Site icon अग्नि आलोक

चाहे जो प्रधानमंत्री बनें, देश की राजनीति के नॉर्मलसी की तरफ आ गई 

Share

* अमिता नीरव 

कुछ साल पहले रवीश ने कहीं अपने भाषण में सवाल पूछा था कि सरकार समर्थक औऱ मीडिया कहता है कि ‘देश को मजबूत सरकार चाहिए। तो मजबूत सरकार क्या करने के लिए चाहिए! क्या सरकार को युद्ध लड़ना है?’ सुनकर पहले तो असहमति उभरी, फिर सवाल, हाँ, मजबूत सरकार क्यों चाहिए?

मौजूदा मजबूत सरकार के कार्यकाल को ठीक तरह से रिवाइज किया तो महसूस हुआ कि मजबूत सरकार इसलिए चाहिए कि वह अपनी मर्जी से संस्थाओं का इस्तेमाल कर सके और नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को सीमित कर सके। मतलब मजबूत सरकार में संस्थाएँ कमजोर और नागरिक बेचारा हो जाता है।

 दिन भर जो लोकसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे, वो बहुत उत्साहित और खुश करने वाले थे। देर शाम एक सरकार समर्थक ने स्टेटस पोस्ट किया कि, ‘वो हार कर भी खुश हैं और हम जीतकर भी उदास, क्यों?’ लगा बेचारे का सवाल तो एकदम सही है। जीतने के बाद भी बीजेपी के समर्थक दुखी क्यों हैं?

इंडिया अलायंस सरकार बनाने के आसपास भी नहीं पहुँचा है फिर भी सब इतने खुश क्यों हैं? वजहें तो इतनी सारी है कि एक पोस्ट में उसकी गिनती नहीं की जा सकती है। एग्जिट पोल के परिणाम आने के अगले दिन किसी इंटरव्यू में योगेंद्र यादव को सुन रही थी।

योगेंद्र जी ने इस सिलसिले में बहुत खूबसूरत बात कही थी, ‘मेरा कंसर्न ये नहीं है कि सरकार कौन बनाएगा, मेरा संतोष ये है कि देश की पोलिटिक्स नॉर्मलसी की तरफ आ जाएगी।’, ये वो बात थी, जिसे हम तमाम कारण गिनाते हुए भी नहीं कह सकते थे।

कुछ वक्त पहले एक वरिष्ठ लेखक ने जो कहा, वही दो दिन पहले फेसबुक पर भी किसी ने लिखा कि पिछले दस साल से देश में हर दिन पोलिटिकली इतना कुछ होता है कि जिंदगी में कविता, कहानी, भाषा, गीत, संगीत, दर्शन, फिल्म, कला सब कहीं गुम हो गए हैं।

पिछले दस सालों से ये सरकार हर दिन कुछ नया शिगूफा छोड़ती आ रही है। आज जब सारा गुबार छँट गया, तब सोच रही हूँ कि ये कितने विवाद पसंद लोग हैं कि हर दिन कोई न कोई ऐसा बयान, या काम या फरमान आ जाता कि हमें लगता ये देश के व्यापक हित में नहीं है।

चुनाव हारने के बाद आज जब स्मृति इरानी को बोलते देखा तो लगा, ये इतनी बुरी नहीं है। मगर सत्ता में रहते हुए जितना हल्कापन, जितना घमंड और जितने विवादित बयान दिए थे कि स्मृति इरानी के हारने से इतना संतोष मिला, जितना माननीय के जीतने के मार्जिन कम होने से नहीं मिला।

चुनाव की सुगबुगाहट की शुरुआत में जबकि इंडिया अलायंस अपना शेप भी नहीं ले पा रहा था, ये बात तो कल्पना से ही परे थी कि चार सौ पार नहीं हो पाएगा। अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के समय तो देश को देखकर लग रहा था कि जनता का बस नहीं चलता, नहीं तो सात सौ या हजार सीट भी मोदी को दे सकती है।

ऐसी स्थिति में इंडिया अलायंस का क्या होगा इस पर विचार ही बेकार लगता था। इतना ढीला-ढाला अलायंस बना था, जिसमें दल आ रहे थे, जा रहे थे। कभी कोई नहीं आ रहा था, तो कभी कोई जा रहा था। लगा था क्या तो चुनाव लड़ेंगे, जीतना तो भूल ही जाओ।

