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अब मोदी-शाह वसुंधरा को किनारे लगाने में जुटे ,टूटने को तैयार वसुंधरा राजे

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नई दिल्ली। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस समय चर्चा में हैं। चर्चा का कारण राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए गठित दो कमेटियों से उनको बाहर रखा जाना है। चुनाव कमेटियों से वसुंधरा को बाहर रखने का कारण पार्टी आलाकमान से उनके मतभेद हैं। पीएम मोदी और वसुंधरा राजे के बीच यह अंतर्विरोध महज कुछ दिनों में नहीं पनपा है। लंबे समय से दोनों के बीच शह-मात का खेल चल रहा था, जो अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है।

राजस्थान भाजपा इकाई दो धड़ों में बंटी है। एक तरफ वसुंधरा हैं तो दूसरा धड़ा आलाकमान के साथ खड़ा है। इस मुद्दे पर कुछ लोग ‘महारानी’ तो कुछ लोग पार्टी आलाकमान के साथ खड़े हैं। पीएम मोदी की राजनीतिक शैली अपने को केंद्र में रख कर सब कुछ तय करने की है। चुनावी जीत हो या केंद्र और राज्य सरकारों का काम-काज, सबका श्रेय पीएम मोदी खुद लेना चाहते हैं। और राज्यों के नेताओं और मुख्यमंत्रियों को अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं।

वसुंधरा राजे को प्रधानमंत्री की यह राजनीतिक शैली पसंद नहीं हैं। एक तरह से वह खुद इस शैली पर चलती रही हैं। वह राज्य के मामले में ‘ऊपरी’ या ‘केंद्रीय’ हस्तक्षेप को नहीं चाहती हैं। जिसके कारण अब मोदी-शाह वसुंधरा को किनारे लगाने में जुटे हैं। मोदी-शाह विधानसभा चुनाव में वसुंधरा को बाहर रखकर चुनाव लड़ना चाहते हैं। लेकिन राज्य में वसुंधरा राजे का भारी समर्थक वर्ग इस काम में बाधा बन रहा है। जिसके कारण मोदी-शाह सीधे तौर पर वसुंधरा को दरकिनार भी नहीं कर पा रहे हैं, और साथ लेकर चलना भी नहीं चाहते हैं।

राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत के बाद वसुंधरा राजे भाजपा की दूसरी ऐसी नेता हैं जिनका राज्य के हर भाग और वर्ग में मजबूत पकड़ है। चुनाव में जातीय समीकरण बहुत मायने रखता है। वसुंधरा अकेले अपने बूते पर राजपूत, जाट और गुर्जर समाज के बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ने का माद्दा रखती हैं। ऐसे में चार महीने बाद होने वाले चुनाव में क्या भाजपा आलाकमान उन्हें हाशिए पर धकेल देने में सफल हो जायेगा, या वसुंधरा राजे अपने समीकरण और राजनीतिक कौशल के चलते पार्टी आलाकमान को घुटने टेकने पर मजबूर कर देंगी?

फिलहाल, हम वसुंधारा राजे के शुरुआती जीवन, शिक्षा और राजनीतिक जीवन और कौशल की चर्चा करेंगे। और यह भी विश्लेषित करने का प्रयास करेंगे कि कैसे वह राजस्थान की राजनीति में भाजपा के लिए अपरिहार्य बनी हुई हैं?

ग्वालियर राजघराने की बेटी और धौलपुर राजघराने की बहू

वसुन्धरा राजे का जन्म 8 मार्च, 1953 को मुम्बई में हुआ। राजे ने अपनी स्कूली शिक्षा तमिलनाडु के कोडाइकनाल में प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट स्कूल से पूरी की और सोफिया कॉलेज फॉर वुमेन, मुंबई से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के साथ स्नातक किया। वह भूतपूर्व ग्वालियर मराठा राजघराने की पुत्री और राजस्थान के धौलपुर के जाट राजघराने की बहू हैं। उनके पुत्र दुष्यंत सिंह का विवाह समथर के गुर्जर राजघराने में हुआ है। जबकि उनकी मां विजया राजे सिन्धिया एक राजपूत परिवार से थीं।

