चाई

आजमगढ़ के कुम्हारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है परंपरागत शिल्प को जीवित रखना। 1980 के बाद, जब गांवों की जजमानी प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई, तो शिल्पकार जातियों के लिए नए रास्ते ढूंढना अनिवार्य हो गया। सरकार की योजनाओं और हस्तक्षेपों ने अधिकतर बिचौलियों को बढ़ावा दिया, जिससे कुम्हार समुदाय को सीधा फायदा नहीं मिल सका।

उदाहरण के तौर पर, राम नरेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते हुए एक शिल्प विकास केंद्र की स्थापना की, लेकिन लखनऊ में होने के कारण इसका लाभ आजमगढ़ के शिल्पकारों तक नहीं पहुंच सका।

निज़ामाबाद की काली मिट्टी के बर्तन बनाने की कला कई पीढ़ियों से चली आ रही है। इस कला की बुनियाद कठिन परिश्रम और धैर्य पर टिकी है। 39 वर्षीय अंगद प्रजापति बताते हैं, “किसी भी चीज़ में निखार लाने के लिए उसे पूरी रात तपाया जाता है। काला बर्तन बनाने की प्रक्रिया बेहद लंबी और मेहनत से भरी होती है। इससे पहले बर्तनों को एक खास लेप से रंगा जाता है और सरसों का तेल लगाकर रातभर भट्टी में तपाया जाता है”।

“भट्टी के तापमान को नियंत्रित रखना बेहद जरूरी है क्योंकि इसमें ऑक्सीजन नहीं दी जाती, जिससे बर्तन अपने विशिष्ट काले रंग में बदल जाते हैं। बर्तन पूरी तरह पक जाने के बाद उन पर चांदी के तारों से खूबसूरत डिज़ाइन बनाए जाते हैं। यह प्रक्रिया बिड्रीवेयर कला से प्रेरित है, जो मध्यकालीन काल में लोकप्रिय थी। इन बर्तनों को और भी आकर्षक बनाने के लिए उनमें सीसा, पारा और जस्ता का उपयोग किया जाता है, जिससे वे चमकदार दिखते हैं।”

कला की पहचान और ख्याति

निजामाबाद की ब्लैक पाटरी को साल 2015 में भौगोलिक संकेत (GI) टैग मिला, जिसने इसकी पहचान को और भी मजबूत किया। कलाकारों के मुताबिक, साल 2022 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जापान के प्रधानमंत्री को इसी कला का एक काला बर्तन उपहार में दिया, तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस कला की ख्याति बढ़ी। इससे कारीगरों के लिए नए अवसर खुलने लगे।

उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘एक जिला, एक उत्पाद’ (ODOP) योजना के तहत इस कला को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। स्थानीय स्तर पर शिल्प केंद्रों की स्थापना की गई, जहां कारीगरों को अपने काम के लिए जरूरी उपकरण और प्रशिक्षण मिल रहा है। इससे उन्हें अपनी कला को बचाए रखने में बड़ी मदद मिली है।

35 वर्षीय सरिता प्रजापति बताती हैं, “इन केंद्रों की मदद से अब हमारे पास बर्तन बनाने के लिए पर्याप्त साधन हैं। जिनके पास खुद के संसाधन नहीं हैं, वे भी अब अपनी कला को निखार सकते हैं। हमारा परिवार पारंपरिक तौर पर सदियों से इस धंधे से जुड़ा है”।

“यह सिर्फ एक आजीविका नहीं, बल्कि उनकी पहचान है। दिवाली नजदीक है तो काले मिट्टी के बर्तनों की मांग में बढ़ी है। बड़े शहरों में एक 10 इंच का फूलदान 1500 रुपये में बिकता है, जबकि बड़े बर्तन हज़ारों में बिकते हैं”।

निज़ामाबाद के काले मिट्टी के बर्तन अब न केवल उत्तर प्रदेश या भारत तक सीमित हैं, बल्कि यह कला विश्वभर में सराही जा रही है। बर्तनों पर जड़ी चांदी की नक्काशी और उनका काला चमकदार रंग, इनकी खूबसूरती को और भी बढ़ाता है। यह कला न केवल एक परंपरा है, बल्कि यह इस क्षेत्र की पहचान और संस्कृति का प्रतीक है।

