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राजस्थान में दलित समाज द्वारा जारी घोषणापत्र को अब राष्ट्रव्यापी समर्थन

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भंवर मेघवंशी

अब जबकि राजस्थान सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे आने में कुछ ही दिन बाक़ी बचे हैं, यह ज़रूरी है कि हम उन प्रक्रियाओं तथा प्रवृतियों पर भी गौर करें जो निर्वाचन की राजनीति के इस दौर में ग़ैर-दलीय राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में विगत कुछ महीनों से चलीं। यह सवाल स्वाभाविक है कि राजस्थान के विधानसभा चुनावों में दलित संगठनों की क्या भूमिका रही? हालांकि उपलब्धियों और विफलताओं पर चर्चा करना अभी जल्दबाज़ी होगी, लेकिन इस दौरान चली राजनीतिक शिक्षण की प्रक्रियाएं निश्चित रूप से उल्लेखनीय कही जा सकती हैं।

मसलन, राजस्थान में चुनाव से करीब छह महीने पहले प्रमुख दलित संगठनों ने इस बात पर चर्चा शुरू की कि क्या इस बार हम लोग राजस्थान में दलित समुदाय के मध्य व्यापक विचारविमर्श के लिए कोई मंच स्थापित कर सकते हैं ताकि दलित समाज के लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया जाय? अनेक संगठनों के लोगों ने कई सुझाव दिए जिनमें राज्यव्यापी यात्रा के जरिए, मतदाताओं की जागरूकता हेतु अभियान चलाने और एक दलित घोषणा पत्र तैयार करना शामिल रहा। इस बात पर भी चर्चा हुई कि दलित समाज के वे लोग जो राजनीति के क्षेत्र में जाना चाहते हैं, उनका कैसे सहयोग किया जाय। इन सभी विषयों पर संगठनों के लोगों ने सहमति दी। 

ग़ैर-राजनीतिक दलित संगठनों से जुड़े लोगों ने अपनी सीमाओं से अवगत करवाया कि यह एक राजनीतिक काम है, जिसके कारण उनकी योजनाओं के लिए राज्य से प्राप्त होनेवाली वित्तीय सहायता प्रभावित हाे सकती हैं। वहीं राजनीतिक सगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना था कि वे यह काम पहले से करते आ रहे हैं और नए मंच की कोई ज़रूरत नहीं है। सेवानिवृत्त और सेवारत कर्मचारियों-अधिकारियों के संगठनों ने भी सक्रिय भागीदार बनने में असमर्थता जताई। लेकिन उत्साहजनक बात यह रही कि दलित समुदाय में कार्यरत विभिन्न संस्थाओं-संगठनों से जुड़े लोगों ने यह माना कि एक मंच की ज़रूरत है और वे इसमें बेशक संस्थागत नहीं, परंतु व्यक्तिगत रूप से भागीदार होने को तैयार हैं। इस प्रकार अनुसूचित जाति अधिकार अभियान राजस्थान (अजार) का गठन किया गया, जो कि एक समयबद्ध अभियान है। यह अप्रैल, 2024 के लोकसभा चुनाव तक सक्रिय रहेगा। इस अभियान के पीछे सैंकड़ों आंबेडकरवादी व बौद्ध समूहों की भूमिका रही।

पूर्व आईजी सत्यवीर सिंह सर्वसम्मति से संयोजक बनाये गए और उनके नेतृत्व में एक राज्यव्यापी यात्रा निकाली गई। 

