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 नहीं मदनी साहब, नहीं !

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 कुमार प्रशांत 

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के एक धड़े के अध्यक्ष और  भारतीय मुसलमानों की सशक्त व विवेकसम्मत आवाज़ मौलाना महमूद मदनी साहब से मैं कहना चाहता हूं कि अभी-अभी देवबंद में की गयी आपकी तक़रीर न देश के हित में थी, न मुसलमानों के और  न विवेक के. क्रोध और  असहायता मनुष्य को इस कदर कमजोर कर देती है कि वह खुद खुद को संभाल नहीं पाता है. ऐसा ही उस रोज मदनी साहब के साथ भी हुआ. 

मैं जानता हूं कि मुल्क में इन दिनों हवा ऐसी बह रही है या कि बहाई जा रही है कि संयम व संतुलन रखना आसान नहीं रह गया है. मैं यह भी जानता हूं और  मुझे उसकी गहरी शर्म भी है कि हमारा मुस्लिम समाज इन दिनों गहरे तनाव में जी रहा है. वह डरा हुआ भी है, सशंकित भी है और  इन दोनों से उपजने वाली असहायता का भाव उसमें घर करता जा रहा है. ऐसी मनःस्थिति में कोई व्यक्ति रहे या समाज, वह आक्रामक दीखने की कोशिश करता ही है. हमला ही उसे हथियार लगने लगता है. ऐसा ही हमारे मुसलमान समाज के साथ हो रहा है. लेकिन क्या हो रहा है और  क्या होना चाहिए, यदि इसका विवेक हम खो देंगे तो वह देश व समाज भी खो देंगे जिसके नाम पर यह सारा कुछ रचा जा रहा है. नाजुक दौर में लचीला मन बहुत ज़रूरी होता है.

मदनी साहब ने अपनी तकरीर में कहा : “हम ज़ुल्म सह लेंगे लेकिन मुल्क पर आंच नहीं आने देंगे.”  यह कहते हुए वे इतने भावुक हो उठे कि उनकी आवाज़ रुंध गयी, आंसू निकल पड़े. उन्होंने जो कहा और उनके जो आंसू बहे, आज हमें उनकी ज़रूरत है.    यह भावुक अहसास यदि मुल्क के हर वाशिंदे के दिल में हो तो बात ही क्या ! मुल्क पर कैसी भी आंच तभी आती है जब मुल्क हमारी नजरों में नहीं रहता है. मदनी साहब ने ही आगे कहा : “मुश्किल को झेलने के लिए हौसला और ताक़त चाहिए.”  उन्होंने अपने श्रोताओं को आगाह भी किया : “ मुल्क में नफरत के खिलाड़ियों की संख्या कम है. यदि हम भी उन जैसे ही हो जाएंगे तो वे जीत जाएंगे.”  यही तो सारा खेल है मदनी साहब कि वे सबको अपने जैसा बनाना चाहते हैं. अतिवादियों को ऐसे लोगों और  ऐसे समाज से हमेशा परेशानी होती है जो मुल्क को देखता है और  इंसान को समझता है. इसलिए अतिवादियों की कोशिश होती है कि हर आदमी सन्निपात में रहे! जो होश में नहीं है उसे भीड़ में बदल लेना आसान होता है. इधर समाज भीड़ में बदला और  उधर लगाम अतिवादियों के हाथ में आयी! इस खेल में जब सत्ता भी शामिल हो जाती है तब भीड़ निर्द्ंद्व होकर आदमियों का शिकार करने लगती है. 

इसलिए मुश्किल में मदनी साहब ही नहीं हैं, मुल्क का हर बाहोश आदमी मुश्किल में है. सत्ता जब समाज का भरोसा खो देती है तब जैसी आपाधापी मचती है, हमारा मुल्क वैसी कगार पर ला खड़ा किया गया है. सत्ता के सच और  समाज के सच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है. यह खतरनाक दौर है. एक कदम फिसला, एक पल को आपने आपा खोया, एक जगह जीभ फिसली और  बेड़ा तर्क ! यह इतना खतरनाक दौर है. इसलिए मदनी साहब ने जब यह कहा कि ‘मुसलमान देश की एकता के लिए जान देता आया है और  जान देता रहेगा’ तब वे उधर भटकने लगे जिधर अतिरेकी जमात हमें ले जाना चाहती है. 

मदनी साहब जैसे क़द्दावर शख़्स को अब हिंदुस्तानी से छोटी किसी ज़बान में बात करनी ही नहीं चाहिए. मुसलमान ने नहीं, हर हिंदुस्तानी ने मुल्क की एकता के लिए जान दी है,  और  आज भी वही अपनी गर्दन आगे कर रहा है. जिन्होंने न तब गर्दन आगे की थी, न आज कर रहे हैं, वे हिंदुस्तानी नहीं हैं. ऐसे लोगों में हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं, और  दूसरे धर्मावलंबी भी. यह बात हजार-हजार कंठों बोलनी चाहिए कि ऐसे सभी अतिवादी संकीर्णता के सिपाही थे, जिन्होंने मुल्क की गर्दनें कटवायीं, देश के टुकड़े करवाये, गांधीजी को गोली मारी तथा दंगे-फसादों के रास्ते कुर्सी पानी चाही. हम वो नहीं हैं. 