अब यह कला नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर है, और इसके माध्यम से कारीगरों को आजीविका के साथ-साथ सम्मान और पहचान भी मिल रही है।

निजामाबाद की काली बर्तनकारी अब भी वैश्विक बाजार में जगह बनाने का दम रखती है। दरअसल, इसकी काली रंगत ही नहीं, बल्कि मिट्टी को परिष्कृत करने की प्रक्रिया भी अद्वितीय है। कभी-कभी, बकरी के दूध को मिलाया जाता है और मिट्टी को दिन-रात छाना जाता है ताकि पूरी तरह से शुद्ध मिट्टी प्राप्त की जा सके।

आज़मगढ़ के प्रजापति समुदाय ने इस मरते हुए कला को पुनर्जीवित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन यदि बाकी समुदाय इसे नजरअंदाज करते रहे तो यह कला आगे नहीं बढ़ सकेगी।

आजमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार अमित राय कहते हैं, “औरंगजेब के समय में निजामाबाद की इस कला का सुनहरा युग था। जब इंग्लैंड की रानी भारत आईं, तो उन्होंने इस समुदाय की दुकानों का दौरा किया और उनकी कला की सराहना की। काली बर्तनकारी भारत की उन कई हस्तशिल्पों में से एक है जो विलुप्त होने के कगार पर है।

इस वर्ष की शुरुआत में, कारीगरों को मिट्टी की कमी का सामना करना पड़ा। मिट्टी की कमी कारीगरों को बेहतर रोजगार के अवसरों की खोज में प्रवास करने के लिए मजबूर कर रही है, जिससे इस अद्वितीय कला का भविष्य खतरे में पड़ रहा है।

अमित कहते हैं, “शिल्पकार समुदाय को न केवल अपनी कला को जीवित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, बल्कि उन्हें आधुनिक तकनीकों का ज्ञान भी नहीं मिल पाता। परिवारों के पास अपनी पीढ़ियों से सीखा हुआ परंपरागत ज्ञान तो है, लेकिन उस ज्ञान को नई ऊंचाइयों तक ले जाने के लिए उन्हें प्रशिक्षण और बाजार की जरूरत है”।

“निजामाबाद जैसे इलाकों में कोई शिल्प प्रशिक्षण केंद्र नहीं है, जो इस प्रसिद्ध कला को संरक्षित और समृद्ध कर सके। यह विडंबना है कि सरकारें हमेशा बड़े व्यापार और उद्योगों को प्राथमिकता देती हैं, जबकि शिल्पकारों की अनदेखी की जाती है। कला का सम्मान तो किया जाता है, लेकिन कलाकारों का नहीं”।

“यही कारण है कि कई जगहों पर कला धीरे-धीरे मरने के कगार पर है। यदि हम इस स्थिति को नहीं बदलते, तो भविष्य में न केवल कला खत्म होगी, बल्कि उसके साथ जुड़ी पूरी विरासत भी नष्ट हो जाएगी”।

निजामाबाद के उद्यमी शिल्पकार बैजनाथ प्रजापति, संजय यादव, सोहित कुमार प्रजापति, शिवरतन प्रजापति, शिवजतन प्रजापति, बाबूलाल प्रजापति चाहते हैं कि हम लोगों की ब्लैक पॉटरी के लिए मिट्टी की व्यवस्था की जाए।

ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों को मिट्टी मिले और हम लोग अपना व्यवसाय सही तरीके से कर सकें। शासन ने ओडीओपी के तहत निजामाबाद में सामान्य सुविधा केंद्र का निर्माण कराया है।

कुल मिलाकर, आजमगढ़ के कुम्हारों की यह अनूठी कला न केवल उनके जीवन का हिस्सा है, बल्कि यह हमारे समाज की सांस्कृतिक धरोहर भी है। इसे बचाने और समृद्ध करने के लिए हमें न केवल आधुनिक तकनीक का सहारा लेना होगा, बल्कि उन कलाकारों को भी प्रोत्साहन और सही दिशा देनी होगी, जो इसे पीढ़ियों से संजोए हुए हैं।