जैसा कि पूर्व में ही तय हो गया था कि राजस्थान के दलित समुदाय के मुद्दों पर आधारित एक घोषणापत्र तैयार किया जाएगा, हालांकि यह काम जयपुर में बैठकर सामूहिक रूप से किया जा सकता था, लेकिन सुझाव यह आया कि राज्य भर में घूम-घूमकर लोगों के राय-मशविरे संग्रहित कर उसे घोषणापत्र का रूप दिया जाय। इस यात्रा को सामाजिक न्याय यात्रा नाम दिया गया। नारे, बैनर छपवाए गए। यात्रा की टैग लाइन निश्चित की गई– “हक है खैरात नहीं”। साथ ही कई नारे तय किए गए। इनमें हकदारी, और भागीदारी की बात की गई। करीब दस हजार मसौदा पत्र छपवाया गया। फिर 19 अगस्त, 2023 को जोबनेर से सामाजिक न्याय यात्रा शुरू हुई। इस मौके पर सैंकड़ों महिलाओं ने मसौदे का सामूहिक विमोचन किया। यह सामाजिक यात्रा 17 सितंबर को रेनवाल में समाप्त हुई। समापन के मौके पर चार किलोमीटर लंबी रैली निकाली गई और जनसभा का आयोजन किया गया। इस यात्रा के दौरान राजस्थान के सभी 50 जिलों के 100 स्थानों पर संवाद कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसके जरिए हजारों लोगों के साथ बातचीत हुई। संवाद कार्यक्रम दौरान लोगों को यह बताया गया कि ‘अजार’ क्या है और सामाजिक न्याय यात्रा क्यों शुरू की गई है। इसके अलावा लोगों से यह जाना गया कि दलित समाज की चुनौतियां क्या हैं और सामाजिक परिदृश्य क्या हैं। लोगों ने इस पर भी संवाद किया कि संविधान पर खतरा क्यों है और इसका मुकाबला दलित समाज कैसे करेगा।

सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान भंवर मेघवंशी व अन्य

यात्रा में चलते-भागते-दौड़ते हुए ही आगे की रणनीति बनी, जिसमें तय हुआ कि दलित घोषणापत्र के अलावा उम्मीदवारों की सोशल स्क्रीनिंग की जाएगी। साथ ही जयपुर में चुनाव के दौरान दलितों के सवालों और मुद्दों पर निगाह रखने के लिए एक विशेष कक्ष के बारे में भी विचार किया गया। इसके अलावा यह तय किया गया कि राज्य स्तर पर जन मंच का निर्माण होगा।

प्रारंभ में विगत पांच वर्षों के दौरान दलित समुदाय द्वारा दिए गए ज्ञापन, मांगें और सोशल मीडिया में उठे मुद्दों का अध्ययन करके एक ड्राफ्ट बनाया गया, जिसे अजार के सदस्य मसौदा-पत्र के रूप में यात्रा के दौरान लेकर गए। इसमें 80 बिंदु थे। हमने लोगों से कहा कि यह एक अधूरा मसौदा है क्योंकि अभी इसमें आप सबकी राय का शामिल होना शेष है। हमने लोगों का आह्वान किया कि हम सब मिलकर अपना घोषणा पत्र बनाएंगे और राजनीतिक दलों को यह साफ़ कर देंगे कि हम दलित आपके एजेंडे पर नहीं, बल्कि आपको हमारे एजेंडे पर चलना होगा। एक महीने की करीब 7000 किलोमीटर लंबी यात्रा के दौरान सभी पचास जिलों के लोगों से हम जुड़ पाए और अंतिम रूप से एक दस्तावेज़ तैयार हुआ, जिसे ‘जयपुर घोषणापत्र’ नाम दिया गया। यह बीस पृष्ठ का था। 

इस घोषणापत्र में मुख्यतः वंचितों में भी अति वंचित की चिंता की गई और इसमें सफाई कर्मचारियों व घुमंतू समुदायों तथा दलित महिलाओं के सवालों पर फोकस किया गया। इसके अलावा इसमें 2 अप्रैल, 2018 के भारत बंद आंदोलनकारियों के खिलाफ दर्ज किए गए मुक़दमों को वापस लेने, बढ़ते दलित अत्याचारों पर रोक लगाने, सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर रोक लगाने, संविदा आधारित नौकरियों में भी आरक्षण, जनसंख्या के अनुपात में दलितों के लिए आरक्षण 16 फीसदी से बढ़ाकर 18 फीसदी करने, दलित उद्यमियों को बिना ब्याज ऋण उपलब्ध करवाने, विश्वविद्याालयों में आंबेडकर पीठ के रूप में शोध केंद्र बनाने, अनुसूचित जाति के लिए बजट में प्रावधानित विशेष घटक योजना के समुचित व्यय हेतु कानून बनाने आदि मांगें शामिल थीं। 

