अग्नि आलोक

*”रोजा को देखकर कोई यह नहीं बता सकता श्रमिकों की कद्दावर नेता सिद्ध होगी*

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*अजय असुर*

जब रोजा लक्जमबर्ग किसी सभा या बैठक के दौरान फर्श पर बैठती तो उसकी ऐंठी हुई देह मानो कुछ और तन जाती। उस समय वह कहीं अधिक प्रभावशाली नजर आती। उसकी आवाज तेज, ओजमय तथा कंपकपाती हुई बाहर आती और कानों से सीधे दिल में पैठती चली जाती। वह गाती भी बहुत सुंदर थी। उसकी वक्रोक्तियां मारक, तर्क बहुत गहरे और स्पष्ट होते। उसका भाषण सुनकर लोग उसकी प्रतिभा से चमत्कृत होते, पर सच में वह उनकी कल्पना से कहीं अधिक बुद्धिमान थी।’’ अमेरिका के कम्युनिस्ट विचारक बेटर्म डी. वुल्फ ने रोजा लेक्सबर्ग के व्यक्तित्व के बारे में लिखा- ”रोजा को देखकर कोई यह नहीं बता सकता था कि आगे चलकर वह अभागिन लड़की नायिका बनेगी और श्रमिकों की कद्दावर नेता सिद्ध होगी।

रोजा लक्जमबर्ग पोलैंड के जामोक के यहूदी परिवार में पैदा हुई। रोजा लक्जमबर्ग का वास्तविक नाम रोजालिया लक्जमबर्ग था जो आगे चलकर रोजा लक्जमबर्ग हो गया। एलियाज़ लक्ज़मबर्ग और लीना लोवेनस्टीन की पाँचवीं और सबसे छोटी संतान थीं। रोजा जब पाँच साल की थी तब वह गंभीर रूप से बीमार हो गईं तो कूल्हे का आपरेशन कराना पड़ा। महीनों तक बिस्तर पर रहने के कारण उनका शरीर मुड़ गया। जिससे वह लंगड़ाकर चलने लगी। कूल्हे के इस इलाज ने उसके शरीर को कमजोर और बेढंगा कर दिया था। वह लंगड़ाकर चलती। उसकी चाल बहुत भद्दी प्रतीत होती, लेकिन जब वह बोलना शुरू करती तो लोग देखते कि उसकी बड़ी-बड़ी भावप्रवण आंखें मानो उपस्थित जनसमुदाय की सहनशीलता पर कटाक्ष कर रही हैं। संवेदना उनसे रह-रहकर छलछलाती। उनमें संघर्ष की आतुरता, व्यंग्य और उपहास भरा होता। जब वह किसी सभा या बैठक के दौरान फर्श पर बैठती तो उसकी ऐंठी हुई देह मानो कुछ और तन जाती। उस समय वह कहीं अधिक प्रभावशाली नजर आती। उसकी आवाज तेज, ओजमय तथा कंपकपाती हुई बाहर आती और कानों से सीधे दिल में पैठती चली जाती। वह गाती भी बहुत सुंदर थी। उसकी वक्रोक्तियां मारक, तर्क बहुत गहरे और स्पष्ट होते। उसका भाषण सुनकर लोग उसकी प्रतिभा से चमत्कृत होते, पर सच में वह उनकी कल्पना से कहीं अधिक बुद्धिमान थी।’’ अमेरिका के कम्युनिस्ट विचारक बेटर्म डी. वुल्फ ने रोजा लेक्सबर्ग के व्यक्तित्व के बारे में लिखा- ”रोजा को देखकर कोई यह नहीं बता सकता था कि आगे चलकर वह अभागिन लड़की नायिका बनेगी और श्रमिकों की कद्दावर नेता सिद्ध होगी।

रोजा लक्ज़मबर्ग ने 1893 में एक समाचारपत्र की स्थापना की- ‘दि वर्कर्स काज’। इस समाचार पत्र का प्रमुख ध्येय श्रमिकों के बीच वर्गीय चेतना का विस्तार करना था। अपने पहले अंक से ही पत्र ने राष्ट्रवादी राजनीति का विरोध करना शुरू कर दिया। रोजा का मानना था कि संघर्ष का लक्ष्य राजनीतिक दासता तथा पूंजीवादी उत्पीड़न दोनों से मुक्ति होनी चाहिए। 