मदनी साहब यह कैसे कह गये कि हमें मौक़ा मिला था पाकिस्तान जाने का लेकिन हम नहीं गये!  यह तो अधूरा सच है. बाजवक्त मुसलमानों की तरफ़ से ऐसी बात कही जाती है. कभी ऐसा कह लेने में और सुन लेने में हर्ज भी नहीं है लेकिन आज के माहौल में यह सच्चाई बयान करनी चाहिए कि मौका सिर्फ़ मुसलमानों को नहीं मिला था कि वे पाकिस्तान चले जायें, मौक़ा हिंदुओं  को भी मिला था कि वे सारे  मुसलमानों को खदेड़ कर पाकिस्तान भेज दें. लेकिन तब हिंदुओं ने जिन्ना की नहीं,  गांधी की बात सुनी जो अपनी सांसों का अंतिम तार संभाले, हर गली-नुक्कड़ से एक ही बात बोल रहे थे : दो राष्ट्रों का सिद्धांत हमने नहीं, जिन्ना साहब ने कबूल किया है. उनकी मानने वाले जितने जाना चाहें पाकिस्तान चले जायें, लेकिन जो हिंदुस्तान में रहना चुनेंगे वे पूरे हक, सम्मान व वफादारी के साथ भारत में रहेंगे और  भारतीय कहलाएंगे. पागलपन के उस दौर में भी हिंदुओं  के बहुमत ने गांधी की सुनी. मदनी साहब आप और  दूसरे मुसलमान यहां रह सके, इसकी पूरी सच्चाई यह है. इसलिए नहीं जाने वाले मुसलमानों ने इस मुल्क पर अहसान नहीं किया, इस मुल्क की भली-बुरी क़िस्मत से अपने को जोड़ा. 

इतना ही नहीं, ऐसे मुसलमान भी थे जो पाकिस्तान चले गये,  वहां की हवा देखी-भाली और  फिर भारत लौट आये, जैसे वे मुल्क नहीं, तफ़रीह की जगह चुन रहे थे. लेकिन गांधीवाले हिंदुओं ने उनको भी जगह दे दी. इसलिए पहचान करनी ही हो तो  हिंदुओं और मुसलमानों के नाम करना सही नहीं है; करना ही हो तो गांधीवाले और जिन्नावाले जैसा विभाजन करें. मुझसे पूछेंगे मदनी साहब तो मैं कहूंगा कि साहब, अब ऐसी भाषा व ऐसी सोच को हम इतिहास में ही दफन कर दें और हिंदुस्तानी से छोटी किसी पहचान की बात ही न करें. 

इसलिए मदनी साहब ने जब कहा कि अगर किसी को हमारा मज़हब, लिबास, तहज़ीब पसंद नहीं है तो वे ख़ुद कहीं और  चले जाएं, तो वे जिन्ना वालों के जाल में फंस गये. जिन्नावाले हमें बात-बात पर कहते हैं कि पाकिस्तान चले जाओ, तो क्या हम भी उनसे ऐसा ही कहें?  फिर तो हम सब गांधी को छोड़ कर जिन्ना वाले ही बन गये न!

नहीं मदनी साहब, नहीं, जो हमें पाकिस्तान जाने को कहते हैं, हम उन्हें भी हिंदुस्तान में ही रहने देना चाहते हैं – सिर्फ़ उनका सर बदलना चाहते हैं. जहर निकल जाये तो कोई सांप खतरनाक नहीं होता है. अच्छा सपेरा यही तो करता है न!

हम उनसे हर कदम पर लड़ रहे हैं जो इतिहास-संस्कृति की ज़हरीली व्याख्या कर भारतीय समाज को गंदले तालाब में बदलना चाहते हैं. फिर हम यह कैसे मान सकते हैं कि शरीअत अंतिम बात है ? समान नागरिक क़ानून की उनकी मांग के पीछे यह चोर छिपा है कि बहुमत हमारा है, तो हमारे पक्ष का क़ानून बनेगा. ऐसे में जब हम शरीअत को अपरिवर्तनीय बताते हैं तो हम उनका ही पक्ष मजबूत करते हैं. हमें बेझिझक कहना चाहिए कि हम भी समान नागरिक क़ानून चाहते हैं, क्योंकि यही हमारे संविधान की आत्मा भी है. लेकिन यह समान नागरिक क़ानून कौन बनायेगा, कैसे बनायेगा, उसकी संवैधानिक वैधता कैसे प्रमाणित होगी, यह सब तो कोई सामने रखे. हवा में तलवारबाज़ी किसी मतलब की नहीं होती.  

हम इस मुश्किल दौर को साथ रह कर ही पार कर सकेंगे. 

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