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अब मज़दूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को “राष्ट्र” की “रक्षा” भी ठेके पर करनी होगी!

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मोदी सरकार ने हाल ही में सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में भर्ती की एक नयी योजना ‘अग्निपथ’ की घोषणा की। इसके साथ ही देश के कई राज्यों में बेरोज़गार नौजवानों के उग्र प्रदर्शन फूट पड़े। कई राज्यों में ट्रेनों आदि को जलाया गया, बहुत-सी ट्रेनें कुछ दिनों तक रद्द रहीं, बहुत-सी ट्रेनों के रास्ते बदल दिये गये। इस योजना पर नौजवानों का यह ग़ुस्सा क्यों फूटा? इसकी वजह यह थी कि सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में नौकरी पाने का प्रयास करने वाले लाखों युवाओं के रोज़गार के हक़ पर यह एक हमला है। इस योजना के तहत अब सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में चार वर्ष के लिए भर्ती होगी, उसके बाद आपको निकाल दिया जायेगा और आपको पेंशन व ग्रैच्युटी आदि जैसे अधिकार भी हासिल नहीं होंगे। यानी मोदी जी ने फिर से आम चूसकर गुठली फेंकने का ‘प्लान’ बना लिया है!

‘अग्निपथ’ वास्तव में सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में रोज़गार को ठेका प्रथा के मातहत ला रही है। यह एक प्रकार से ‘फ़िक्स्ड टर्म कॉण्ट्रैक्ट’ जैसी व्यवस्था है, जिससे हम मज़दूर पहले ही परिचित हो चुके हैं और जिसके मातहत एक निश्चित समय के लिए आपको काम पर रखा जाता है, और फिर आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। पहले मज़दूरों की बारी आयी थी, अब सैनिकों की बारी आयी है। जैसा कि एक कवि पास्टर निमोलर ने कहा था, फ़ासीवादी देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की ढपली बजाते हुए अन्तत: किसी को नहीं छोड़ते!

इस योजना ने संघ परिवार और मोदी सरकार के नक़ली देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की पोल भी खोल दी है। सत्ता में पहुँचने के लिए इन्होंने अपने कथित देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” का ख़ूब ढिंढोरा पीटा था। जब नोटबन्दी करके देश की जनता को बैंकों की लाइनों में खड़ा कर दिया गया था, तो नाराज़ लोगों से मोदी सरकार और उसके चमचे पूछा करते थे, “सैनिक 24 घण्टे धूप, बारिश और बर्फ़बारी में सीमा पर खड़े रहते हैं, तुम देश की सेवा के लिए कुछ घण्टे बैंक की लाइन में नहीं खड़े रह सकते?” लेकिन अब तो सैनिकों की ही बारी आ गयी! अब ये सैनिकों को किसका हवाला देंगे?

अग्निपथ’ योजना को लागू करने का असली कारण क्या है?

असली कारण है आर्थिक संकट के दौर में सरकारी घाटे को कम करना। ज़ाहिर है, सरकारी घाटा कम करने के लिए सांसदों, विधायकों, नेताओं-मंत्रियों के मोटे-मोटे वेतनों, भत्तों, छूटों, सहूलियतों, उनकी सुरक्षा, आवास, सुविधाओं आदि पर ख़र्च होने वाले लाखों करोड़ रुपयों के ख़र्च में कोई कमी नहीं की जायेगी! उल्टे, वह तो बढ़ता जायेगा! हर साल सारी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ आपसी रज़ामन्दी से सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों व सुविधाओं में बढ़ोत्तरी करवाती हैं। इस मसले को लेकर इनमें कभी जूतम-पैजार नहीं होती! पूँजीपति घरानों को तमाम करों से छूट देने और जनता की सम्पदा को लूटकर लगभग मुफ़्त में इनके हवाले करने से होने वाले भारी सरकारी घाटे को लेकर मोदी सरकार और भाजपा समेत सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों को कोई चिन्ता नहीं होती! लेकिन सभी सरकारी विभागों के कर्मचारियों व मज़दूरों की स्थायी नौकरी, उनके वेतनों, उनके भत्तों, उनकी पेंशनों आदि के बोझ से सरकारी घाटा बढ़ जाता है!