राजमाता विजया राजे सिंधिया का संघ-भाजपा में उनका बड़ा सम्मान था। इसका कारण जनसंघ के समय से ही पार्टी और आरएसएस को वह आर्थिक सपोर्ट करती थीं। संघ-भाजपा हलकों में यह कहा जाता है कि शुरुआत में ग्वालियर की राजमाता विजया राजे सिंधिया ही आरएसएस-जनसंघ को विभिन्न कार्यक्रमों के लिए धन मुहैया कराती थीं। और मध्य प्रदेश के चंबल और मालवा संभाग में ग्वालियर राजघराने को भारी जन-समर्थन मिलता रहा है। जिसके कारण विजया राजे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में शामिल रहीं।

राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाली वसुंधरा राजे के जीवन में सन् 1984 ढेर सारी उपलब्धियां और बदलाव लेकर आया।1984 में उन्हें भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किया गया और उसी वर्ष उन्होंने मध्यप्रदेश के भिंड लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था जिसमें उनकी हार हुई। उस वक्त पूरे देश में इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहर चल रही थी और इसी का फायदा उठाते हुए कांग्रेस के प्रत्याशी की जीत हुई।

भिंड से चुनाव हारने के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने वसुंधरा राजे को मध्य प्रदेश की बजाए राजस्थान की राजनीति में किस्मत आजमाने की सलाह दी। और एक दिन राजस्थान के जाने-माने नेता भैरों सिंह शेखावत के पास लेकर गईं। शेखावत ने राजमाता के आग्रह को न केवल स्वीकार किया बल्कि वसुंधरा का बेटी की तरह ध्यान रखने का आश्वासन भी दिया।

अब वसुंधरा राजे भैरों सिंह शेखावत की छत्र छाया में राजनीति का दांव-पेंच सीखने लगीं। 1985 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में उन्हें धौलपुर से टिकट मिला और जीत दर्ज कीं। 1987 में उनको राजस्थान प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बनाया गया। 1989 में वह झालावाड़ से लोकसभा का चुनाव जीतीं। इस तरह वह 1989-2003 तक पांच बार लोकसभा की सांसद रहीं तो 1985 से अब तक पांचवीं बार विधानसभा की सदस्य हैं। वह 2003-2008 और 2013-2018 तक दो कार्यकाल राजस्थान की मुख्यमंत्री रहीं। उनकी कार्यक्षमता के चलते 1998-1999 में अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में राजे को विदेश राज्यमंत्री बनाया गया। वसुंधरा राजे को अक्टूबर 1999 में फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया।

भैरों सिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के बाद उन्हें राजस्थान में भाजपा राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। 2013 में गहलोत सरकार को सत्ता से हटाने के लिए उन्होंने सुराज संकल्प यात्रा निकाली जिसका उन्हें भरपूर समर्थन मिला और वह राज्य की दूसरी मुख्यमंत्री बनीं। सन 2018 में एक बार फिर वसुंधरा राजे के चुनावी रथ ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ को अमित शाह ने राजसमन्द जिले से रवाना किया जो राजस्थान की 165 विधानसभाओं से गुजरा, लेकिन इस बार वह सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो सकीं।

2018 की चुनावी हार के बाद वसुंधरा राजे के राजनीतिक सितारे डूबने लगे। उन्हें भाजपा आलाकमान द्वारा दरकिनार किया जाने लगा। लेकिन दो दशकों तक उन्होंने राज्य भाजपा को एकछत्र संचालित किया था। भाजपा आलाकमान के रुख से असहमति व्यक्त करते हुए उन्होंने समय-समय पर शक्ति प्रदर्शनों के माध्यम से राज्य की राजनीति में केंद्रीय भूमिका निभाने का संदेश देते हुए पार्टी आलाकमान को नाकों चना चबवाती रहीं।