अप्रैल 1897 में रोजा ने अपने एक पुराने दोस्त गुस्ताव लुबेक के बेटे से शादी की। वे कभी साथ नहीं रहे और उन्होंने औपचारिक रूप से पांच साल बाद तलाक ले लिया। रोजा तलाक के बाद एडुआर्ड बर्नस्टीन के संवैधानिक सुधार आंदोलन के लिए अपनी लड़ाई शुरू करने के लिए स्थायी रूप से बर्लिन चली गईं। वहां उनका संपर्क प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक कार्ल कोटस्की से हुआ, जो आगे चलकर जर्मन में मार्क्सवादी विचारों के प्रचार–प्रसार तथा समाजवादी क्रांति की सफलता में सहायक हुवा। 1907 में, वह लंदन में रूसी सोशल डेमोक्रेट्स के पांचवें पार्टी दिवस पर गईं, जहां उनकी मुलाकात व्लादिमीर लेनिन से हुई । इस बीच पोलैंड की स्वाधीनता को लेकर रोजा और लेनिन के बीच मतभेद उभरने लगा। रोजा पोलैंड के लिए पूर्ण स्वराज की मांग कर रही थी, जबकि लेनिन पोलैंड को महज राजनीतिक स्वायत्तता दिए जाने के पक्ष में थे। अपने विरोध को रचनात्मक रूप देते हुए रोजा ने 1904 में ‘आर्गेनाइजेशन क्वश्चन्स आ॓फ रशियन डेमोक्रेसी’ नामक किताब लिख डाली। इस पुस्तक में रोजा ने लेनिन के राजनीति की निर्मम आलोचना करते हुवे लिखा “लेनिन चाहते हैं कि समस्त स्थानीय समितियों के नामकरण का श्रेय पार्टी की केंद्रीय समिति को मिले। उसे जेनेवा से लीग तथा टाम्स से इर्कुटस्क तक पार्टी के स्थानीय संगठनों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने का अधिकार भी प्राप्त हो। यही नहीं वह चाहता है कि केंद्रीय समिति को पार्टी की आचारसंहिता में पूर्वनिर्धारित कायदे–कानून थोपने का अधिकार भी प्राप्त हो… अर्थात वह चाहते हैं कि वैचारिक निर्णय लेना का अधिकार सिर्फ केंद्रीय समिति तक सीमित हो, बाकी सब शाखाएं उस पर आश्रित हों।”

लेनिन के नेतृत्व में किसान-श्रमिक संगठित होकर रूस की जारशाही से मोर्चा ले रहे थे। 1905 में रूस में बोल्शेविक क्रांति भड़क उठी। रोजा लक्समबर्ग और उसके सहयोगी लियो जोगीस्च को क्रांतिकारियों का साथ देने, उन्हें हिंसा के लिए भड़काने का आरोपी मानकर गिरफ्तार कर लिया गया। 

युद्ध का विरोध करते हुए 1904 से 1906 की अवधि में रोजा को तीन बार जेल जाना पड़ा, लेकिन जेल भेजने के बाद भी अधिकारियों में उसकी दहशत कम नहीं हुई थी। यह रोजा द्वारा चलाए गए आंदोलनों का डर ही था कि कारावास के दौरान सरकार ने गोपनीयता के नाम पर उसके कारागार दो बार बदलवाया था। उनके लेखों पर पाबंदी लगाई जा चुकी थी। 

जेल से  बाहर आते ही एक बार फिर रोजा ने श्रमिक आंदोलन की तैयारियों में झोंक दिया। कार्ल लेबनेट के साथ मिलकर नए सिरे से संगठन बनाना आरंभ कर दिया। श्रमिक चेतना के विस्तार के लिए उसने ‘रेड फ्लेग’ नामक समाचारपत्र का संपादन करना आरंभ किया। उस समाचारपत्र के माध्यम से रोजा ने राजनीतिक बंदियों की मुक्ति तथा मृत्युदंड को हमेशा के लिए समाप्त किए जाने की मांग सरकार के सामने रखी।

“सुधार और क्रांति” तथा “मास स्ट्राइक” रोजा की सबसे महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। रोजा की दोनों ही रचनाएं  आज के संदर्भ में अत्यधिक प्रासंगिक है और इसलिए मेहनत की अमूल्य धरोहर है। जहां सुधार और क्रांति आज के समय में साम्राज्यवाद के अंतर्विरोधों को समझने में हमारी मदद करती है। वहीं मास स्ट्राइक जन आंदोलन  की प्रक्रिया तथा उसके चरित्र, उसकी ताकत और उसकी गति को समझने में मदद करती है। रोजा ने प्रचलित धारा के खिलाफ खड़ा होने का साहस किया और मजदूर आंदोलन में पुरुषों के वर्चस्व को तोड़कर अपनी जगह बनाई।