यदि इस समुदाय को सही दिशा में समर्थन और संसाधन मिले, तो निश्चित रूप से कुम्हारों की कला एक बार फिर से न केवल स्थानीय बाजार में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी पहचान हासिल कर सकती है। इससे न सिर्फ कुम्हारों का आर्थिक विकास होगा, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में भी मदद करेगा।

सरकार की जिम्मेदारी

निजामाबाद के ब्लैक पाटरी के कलाकार रामजतन प्रजापति कहते हैं, “कुम्हारों की स्थिति पिछले 20 सालों में बदतर हुई है। उन्होंने सांसदों और सरकारी प्रतिनिधियों से मिलकर अपनी समस्याएं रखीं और कुछ हद तक समाधान पाया। मिट्टी की समस्या हल होने लगी है और सरकार ने उन्हें स्थान भी प्रदान किया है”।

“हालांकि, सीधी सहायता की कमी बनी हुई है। यहां कॉमन फैसिलिटी सेंटर का निर्माण किया गया है, लेकिन यह सजावटी और कलात्मक बर्तनों के लिए उपयुक्त नहीं है। सरकार की योजनाएं ज्यादातर एनजीओ के माध्यम से आती हैं, जिससे उन्हें सीधे मदद नहीं मिलती। मिट्टी के बर्तनों की मांग कुछ पर्वों पर बढ़ती है, जैसे छठ पूजा या कांवड़ यात्रा के समय। बाकी दिनों में यह एक अनिश्चित व्यवसाय की तरह है।”

महेंद्र प्रजापति, जो इस कला से लंबे समय से जुड़े हुए हैं। वह कहते हैं, आधुनिक उपकरणों की कमी और पुरानी तकनीकों के सहारे ये कारीगर अपनी कला को जिंदा रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं। और अब तो मिट्टी तक खरीदनी पड़ती है, क्योंकि जहां से पहले मिट्टी मिलती थी, वहां दबंगों का कब्जा हो गया है”।

“उनकी कला न केवल उनकी पहचान है, बल्कि यह उनके अस्तित्व का भी सवाल है। जब उनकी कला और श्रम का मूल्यांकन नहीं होता, तो इससे उनके आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचती है। कुम्हारों को बाजार की मांग के अनुसार अपने उत्पादों को ढालना पड़ रहा है”।

“परंपरागत काले बर्तनों की मांग घट रही है, जबकि प्लास्टिक और अन्य सस्ते विकल्पों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। इससे उनके कारीगरी का मूल्य घटता जा रहा है। आर्थिक असुरक्षा और बढ़ती प्रतियोगिता के बीच, वे अपनी कला को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं”।

कृष्ण मोहन प्रजापति का कहना है, “अब तो यहां के ज्यादातर लोगों के पास इलेक्ट्रॉनिक चाक हैं, लेकिन बिना बिजली के ये किसी काम के नहीं हैं। अगर हमें ठीक से बिजली मिल जाए, तो हमारा काम बहुत आसान हो जाएगा। हमारे पास अपने बनाए सामान को बेचने के लिए कोई बाजार नहीं है”।

“अगर यहां पर मुबारकपुर की तरह कोई विपणन केंद्र बन जाए, तो हमें बड़ी राहत मिल सकती है। और अगर हमें विदेश में सामान बेचने की सुविधा मिल जाए और पासपोर्ट बन जाए, तो हम पलायन नहीं करेंगे।”

सोहित प्रजापति कहते हैं कि ब्लैक पॉटरी, जो कभी निजामाबाद की शान थी, आज सरकारी उपेक्षा और आधुनिक सुविधाओं की कमी के कारण दम तोड़ रही है। कारीगरों को उचित बाजार, आधुनिक उपकरण और लोन की आसान उपलब्धता की दरकार है।

अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाती है और इन कारीगरों को सही दिशा में मार्गदर्शन मिल जाए, तो न सिर्फ पलायन रुकेगा, बल्कि ये कला फिर से अपने सुनहरे दिनों की ओर लौट सकती है।

निजामाबाद का ब्लैक पॉटरी उद्योग आज एक गंभीर संकट का सामना कर रहा है। अगर इसे बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो इस अनमोल कला का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।