वसुंधरा राजे के राजनीतिक भविष्य पर अब दिल्ली और जयपुर दोनों के सत्ता गलियारों में चर्चा हो रही है। 2003 और 2013 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को ऐतिहासिक जीत दिलाने के बाद से वसुंधरा राजे ने राजस्थान की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले भाजपा के दो महत्वपूर्ण चुनाव पैनलों से राजे को बाहर रखने ने एक बड़ी चर्चा छेड़ दी है। यह सब अकस्मात नहीं हुआ है। इसकी पृष्ठभूमि बहुत पीछे तक जाती है।

2014 लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे से शुरू हुआ मतभेद

2014 लोकसभा चुनाव के समय ही टिकट बंटवारे को लेकर वसुंधरा राजे और मोदी-शाह के बीच मनमुटाव शुरू हो गया था। जो भाजपा की भारी जीत और फिर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री शपथ ग्रहण समारोह में खुलकर सामने आ गया। दिल्ली और जयपुर के राजनीतिक गलियारों में उस समय यह चर्चा तेजी से फैली कि वसुंधरा राजे और राजस्थान के कई वरिष्ठ नेता शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आ रहे हैं।

दरअसल, वसुंधरा ने सांसदों को जो सूची केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए भेजी थी, उसमें से किसी को भी मोदी ने अपने कैबिनेट में शामिल नहीं किया। इसकी भनक लगते ही वसुंधरा राजे ने नाराज होकर शपथ ग्रहण में आने से मना कर दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने वसुंधरा को फोन कर शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए सहमत किया। दरअसल, आडवाणी ने कहा कि आज का दिन संघ-भाजपा के लिए ऐतिहासिक है, क्योंकि पहली बार केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है। इसलिए छोटे-मोटे झगड़े को छोड़कर इसमें शामिल होइए।

2018 में सत्ता गंवाने के बाद से ही मोदी-शाह की जोड़ी राजस्थान में वसुंधरा राजे से छुटकारा पाने की कोशिश कर रही है। इस प्रयास में राज्य में वसुंधरा विरोधी नेताओं को आगे किया गया। उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। विपक्ष का नेता बनाया गया। राजे विरोधी सांसदों इनमें से अधिकांश नए लोग आरएसएस से थे और इनमें पहली बार विधायक बने सतीश पूनिया, जिन्हें राज्य भाजपा अध्यक्ष बनाया गया था, गजेंद्र सिंह शेखावत, अमित शाह के शिष्य और राजे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी, जिन्हें केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बनाया गया, और ओम बिड़ला को लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन वसुंधरा समर्थकों को दरकिनार किया गया। वसुंधरा विरोधियों को केंद्रीय सत्ता और पार्टी के सहयोग के बावजूद अभी तक सूबे मे उनका कोई दूसरा विकल्प नहीं बन पाया। अब आलाकमान के सामने संकट है कि वह क्या करे।

वसुंधरा राजे को नेतृत्व और चुनावी चेहरा बनाने से परहेज

केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा को दरकिनार करने में लगा है तो वह भी टूटने को तैयार हैं लेकिन आलाकमान के समाने ‘झुकने’ के लिए तैयार नहीं हैं। पूर्व मुख्यमंत्री राजे एक सप्ताह पहले जयपुर में भाजपा के बड़े अभियान “नहीं सहेगा राजस्थान” के तहत होने वाले विरोध प्रदर्शन के कार्यक्रम में नहीं शामिल हुईं। अब उनकी अनुपस्थिति ने राजनीतिक हलकों में और अधिक चिंताएं बढ़ा दी हैं और इन अटकलों को जन्म दिया है कि राजे नाराज हैं और भाजपा में दरार बढ़ सकती है।

आगामी चुनावों में राजे की भूमिका को लेकर बढ़ती अटकलों के साथ मुख्य सवाल यह है कि क्या भाजपा के शीर्ष नेताओं ने अपने सीएम चेहरे के रूप में वसुंधरा से परे देखने का फैसला किया है?