रोजा गणतांत्रिक प्रणाली और तानशाही को स्पष्ट करते हुवे कहती हैं “समाजवादी गणतांत्रिक प्रणाली का आशय केवल नियंत्रित अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है। न ही गणतंत्र कोई ऐसी वस्तु है जिसे क्रिसमस के उपहार की भांति जनता को भेंट किया जा सके। समाजवाद असल में वर्ग-भेदयुक्त व्यवस्था के उन्मूलन की स्थिति है। जिसका शुभारंभ ही वर्गविभाजित समाज के पतन से होता है। यह सर्वहारा की तानाशाही जैसा ही है।” वह तानाशाही शब्द पर बहुत जोर देती है, किंतु स्पष्ट करती है “उसकी तानाशाही लोकतंत्र की स्थापना के लिए होती है, न कि उसको उखाड़ फेंकने अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने हेतु। वह यथास्थितिवाद की पोषक न होकर रचनात्मक और सक्रिय होती है तथा साम्यवाद की स्थापना के लिए बुर्जुआ समाज पर निरंतर प्रहार करती रहती है। इसलिए कि बिना बुर्जुआ समाज के उन्मूलन के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है।” सर्वहारा की तानाशाही को स्पष्ट करते हुए रोजा का आगे कहती हैं “उसकी तानाशाही समूह यानी बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही है, न कि वर्गहीनता के नाम पर अल्पमत वाले समूह की निरंकुशता।… तानाशाही भले ही किसी वर्ग अथवा कुछ व्यक्तियों की क्यों न हो, सर्वथा अनुचित है। वह किसी भी लोकतांत्रिक राज्य का सूचक नही हो सकती। लेकिन बुर्जुआ वर्ग के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सर्वहारावर्ग की तानाशाही से गुजरना अनिवार्य स्थिति है।… सर्वहारा वर्ग की तानाशाही किसी न किसी रूप में लोक-समर्थित होनी चाहिए। नागरिकों में जैसे-जैसे राजनीतिक परिपक्वता आती है, सर्वहारावर्ग की तानाशाही उतनी ही परिपक्व होती जाती है। वह अपनी निरंकुशता भूलकर नागरिकों की सामान्य इच्छा को सुशासन में बदलने लगती है।”…

1913 में उसकी महान कृति ‘दि एक्युमुलेशन आ॓फ कैपीटल: ए कंट्रीब्यूशन टू एन इकानामिक एक्सप्लेनेशन आ॓फ इंपीयरिलिज्म’ प्रकाशित हुई, जिसमें पूंजी के साम्राज्यवादी चरित्र तथा उसकी वर्चस्वकारी रणनीति पर गंभीर विमर्श किया गया था। इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही रोजा लक्समबर्ग की गिनती अपने समय के बड़े विद्वानों तथा मार्क्सवादी विचारकों में होने लगी थी। इस पुस्तक के लिए रोजा की प्रशंसा करते हुए फ्रेंज मेहरिंग ने उसको, ‘मार्क्स और एंगल्स के सामाजिक विज्ञानवेत्ता उत्तराधिकारियों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली शख्स’ की उपाधि से सम्मनित किया है। रोजा ने ‘दि क्राइसिस आॅफ सोशल डेमोक्रेसी’ नाम से लेख लिखा था। इस लेख में उसने गणतांत्रिक प्रणाली के अंतर्विरोधों तथा उसकी चुनौतियों की चर्चा की थी। 

