शशिकांत गुप्ते
आज यकायक 1964 में प्रदर्शित फ़िल्म लीडर यह गीत सुनाई दिया। इसे लिखा है गीतकार शकील बदायुनी ने।
मुझे दुनिया वालों, शराबी ना समझो
मैं पीता नहीं हूँ, पिलाई गई है
जहाँ बेखुदी में कदम लड़खड़ाए
वो ही राह मुझको दिखाई गई है
कदम लड़खड़ाने का कारण सिर्फ शराब का नशा ही नहीं होता है।
इनदिनों एक बहुत धीमी गति से असर करने वाला नशा परोसा जा रहा है। यह नशा है भ्रम का नशा।
यह नशा अदृश्य होता है।
इस नशे को पिलाने के लिए किसी को ना ही नजरबंद करने की जरूरत होती है,ना ही सम्मोहन करना पड़त है। यह नशा मुँह से नहीं पिलाया जाता है। यह नशा वाकचातुर्य से सीधे आमजन के मानस पर तीव्र असर करता है। एक बार इस नशे का असर हो जाए तो मानव को अपनी बुनियादी अनिवार्य आवश्यकताएं दिखाई नहीं देती है।
मानव इस नशे का इतना आदी हो जाता है कि, मानव बेरोजगारी,भुखमरी,आसमान को छूती महंगाई का Supporter, मतलब समर्थक बन जाता है।
इस नशे की सबसे बड़ी खासियत यह है कि, आमजन के मानस से यह नशा प्रत्यक्ष में घटित तमाम त्रासदी की घटनाओं की विस्मृति कर देता है। वाहन के चपेट में आने वाले कृषक,नदी में तैरती लाशे,प्रशासनिक लापरवाही, ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मृत्य,स्त्री अत्याचार ऐसे जघन्य घटनाएं आमजन सब भूल जाता है।
गीत निम्न पंक्तियों में जो लिखा है वह यथार्थ भी आमजन के समझमें नहीं आता है।
ज़माने के यारों, चलन हैं निराले
यहा तन हैं उजले, मगर दिल हैं काले
ये दुनिया है दुनिया, यहाँ मालोज़र में
दिलों की खराबी छुपाई गई है
भ्रम के नशे के कारण उक्त पंक्तियों में जो यथार्थ लिखा वह सब महसूस ही नहीं होता है।
नशे के बहुत प्रकार है।
किसी को नशा है,जहाँ में खुशी का
किसी को नशा है,गम-ए-जिंदगी का
कोई पी रहा हैं, लहू आदमी का
हर इक दिल में मस्ती रचाई गई है
उक्त सभी प्रकार का नशा करने वाले ही आमजन को भ्रम नशा परोसते हैं। इन लोगों का मार्केटिंग का तरीका बहुत ही लाजवाब होता है। यह नशा विभिन्न प्रकार के वादों के विज्ञापनों में अदृश्य छिपा होता है। यह नशा वैसे असर करता है,जैसे सावन के अंधों को हरा ही हरा नजर आता है।
यह नशा मानव के मानस पर धार्मिकता का बहुत गहरा असर करता है। इसीलिए इस भ्रम के नशे के आदी लोग राम भरोसे अवलंबित हो जातें हैं।
शशिकांत गुप्ते इंदौर