अग्निपथ’ योजना के तहत चार साल की ठेके की नौकरी की व्यवस्था क्यों की गयी है?

क्योंकि ग्रैच्युटी एक्ट के अनुसार 4.5 वर्ष तक नौकरी के बाद व्यक्ति ग्रैच्युटी का अधिकारी हो जाता है, जिसके कारण सरकार को इन सैनिकों को ढाई महीने का अतिरिक्त वेतन देना पड़ेगा। देश में कनफ़ेडरेशन ऑफ़ आल इण्डिया ट्रेडर्स के मातहत 40,000 संघों में संगठित आठ करोड़ पंजीकृत छोटे, मँझोले और बड़े व्यापारी हैं, लेकिन जीएसटी के तहत पंजीकृत व्यक्तियों और कारोबारों की संख्या मात्र 1.4 करोड़ है। इसी प्रकार, कारपोरेट पूँजीपति घराने भारी पैमाने पर टैक्स चोरी करते हैं और उन पर लगने वाले टैक्सों को मोदी सरकार समेत पिछले तीन दशकों में आयी सारी सरकारों ने लगातार घटाया है। साथ ही, खेतिहर पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसानों-कुलकों को तो करों से छूट दी गयी है। वहीं दूसरी ओर आम मेहनतकश जनता द्वारा दिये जाने वाले अप्रत्यक्ष करों में लगातार बढ़ोत्तरी की गयी है। लेकिन सरकारी घाटे को कम करने, नेताओं-मंत्रियों-सांसदों-विधायकों की ऐय्याशी और पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ाने के लिए ये क़दम भी नाकाफ़ी साबित हुए। आर्थिक संकट के दौर में सरकारी घाटा और भी ज़्यादा बढ़ा क्योंकि सरकार का राजस्व अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अधिशेष से ही आता है। यदि समूची अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की दर घटती है, तो सरकारी आमदनी में भी कमी आती है।

पहले मोदी सरकार ने लोगों की पेंशन पर हमला बोला। फिर सरकारी विभागों में भर्तियों को लगभग रोक दिया। पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी कर लगाकर सरकारी घाटे को कम करने का काम किया। देशभर में पूँजीपति वर्ग को नये लेबर कोड्स के तहत मज़दूरों के अन्धाधुन्ध शोषण की पूरी छूट देने की भी तैयारी की जा चुकी है, हालाँकि देश के 93 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों की खुली लूट की पूरी छूट तो पहले से ही मिली हुई थी। अब श्रम क़ानूनों की वजह से जो थोड़ा-बहुत सिरदर्द होता था, वह भी ख़त्म किया जा रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद इस देश के शासक वर्गों की ऐय्याशी का पूरा इन्तज़ाम नहीं हो पा रहा है! इसलिए अब सेना में ‘अग्निपथ’ योजना के ज़रिए देश के मज़दूरों-ग़रीब किसानों के बेटे-बेटियों से स्थायी नौकरी का हक़, पेंशन का हक़ और ग्रैच्युटी का हक़ भी छीना जा रहा है।

यहाँ पर सेना के नाम पर अन्धराष्ट्रवाद फैलाकर जनता को मूर्ख बनाने की भाजपा और संघ परिवार की साज़िशों का भी पर्दाफ़ाश हो जाता है। न जाने सेना और सैनिकों के नाम पर इस देश के आम मेहनतकश लोगों को कितनी बार मूर्ख बनाया जा चुका है। सैनिकों और उनकी क़ुरबानी का हवाला देकर लोगों को भावुक कर दिया जाता है और फिर उनसे जो कुछ वसूला जा सकता है, वह वसूल लिया जाता है। नोटबन्दी के समय भी ऐसा ही किया गया था। तमाम युद्धों के दौरान भी ऐसा किया जाता है, जबकि इन युद्धों के पीछे हमेशा ही पूँजीपतियों के हितों का टकराव होता है और इस टकराव को निपटाने के लिए हज़ारों सैनिकों की बलि दे दी जाती है, जो कि इस देश के आम मेहनतकश लोगों के ही बेटे-बेटियाँ होते हैं।