अगस्त 1914 में, लक्ज़मबर्ग ने कार्ल लिबनेचट , क्लारा ज़ेटकिन और फ्रांज मेहरिंग के साथ मिलकर डाई इंटरनेशनेल (“द इंटरनेशनल”) समूह की स्थापना की, जो जनवरी 1916 में स्पार्टाकस लीग बन गया। गुलाम-मुक्त थ्रेसियन ग्लेडिएटर जिसने रोमनों का विरोध किया। रोमन गणराज्य के संस्थापक लुसियस जुनियस ब्रूटस के बाद, लक्समबर्ग का छद्म नाम जूनियस था। रोजा का दृढ़ विश्वास था कि युद्ध श्रम–विरोधी है। केवल वही शक्तियां युद्ध के समर्थन में हैं, जो किसी न किसी प्रकार साम्राज्यवाद और/अथवा पूंजीवाद से लाभान्वित हो सकती हैं। श्रमिक वर्ग के पास न तो पूंजी है, न ही राजनीतिक शक्ति, ऊपर से युद्ध की विभीषिका के अलावा महंगाई और महामारी जैसी मानव–निर्मित आपदाओं का सामना अकेले इसी वर्ग को करना पड़ता है। 

1918 के अंत में जर्मनी में ‘संविधान सभा’ के चुनावों की घोषणा हुई। रोजा को विश्वास था कि गणतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कायम रखते हुए ‘स्पार्टकस लीग’ उन चुनावों में हिस्सा लेगी, लेकिन उसके ही दल के अन्य सदस्य कूटनीतिक तरीके से सत्ता प्राप्त करने में विश्वास रखते थे। वे अपना आदर्श लेनिन को मानते थे। इस आशय का प्रस्ताव जब रोजा के सम्मुख आया तो उसका खंडन करते हुए उसने अपने समाचारपत्र में लिखा कि ‘स्पार्टकस लीग किसी भी ऐसे असंवैधानिक रास्ते से सत्ता में नहीं आना चाहेगी, जो सर्वहारा वर्ग की इच्छाओं के विरुद्ध हो। वह अपने सिद्धांतों, संघर्ष के रास्तों और लक्ष्यों से कभी समझौता नहीं करेगी।’ किंतु स्पार्टकस लीग के भीतर ही कुछ नेता रोजा का विरोध करने पर उतारू थे। सत्ता का आकर्षण उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को धुंधला रहा था।

आंदोलन की नई रणनीतियों पर विचार करने के लिए दिसंबर 1918 में ‘स्पार्टकस लीग’ तथा कुछ स्वतंत्र समाजवादियों के तत्वावधान में रोजा ने एक बड़े सम्मेलन में हिस्सा लिया। उसी सम्मेलन में जर्मनी की पहली ‘कम्युनिस्ट पार्टी आ॓फ जर्मनी’ की नींव पड़ी जिसका श्रमिक नेताओं ने जोरदार ढंग से स्वागत किया। कार्ल कोर्टस्की, रोजा लक्समबर्ग, बेबेल आदि मार्क्सवादी विचारकों के नेतृत्व में, जर्मनी में मार्क्सवाद तेजी से विस्तार ले रहा था। लोग कम्युनिज्म की ओर आकर्षित होते जा रहे थे। उग्रपंथी कार्ल लेबनेट का विचार था कि सत्ता को बलपूर्वक उखाड़ फेंका जाए, अनेक नेता उसके समर्थन में थे। 1919 तक आते–आते बर्लिन में दूसरी क्रांति की सफलता के लिए माहौल बनता नजर आने लगा था, किंतु रोजा को हिंसात्मक कार्रवाही पर भरोसा न था। हिंसात्मक कार्रवाही की असफलता के रूप में ‘पेरिस कम्यून’ का उदाहरण उसके सामने था। मगर उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी समेत अनेक संगठनों पर अतिवादियों का कब्जा हो चुका था। रोजा की इच्छा के विरुद्ध ‘रेड फ्लेग’ के उग्र कार्यकर्ताओं ने हमला कर सरकार समर्थक समाचारपत्र के कार्यालय पर कब्जा कर लिया। नगर में अराजकता का वातावरण बनने लगा। श्रमिक नेताओं के दमन के लिए उत्सुक सरकार तो मानो इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी। विद्रोह को कुचलने के लिए सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी के नेता फ्रैड्रिक एबर्ट तथा जर्मन के नए चांसलर ने सेना बुलाकर विद्रोह को किसी भी प्रकार कुचल देने का आदेश सुना दिया गया। आदेश मिलते ही सेना आंदोलनकारियों पर टूट पड़ी। हजारों कार्यकर्ता बंदी बना लिए। सैंकड़ों को बिना किसी मुकदमे और सुनवाई के मौत के घाट उतार दिया गया। 13 जनवरी 1919 तक विद्रोह कुचल दिया गया। इसके दो दिन बाद 15 जनवरी 1919 को रोजा लक्समबर्ग, कार्ल लेब्कनेट, विलियम पीक आदि प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। सैन्य कमांडर वाल्डेमर पाबेस्ट और हा॓स्र्ट वान फ्लुक–हार्टंग की द्वारा उनसे बलपूर्वक पूछताछ की गई। स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही रोजा को विपल्व का मुख्य सूत्रधार मानते हुए ओटो रुंग ने रायफल के बट के प्रहार से गिरा दिया। रोजा के गिरते के साथ ही लेफ्टीनेंट हरमन सूकोन ने उसके सिर पर गोली दाग दी। इसके बावजूद उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ था। दरअसल जर्मनी की तानाशाही सत्ता के हथियारबंद कमांडर बेहद डरे हुए लोग थे। रोजा की नृशंस हत्या की सूचना पाकर श्रमिक भड़क सकते हैं। अंत उन्होंने रोजा का शव चुपके–से बर्लिन की लेडवर नहर में बहा दिया गया। रोजा के साथी कार्ल लेबनेट को भी गोली से उड़ा दिया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के सौ से अधिक सदस्यों को मृत्युदंड दिया गया, जबकि हजारों कार्यकर्ताओं और श्रमिकों कैद कर लिए गए। सुरक्षा परिषदों को भंग करने के आदेश के साथ ही जर्मन क्रांति के पहले दौर का समापन हो गया। ठीक साढ़े चार महीने बाद, 1 जून, 1919 को रोजा के मृत शरीर की खोज की जा सकी और बर्लिन के चरिते अस्पताल में शव परीक्षण के बाद उसकी पहचान की गई। जिसके बाद 13 जून 1919 को रोजा का अन्तिम संस्कार किया गया। रोजा की मृत्यु के लिए आ॓टो रुंग को दो वर्ष की सजा (“हत्या के प्रयास” के लिए) सुनाई गई और लेफ्टिनेंट वोगेल को चार महीने (एक लाश की रिपोर्ट करने में विफल रहने के लिए) की सजा सुनाई गई थी। हालांकि, संक्षिप्त हिरासत के बाद वोगेल फरार हो गए। कैप्टन पाब्स्ट और लेफ्टिनेंट सौचॉन पर कभी मुकदमा नहीं चलाया गया। हालांकि नाजी हुकुमत द्वारा रुंग को दी गई सजा की भरपाई करते हुए बाद में उसको पुरस्कृत भी किया गया था।