कारीगरों को बाजार, बिजली, और सरकारी मदद की सख्त जरूरत है ताकि ये उद्योग फिर से अपनी पुरानी पहचान पा सके और पलायन करने वाले कारीगर अपने घर-परिवार में रहकर अपनी जीविका कमा सकें।

संजय यादव इस समस्या के बारे में बताते हैं, “हम जिन पोखरियों से मिट्टी निकालते थे, अब वे हमारी पहुंच से बाहर हैं। हमें उम्मीद है कि प्रशासन जल्द ही इस समस्या का समाधान करेगा।”

जिला उद्योग एवं उद्यम प्रोत्साहन के सहायक आयुक्त प्रवीण कुमार मौर्य कहते हैं, “काली मिट्टी का बर्तन बनाने वाले शिल्पियों को इलेक्ट्रिक चाक दी गई है। ब्लैक पॉटरी के कार्य में लगे कुछ कलाकारों ने पहले इस धंधे को छोड़ दिया था, लेकिन ओडीओपी के अंतर्गत उन्हें इलेक्ट्रिक चाक उपलब्ध कराई गई है। इससे उन्होंने न केवल ब्लैक पॉटरी बल्कि लाल बर्तन भी बनाना शुरू कर दिया है। इससे लगभग 1300 लोग इस कार्य से जुड़ चुके हैं।”

प्रवीण कहते हैं, “हमने कई लोगों को खादी ग्रामोद्योग बोर्ड और सरकार की अन्य योजनाओं का लाभ दिलाया है। इसके माध्यम से हमें उम्मीद है कि मिट्टी खनन के लिए पोखरियों का पट्टा देने का आश्वासन एसडीएम द्वारा जल्द ही पूरा होगा। निजामाबाद के शिल्पकार अब अपनी कला को फिर से जीवित करने के लिए आशान्वित हैं”।

“ओडीओपी के तहत मिली सुविधाओं के साथ, वे अपनी मेहनत से न केवल अपने परिवारों का भरण-पोषण कर रहे हैं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी बनाए रख रहे हैं। जिन कलाकारों को पहले मिट्टी की कमी के कारण निराशा का सामना करना पड़ा, वे अब अपने उत्पादों की मेले लगाकर बिक्री करने में जुटे हैं। “

बाजार की कमी और विपणन केंद्रों का अभाव इस कला को खत्म करने के कगार पर ला रहा है। कारीगरों का मानना है कि अगर उन्हें एक अच्छा बाजार मिल जाए, तो वे इस कला को फिर से जीवित कर सकते हैं। लेकिन अभी की स्थिति में उन्हें दूसरे राज्यों या फिर शहरों में जाकर काम करना पड़ता है।

आज, ब्लैक पॉटरी की मांग में गिरावट आ रही है। प्लास्टिक और सस्ते विकल्पों की ओर बढ़ते उपभोक्ता ने पारंपरिक बर्तनों की मांग घटा दी है। हालांकि, बर्तनों पर चांदी की नक्काशी और उनका काला रंग इन्हें अद्वितीय बनाता है, लेकिन इनकी मांग को पुनर्जीवित करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप और बाजार की आवश्यकता है।

कुम्हार समुदाय का मानना है कि अगर उन्हें सही बाजार मिल जाए, तो वे इस कला को फिर से पुनर्जीवित कर सकते हैं। सरकार की मदद और उचित सुविधाओं के बिना, यह प्राचीन कला विलुप्त होने के कगार पर है।

अगर प्रशासन और सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाते हैं, तो निज़ामाबाद की ब्लैक पॉटरी न केवल स्थानीय बाजार में बल्कि वैश्विक स्तर पर अपनी खोई हुई पहचान वापस पा सकती है। निजामाबाद की ब्लैक पॉटरी केवल एक कला नहीं है, बल्कि यह स्थानीय संस्कृति और पहचान का प्रतीक है।

ओडीओपी योजना ने इसे नई पहचान दी है, लेकिन इसके साथ ही मिट्टी की समस्या का समाधान भी उतना ही जरूरी है। यदि प्रशासन इस दिशा में कदम बढ़ाता है, तो आने वाले समय में निजामाबाद की ब्लैक पॉटरी एक बार फिर से विश्व मंच पर अपनी विशिष्ट पहचान बना सकती है।

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