तो चुनाव से पहले और बाद में भी न तो ये कल्पना थी और न ही उम्मीद कि बीजेपी सत्ता में नहीं आएगी। तब खुशी की क्या वजह है? वही जो योगेंद्र यादव ने कही। जिंदगी सामान्य होने की दिशा में आ जाएगी। हम सब अपने-अपने पसंद के काम कर करेंगे। पढ़ेंगे, लिखेंगे, खुश रहेंगे।

क्योंकि सरकार अपना काम करती है, जनता अपना। मगर पिछले कुछ सालों में सरकार ने हर व्यक्ति को राजनीतिक कार्यकर्ता बना दिया था। आसपास जिधर भी नजर जाती थी कोई नागरिक दिखता ही नहीं था। मुझे खुद अपने एक्टिविस्ट हो जाने से खासी परेशानी है। मगर क्या करूँ, ये मेरी मजबूरी है।

मैं खुश हूँ क्योंकि मोदी एंड पार्टी का अहंकार टूटा 

क्योंकि माननीय और उनके समर्थकों ने ये मान लिया था कि हम अजेय हैं। हम जो कुछ करें, जनता हमें स्वीकारेगी। 2002 गुजरात के बल पर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी, विकास के सपने से धार्मिक ध्रुवीकरण पर जल्दी ही शिफ्ट हो गए। इस चुनाव में तो मूर्खता का रिकॉर्ड कायम किया प्रधानमंत्री ने।

आर्थिक असमानता, लगातार संस्थाओं की स्वायतत्ता पर आक्रमण, अपनी सीमाओं का अतिक्रमण। और लगातार संविधान का उल्लंघन किया जा रहा था। मजेदार ये था कि समर्थकों इस पर ताली बजा रहे थे।

ये मैं पहले भी कई बार कह चुकी हूँ कि बीजेपी ने अनैतिकता को सामाजिक तौर पर स्वीकार्य बनाया है। किसी भी हाल में अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए ये मोदी और शाह की अपनी पॉलिसी है कि जो सोचा है, उसे पूरा करने के लिए नैतिक-अनैतिक सब तरीके का इस्तेमाल किया जाए।

प्रतिस्पर्धी दलों के नेताओं पर दबाव बनाना, धमकाना और खरीदना। इस सरकार ने राजनीतिक दलों में तोड़-फोड़ को भी लेजिटिमाइज कर दिया था।

अहंकार औऱ मूर्खता का डेडली कॉम्बिनेशन रहा इस सरकार का कार्यकाल। चार चाटुकार पत्रकारों वाले इंटरव्यू में जब आर्थिक असमानता पर सवाल पूछा गया तो जब उन्होंने जवाब दिया कि क्या चाहते हो सबको गरीब कर दूँ? मुझे लगा कोई इतना औसत बुदधि कैसे हो सकता है?

मोदी जी को ये गुमान हो गया था कि अपुनइच भगवान है। जिसे वे दो-तीन बार कह भी चुके थे। अल्पसंख्यकों और आलोचना करने वाले लोगों के प्रति जिस किस्म का उनका रवैया था उसने बुरी तरह से चिढ़ा दिया था।  जो उनकी भाषा है, जो भाव और जो कहने का अंदाज है वो अहम ब्रह्मास्मि की तरह साउंड करता था।

और भी कई सारी वजहें हैं। कल कई सारी दोस्तों ने लिखी है।

मैं फिर से उसी बात पर लौटती हूँ, लोकतंत्र में जब मजबूत सरकार होती है तो नागरिक कमजोर होता चला जाता है। नरसिम्हाराव के समय से कोलेशन सरकारें हमारे यहाँ बहुत अच्छे से चली हैं। चाहे अटलजी की बात हो या फिर मनमोहनसिंह की। उस वक्त सरकारें, सरकारों की तरह चलती थीं।

चाहे जो प्रधानमंत्री बनें, देश की राजनीति के नॉर्मलसी की तरफ आ जाने की हम सबको बधाई।

Exit mobile version