लेनिन ने रोजा मृत्यु के बाद मजदूर वर्ग के “ईगल” के रूप में लक्समबर्ग की प्रशंसा की और कहा “लेकिन अपनी गलतियों के बावजूद वह एक चील थी और हमारे लिए बनी हुई है और न केवल दुनिया भर के कम्युनिस्ट उनकी स्मृति को संजोएंगे, बल्कि उनकी जीवनी और उनके संपूर्ण कार्यों (जिसके प्रकाशन में जर्मन कम्युनिस्ट असाधारण रूप से देरी कर रहे हैं, जो उनके गंभीर संघर्ष में उन्हें हुए भारी नुकसान से आंशिक रूप से ही माफ किया जा सकता है) दुनिया भर में कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोगी मैनुअल के रूप में काम करेगा। ‘4 अगस्त 1914 से, जर्मन सामाजिक-जनवाद एक बदबूदार लाश है’ – यह कथन रोजा लक्जमबर्ग के नाम को अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलन के इतिहास में प्रसिद्ध कर देगा।”

रोजा के अंतिम शब्द जो उसने मृत्युदंड से पहले लिखे थे। उसके शब्दों में जर्मन क्रांति की असफलता पर क्षोभ तो था, किंतु उसके प्रति विश्वास कम नहीं हुआ था। सर्वहारावर्ग में अपना भरोसा कायम रखते हुए एक और क्रांति की अपरिहार्यता पर जोर देते हुवे रोजा ने लिखा “वर्तमान नेतृत्व पूर्णतः असफल हो चुका है। नए नेतृत्व का जन्म जनता के बीच से जनता द्वारा किया जाना चाहिए। केवल जनता ही निर्णायक शक्ति है, वही वह चट्टान है जिसपर बनी इमारत पर क्रांति की शीर्ष विजयपताका फहराई जाएगी। इतिहास साक्षी है जनता पहले भी उच्चतम स्थान पर थी, आगे भी रहेगी। हाल की उसकी पराजय अनेकानेक ऐतिहासिक पराजयों का मामूली हिस्सा है, जो अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लिए गर्व और गरमाहट प्रदान करने वाला है। भविष्य की विजयश्री वर्तमान की इन्हीं पराजयों की कोख से जन्म लेगी। (तानाशाह सरकार को ललकारते हुए उसने आगे लिखा था) ‘बर्लिन में हुकूमत कायम हो चुकी है!’ मूर्ख तानाशाह, तुम्हारी हुकूमत रेत पर बनी इमारत है। वक्त आ चुका है, क्रांति कल फिर तुम्हारा दरवाजा खटखटाएगी, और तुम्हारे दरवाजे पर खड़े होकर आंतक को फिर से ललकारेगी—‘मैं थी, मैं हूं और मैं हमेशा रहूंगी।’

