कृष्ण प्रताप सिंह
फूल वाली, बान वाली, रोटी वाली, चूड़ी वाली, कंघी वाली, डोर वाली, दरी वाली, जूते वाली, मैदे वाली, सिरके वाली…चौंकिए मत। ये लखनऊ की पुरानी गलियों के नाम हैं। इतना ही नहीं, कैदी वाली, भैंसे वाली और गधे वाली तक लंबी सूची है इनकी। अलबत्ता, वक्त उनके साथ इतने खेल खेल चुका है कि अब न कैदी वाली गली में कैदी मिलते हैं, न भैंसे वाली गली में भैंसे और न गधे वाली गली में गधे। पुराने लोगों से बात कीजिए तो मजे लेते हुए कहते हैं, ‘दो चार गधे नररूप धारण कर गधे वाली गली में कुलांचते हों तो और बात है, वरना धान वाली गली से कुटनियों यानी धान कूटने वाली औरतों के डेरे भी अदृश्य हो चुके हैं।’
लखनऊ में दिल्ली-फैजाबाद: वर्ष 1775 में नवाब आसफउद्दौला अवध की गद्दी पर बैठे और अपने पिता शुजाउद्दौला के फैजाबाद में विकसित की गई सूबे की राजधानी अपने पुरखों की सत्ता के पुराने केंद्र लखनऊ ले आए। उन्हें उसे राजधानी के गौरव के अनुरूप नए सिरे से आबाद करने की जरूरत महसूस हुई। फिर क्या था, उन्होंने वहां एक के बाद एक नई बस्तियां बसानी शुरू कर दीं। लेकिन जाने क्या बात थी कि उन्होंने उनके लिए नए नाम ढूंढ़ने की जहमत नहीं उठाई। कुछ के नाम देश की राजधानी दिल्ली से उधार ले लिए तो कुछ के अपनी पुरानी राजधानी फैजाबाद से। इसीलिए आज चौक, रकाबगंज, दरियागंज, नक्खास, तालकटोरा, फूलकटोरा, लालबाग और फतेहगंज नाम के मोहल्ले लखनऊ में हैं, तो दिल्ली और फैजाबाद में भी।
यों, यह ‘उधार’ दिल्ली व फैजाबाद तक ही सीमित नहीं है। लखनऊ में मक्कागंज, कंधारी बाजार, लाहौरगंज व हैदराबाद जैसे मुहल्ले, तो बनारसी टोला, काशी डेरा और लंदनी हाता भी हैं। साफ है कि उनके सिंदूर, माफ कीजिएगा, नाम भी उधार के हैं। कटारी टोले का, जिसे राजपूतों का आसफउद्दौला से पहले का और लखनऊ का सबसे पुराना टोला बताया जाता है, यह नाम इसलिए पड़ा कि वहां के राजपूत बहराइच में स्थित इसी नाम के एक घाट को अपना तीर्थ मानते थे।
सरायें खो चुकीं पहचान: हां, कटरे, कूचे और गलियां बसाने की योजना के लिए लखनऊ दिल्ली का ही कृतज्ञ है। जहां तक कूचों की बात है, उसमें वक्त के साथ कई नामचीन शायरों, मसलन, मीर अनीस और मिर्जा दबीर जैसों के कूचे भी वजूद में आए और खूब चमके। लखनऊ में सराय बनाने का रिवाज भी शेरशाह सूरी के वक्त दिल्ली की देखादेखी ही शुरू हुआ। शहर में जो पहली सराय बनी, उसे मुगलों की सराय कहा गया, जिसका अब नाम व निशान भी नहीं बचा है। दूसरी कई सरायें भी अपनी उपयोगिता और अस्तित्व खो चुकी हैं।
बेढब, लेकिन नकल नहीं: स्वाभाविक ही लखनवियों की यह शिकायत पुरानी पड़ चुकी है कि आसफउद्दौला ने अपनी राजधानी की नई बस्तियों के नामकरण में मौलिकता की कद्र नहीं की। लेकिन लखनऊ की कई गलियों के नाम इस शिकायत को खारिज करते लगते हैं। उनकी बाबत यह तो कहा जा सकता है कि वे बेढब या कई मायनों में उनमें रहने वालों के लिए अपमानकारक हैं, लेकिन कतई नहीं कहा जा सकता कि कहीं से नकल करके रखे गए हैं।
वक्त के साथ लखनऊ ‘हिंदुस्तान का बेबीलोन’ व ‘क्रेमलिन ऑफ इंडिया’ बना तो मुहल्लों के उधार के नाम तो खूब चल निकले, लेकिन गलियों के मौलिक नामों को शोहरत की बुलंदी मयस्सर नहीं हुई। बनारस की कचौड़ी गली का नाम तो वहां आने-जाने वालों की जुबान पर आज भी चढ़ा रहता है, लेकिन लखनऊ की लइया वाली गली हो या घंटी वाली गली, अपने अतीत में ‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है…’ जैसी हालत से पार नहीं पा सकीं।
अपनी बीवी की बेमुरव्वती से खीझकर ‘छड़ा’ पहनने व फकीर बन जाने वाले ‘शाह छड़े वाली गली’ को भी लखनवियों ने वह भाव नहीं दिया, जिसकी वह हकदार थी। अछूतियों की वह गली भी अक्सर चर्चा से बाहर ही रही, जो बादशाह बेगम के वक्त अस्तित्व में आई। तब, जब उन्होंने बारहवें इमाम की छठी मनाने और हर साल ग्यारह कन्याओं को पूर्ववर्ती इमामों की बीवियों के तौर पर अछूती (चिरकुमारी) रखने की परंपरा शुरू की।