लेकिन भाजपा नेतृत्व कोई सीधा जवाब नहीं दे रहा है। क्योंकि भाजपा स्वयं अपनी वसुंधरा दुविधा को हल करने में असमर्थ रही है।

विरोधियों से निपटने के लिए रणनीति बनाती रहीं राजे

हाशिए पर होने के बावजूद राजे ने झुकने से इनकार कर दिया और अपने विरोधियों का मुकाबला करने के लिए हमेशा एक रणनीति बनाती रहीं। उन्होंने कुछ दिन पहले “देव दर्शन यात्रा” या राजस्थान के प्रमुख मंदिरों की धार्मिक यात्राओं की आड़ में अपनी महत्वाकांक्षाओं को छिपाते हुए जनता की नजरों में बनी रहीं।

राजे के वफादारों ने उनकी सामूहिक अपील को प्रदर्शित करने के लिए मंदिर कस्बों में उनके जन्मदिन समारोहों को बड़े कार्यक्रमों में बदल दिया। उनके धार्मिक-राजनीतिक कार्यक्रमों ने राजे को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बने रहने में सक्षम बनाया और भाजपा का सीएम चेहरा बनने के लिए उनकी दावेदारी को पुख्ता किया।

वसुंधरा राजे के इन कदमों और जवाबी कदमों के कारण गुटीय झगड़े हुए और राजे के वफादारों और आरएसएस गुट के युवा नेताओं के बीच लगभग खुला युद्ध हुआ। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा अधिकांश उपचुनाव हार गई और राजस्थान में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करने में भी विफल रही।

भाजपा की राजस्थान रणनीति

अब उन्हें दरकिनार किए जाने पर भारी हंगामे के बावजूद, चतुर पर्यवेक्षकों का कहना है कि न केवल राजे, बल्कि सभी प्रमुख सीएम पद के उम्मीदवार इन पैनलों से अनुपस्थित हैं। उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी गजेंद्र शेखावत से लेकर विपक्ष के नेता राजेंद्र राठौड़ और पूर्व राज्य भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया से लेकर वर्तमान राज्य पार्टी प्रमुख सीपी जोशी तक, सीएम की दौड़ में कोई भी प्रमुख नेता इन दो पैनलों में नहीं है।

भाजपा जल्द ही एक चुनाव अभियान समिति की घोषणा कर सकती है, जिसमें ये सभी दिग्गज एक साथ शामिल होंगे और राजे उस पैनल की प्रमुख हो सकती हैं। मौजूदा पैनल में एकमात्र बड़ा नाम कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल का है, जो शायद एससी-एसटी मतदाताओं को लुभाने के लिए एक रणनीतिक कदम है।

भाजपा के कई दिग्गजों ने राज्य के नेताओं से एकजुट होकर चुनाव लड़ने को कहा है और राजे और उनके प्रतिद्वंद्वियों को मौजूदा पैनल से बाहर रखने का उद्देश्य चुनाव से पहले राज्य इकाई में गुटबाजी को फैलने से रोकना है।

राजस्थान में पीएम बनाम सीएम की लड़ाई

राजस्थान में पीएम मोदी और वसुंधरा राजे के बीच मतभेद है। पिछले कई वर्षों से राजे के भाजपा आलाकमान के साथ खराब रिश्ते किसी से छुपे नहीं हैं। लेकिन कर्नाटक चुनाव में हार के अपमान के बाद, भाजपा के दिग्गज राजस्थान चुनाव में हार का जोखिम नहीं उठाना चाहते। क्योंकि इसे लोकसभा लड़ाई की अग्रिम जीत के रूप में देखा जाएगा।

पार्टी राज्य चुनाव सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत पर लड़ना चाह रही है। राज्य इकाई में व्याप्त गुटबाजी पर काबू पाने के लिए भाजपा की रणनीति वोट खींचने के लिए पीएम मोदी के चेहरे का इस्तेमाल करने और किसी को भी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से बचने की है। हालांकि भाजपा पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की भूमिका पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हो गई तो राज्य में भाजपा कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में होगी, नहीं तो राजस्थान का चुनावी मैदान कांग्रेस के लिए खाली है।

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