रोजा का मानना था “केवल वही लोग स्वतंत्र हो सकते हैं, जो दूसरों से अलग हटकर, मौलिक सोच रखते हैं। केवल सरकार के समर्थकों की आजादी अथवा किसी राजनीतिक दल के सदस्यों की आजादी, उनकी संख्या चाहे जितनी क्यों न हों वास्तविक आजादी नहीं है। स्वाधीनता हमेशा उन लोगों का वरण करती है, जो दूसरों से हटकर सोचते हैं, न केवल न्याय की हठधर्मिता के कारण, बल्कि इसलिए कि वह सब कुछ जो राजनीतिक स्वाधीनता के निमित्त शिक्षाप्रद, स्वास्थ्यकारी तथा शुद्धिकारक है, कुछ विशिष्ट गुणों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उसके प्रभाव ‘स्वाधीनता’ के कुछ लोगों का विशिष्टाधिकार बन जाने के साथ ही बेअसर होने लगते हैं।”

लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है, जब नागरिक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो। प्रेस जागरूक हो। समाज में स्वातंत्रय–चेतना हो। जनसाधारण को बिना किसी भेदभाव के निर्भय–निष्पक्ष मतदान की सुविधा प्राप्त हो। राज्य–स्तर पर कल्याण का वितरण इस प्रकार हो कि सभी लोग समानरूप से उससे लाभान्वित हों तथा नागरिकों में लोकतंत्र तथा उसके आदर्शों के प्रति विश्वास की अखंड भावना हो। इनके अभाव में स्वाधीनता को प्रभावहीन होते देर नहीं लगती। विशेषकर सार्वजनिक निकायों में, जहां जनता की पूंजी लगी हो अथवा जिनका गठन लोककल्याण को ध्यान में रखकर किया गया हो, वहां स्वतंत्रता का वातावरण अनिवार्य है। इसके अभाव में उन्हें अपने लक्ष्य से भटकते, कुछ लोगों के स्वार्थ–साधन का माध्यम बनते देर नहीं लगती। 

रोजा का मानना था “आम मतदान की सुविधा के अभाव में, विधायिका और प्रेस की अबाध स्वतंत्रता के बगैर, अभिव्यक्ति–स्वातंत्रय की अनुपस्थिति में, सार्वजनिक संस्थान निर्जीव बन जाते हैं, ऐसी स्थिति में केवल नौकरशाही पनप सकती है। अनियंत्रित नौकरशाही समाज को निरंकुशता और कालांतर में उसको अराजकता की ओर ले जाती है।”

रोजा ने मार्क्सवाद की नई व्याख्या प्रस्तुत की। अपने विचारों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। जिस समय सभी नेता विश्वयुद्ध को अपरिहार्य मानकर मूकदर्शक बने हुए थे, रोजा ने युद्ध को श्रमिक-हितों के प्रतिकूल मानते हुए उसके विरोध में कई आंदोलन किए। मृत्युपर्यंत वह युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए प्रयासरत रही। समाजवाद के प्रति उनकी अतुल्य निष्ठा रोजा के इस कथन से लगाया जा सकता है “हमारे लिए न तो कोई न्यूनतम कार्यक्रम है, न अधिकतम। हमारा केवल और केवल एक लक्ष्य है। ऐसा लक्ष्य जिसको हम आज और अभी प्राप्त कर सकते हैं। वह लक्ष्य है-समाजवाद।” रोजा लक्समबर्ग की लड़ाई समाजवाद को हमें भी आगे बढ़ाना होगा।

*इंकलाब जिंदाबाद!  साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!!*

*अजय असुर*

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