प्रारंभ का मसौदा घोषणापत्र का रूप ले चुका था, जिसका लोकार्पण किया जाना था और राजनीतिक दलों के साथ भी उसके ऊपर चर्चा होनी थी। इसके लिए एक जनमंच की परिकल्पना की गई। इसके लिए एक आयोजन समिति का गठन किया गया तथा एक कोर टीम बनाई गई, जिसने राजनीतिक दलों से संपर्क किया। फिर 28 सितंबर, 2023 को इंदिरा गांधी पंचायती राज संस्थान, जयपुर में जनमंच आयोजित किया गया। सुमन देवठिया और कांता सिंह के नेतृत्व में बड़ी संख्या में उपस्थिति महिलाओं के द्वारा घोषणापत्र को लोकार्पित किया गया। इस कार्यक्रम को महिलाओं ने ही अंजाम दिया। वे ही संचालक रहीं और उन्होंने ही इस मौके पर संबोधन भी किया।

इसके बाद घोषणापत्र की प्रारूप समिति का परिचय और अभिनंदन किया गया। हालांकि इसके अध्यक्ष पूर्व आईएएस श्रीराम चोरडिया अस्वस्थ रहने की वजह से उपस्थित नहीं हो पाए। अजार के संयोजक सत्यवीर सिंह ने घोषणापत्र बनने की प्रक्रिया को सामने रखा। वहीं प्रारूप समिति के सदस्य एडवोकेट सतीश कुमार और डॉ. नवीन नारायण ने घोषणापत्र के मुख्य बिंदुओं पर चर्चा की। इसके बाद राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने अपनी बातें रखीं। जनमंच के इस कार्यक्रम में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आजाद समाज पार्टी (आसपा) से कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा), माकपा, भाकपा, माकपा माले आदि दलों के प्रतिनिधि जनमंच में शामिल हुए और उन्होंने अपनी बातें रखी। 

समानांतर रूप से जयपुर में दलित सिविल सोसायटी का एक विशेष निगरानी कक्ष स्थापित किया गया और वहां से दलित अत्याचार में शामिल संभावित उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ अभियान शुरू हुआ। सोशल स्क्रीनिंग करने के लिए एडवोकेट तारा चंद वर्मा के नेतृत्व में टीम गठित की गई और बाड़ी धोलपुर के विधायक गिर्राज सिंह मलिंगा जैसे दलित अत्याचार के आरोपी को टिकट नहीं देने के लिए कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से आग्रह किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस ने मलिंगा को टिकट नहीं दिया, जबकि भाजपा ने उन्हें एक ही दिन में पार्टी में शामिल कर लिया और टिकट भी दे दिया। इसके ख़िलाफ़ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को खुला पत्र लिखा गया तथा सार्वजनिक रूप से भी अपील जारी की गई। लेकिन भाजपा ने कोई कार्रवाई नहीं की।

तब तक चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उम्मीदवार घोषित किए जा चुके थे। लेकिन अजार के सदस्य नहीं रूके। दलित विरोधी उम्मीदवारों के क्षेत्रों में अजार की टीमों ने सीधे जाकर नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से वहां के दलितों से अपील की कि ऐसे दलित अत्याचारी लोगों को वोट न दें। इसी दौरान राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र जारी होने लगे। सबसे पहले भाजपा का संकल्प पत्र जारी हुआ, जिसमें दलित मैनिफ़ेस्टो से कुछ भी नहीं लिया गया। बसपा और कम्युनिस्ट पार्टियों ने घोषणापत्र ही जारी नहीं किया। आज़ाद समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी की ओर से एक पृष्ठ का ‘हनुमान प्रतिज्ञापत्र’ जारी किया गया, जिसमें दो मुद्दे दलित घोषणापत्र से लेकर इतिश्री कर ली गई। जबकि कांग्रेस द्वारा जारी घोषणापत्र में अधिकांश बिंदुओं को शामिल किया गया। 

राजस्थान में दलित समाज द्वारा जारी घोषणापत्र को अब राष्ट्रव्यापी समर्थन मिल रहा है। बीते दिनों नागपुर में दस राज्यों के प्रतिनिधियों की प्राथमिक बैठक भी हो चुकी है। इस पूरे अभियान का फलाफल यह रहा कि दलित संगठनों ने एक ग़ैर-दलीय राजनीतिक हस्तक्षेप की शुरुआत की और बिना चुनाव लड़े चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी की। यह राजनीतिक दलों व जन प्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने की कोशिश रही। एक और सुखद परिणाम यह रहा कि दलित समूहों का एक गैर-दलीय संयुक्त राजनीतिक गठबंधन उभर कर सामने आया।

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