(डॉ. विकास मानवश्री की देशना पर आधारित प्रतिसंवेदन)
*डॉ. श्रेया पाण्डेय*
सृष्टि में अन्याय संभव ही नहीं. यह सत्यम – शिवम – सुन्दरम की निर्मिति है. आपका दृष्टिकोण गलत है. आप सत्य को देखना ही नहीं चाहते. आप सोचते हैं की घटनायें आपके अनुसार घटित हों, इसके लिए आप पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, मंडल-कमंडल, मान-मनौती की नौटंकी भी करते हैं.
आपके जीवन में घटनाएं सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके कर्मो के अनुसार घटित होती हैं. सुपर सत्ता अपना कर्मफल-विधान नहीं बदलती. जिनको आप भगवान कहते हैं, उनको भी कर्मफल भोगने पड़े. सुप्रीम पावर कोई व्यक्ति नहीं, जिसे आप पूजा-पाठ या चढ़ावे की लालच/रिश्वत देकर उससे कुछ करा सकें.
आपको कुछ भी करने के लिए सत्ता ने स्वतंत्र रखा है. शक्ति भी दी है. आप किसी का खून कर दें या किसी जख्मी को बचा लें : सत्ता इंटरफेयर नहीं करेगी. जो करेंगे, उसका प्रतिफल भी आपको सत्ता नहीं आपका कर्म ही देगा. विजली से आप सर्दी पैदा करें, गर्मी पैदा करें, रोगनिदान कर किसी को जीवन दें या करंट देकर किसी का जीवन लें लें : आपकी मर्ज़ी. आपको मिली शक्ति का प्रयोग करने के लिए आप स्वतंत्र हैं लेकिन प्रयोग के परिणाम तो आपको मिलेंगे ही. इसमें सृष्टि का कोई रोल नहीं.
जो भी हम पर लौटता है, वह हमारा दिया हुआ ही लौटता है। हां, लौटने में वक्त लग जाता है। कर्म हम तन से, मन से, सोच- विचार से, सभी से करते हैं. दिन में, रात में, स्वप्न में करते हैं. इतने फास्टली, इतने सारे कर्म तुरंत-तुरंत परिणाम नहीं दे सकते. बीज बोते ही तो फ़सल नहीं काटी जा सकती. प्रारब्ध का प्रतिफलन इसीलिए जीवन में आता है.
समय के फासले से पहचान मुश्किल हो जाती है।हम जब बीज बोते हैं, तब तो पता नहीं चलता; जब फल आते हैं, तब पता चलता है।
अगर फल विषाक्त आते हैं, जहरीले, तो हम रोते हैं और कोसते हैं। हमें पता नहीं कि यह फल हमारे बीजों का ही परिणाम है।
अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को पदार्थ माना, तो उसे यह जगत पदार्थ मालूम होने लगेगा; क्योंकि परमात्मा उसी रूप में लौटा देगा।
अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को परमात्मा माना, तो यह जगत परमात्मा हो जाएगा; क्योंकि यह अस्तित्व उसी रूप में लौटा देगा, जो हमने दिया था।
हमारा हृदय ही अंततः हम सारे जगत में पढ़ लेते हैं, और हमारे हृदय में छिपे हुए स्वर ही अंततः हमें सारे जगत में सुनाई पड़ने लगते हैं।
चांदत्तारे उसी को लौटाते हैं, जो हमारे हृदय के किसी कोने में पैदा हुआ था, लेकिन अपने हृदय में जो नहीं पहचानता, लौटते वक्त बहुत चकित होता है, बहुत हैरान होता है कि यह कहां से आ गया? इतनी घृणा मुझे कहां से आई? इतने लोगों ने मुझे घृणा क्यों की?
वो अगर लौटे, खोजे तो वह पाएगा कि घृणा ही उसने भेजी थी। वही वापस लौट आई है।
अगर कोई खुद को नहीं देता हो, किसी भी रूप में नहीं देता हो परमात्मा को/उसकी सृष्टि को तो परमात्मा क्या लौटाता है? अगर कोई देता ही नहीं तो परमात्मा भी न देने की स्थिति को ही लौटाता है।
अगर कोई व्यक्ति जीवन से किसी भी तरह के संवाद नहीं करता, तो जीवन भी उसके प्रति मौन हो जाता है; जड़ पत्थर की तरह हो जाता है। सब तरफ पथरीला हो जाता है।
जिंदगी में जिंदगी आती है हमारे जिंदा होने से। इसलिए जिंदा आदमी के पास पत्थर भी जिंदा होता है और मरे हुए, मुर्दा तरह के आदमी के पास, जिंदा आदमी भी मुर्दा हो जाता है.