आम सैनिक कौन होते हैंक्या आपने सुना है कि अमीरज़ादों के बेटेबेटियाँ सेना में आम सिपाही के तौर पर भर्ती के लिए आवेदन करते होंनहींक्या कभी किसी नेतामंत्रीसांसदविधायक के बच्चे सैनिक  अर्द्धसैनिक बलों में आम सिपाही के तौर पर भर्ती होते हैं? नहीं! यह आम मेहनतकश आबादी, यानी, मज़दूरों, छोटे व मँझोले किसानों, निम्नमध्यवर्ग के लोगों के बेटे-बेटियाँ हैं, जो सेना-पुलिस आदि में आम सिपाही के तौर पर भर्ती होते हैं। बचपन से ही मँहगे निजी स्कूलों में अमीरज़ादों के बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस अधिकारी आदि बनने या पैसा कमाने के लिए विदेश फुर्र हो जाने के सपने दिखाये जाते हैं और उसकी तैयारी करायी जाती है, लेकिन आम सरकारी स्कूलों में सामान्य मेहनतकश आबादी के बेटे-बेटियों को मज़दूर बनकर, छोटा-मोटा कर्मचारी बनकर या फिर सेना-पुलिस में सिपाही बनकर “राष्ट्र” की “सेवा” करने का पाठ पढ़ाया जाता है!

यह “राष्ट्र” क्या है? यह “राष्ट्र” पूँजीपति वर्ग का “राष्ट्र” है और जहाँ कहीं आप “राष्ट्रीय हित” पढ़ें, उसे आप पूँजीपति वर्ग का हित पढ़ा करें। यह मज़दूरों और नौजवानों के लिए एक बुनियादी सबक़ है। देश कोई काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता। देश उसमें रहने वाले आम मेहनतकश लोगों से बनता है, जो सुई से लेकर जहाज़ तक सबकुछ बनाते हैं और समूचे देश को चलाते हैं। अगर यह आम मेहनतकश आबादी ही ग़रीबी और बेरोज़गारी की मार झेल रही हो, भुखमरी और अशिक्षा के गर्त में पड़ी हो, अगर फ़सल उगाने वाले ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर भूखे हों, अगर मकान बनाने वाले मज़दूर बेघर हों, और कपड़े बनाने वाले मज़दूरों के पास तन ढँकने को कपड़े न हों, तो “राष्ट्र” के “गौरव” और “रक्षा” की बातें हम मज़दूरों के लिए बकवास हैं। वास्तव में, “राष्ट्रीय हित” और “राष्ट्र की रक्षा” के नाम पर पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा होती है और उन्हीं की रक्षा होती है। देशों के बीच युद्ध भी वास्तव में पूँजीपति वर्गों के हितों के टकराव की वजह से ही होता है, जिसके मूल में होता है पूँजीवादी शासक वर्ग का विस्तारवाद, लाभप्रद निवेश के अवसरों की तलाश, बाज़ारों पर क़ब्ज़े की जद्दोजहद और सस्ते श्रम और कच्चे माल के स्रोतों पर क़ब्ज़ा करने की चाहत। पूँजीपति वर्ग के इन्हीं हितों को पूँजीपतियों की सरकार द्वारा देश की आम मेहनतकश जनता के सामने “राष्ट्रीय हित” बनाकर पेश किया जाता है। वास्तव में, सेना व पुलिस का इस्तेमाल युद्धों के दौरों में और शान्ति के दौरों में भी स्वयं देश के अन्दर के मज़दूरों, बेरोज़गारों और ग़रीबों को कुचलने के लिए किया जाता है।

अगर हम उन लाखों-लाख बेरोज़गार नौजवानों की बात करें जो कि सेना व पुलिस में आम सिपाही की नौकरियों के लिए तैयारी करते रहते हैं, कसरत और पढ़ाई करते रहते हैं, तो उनके लिए सेना व पुलिस में भर्ती सर्वप्रथम रोज़गार का एक अवसर है। अभी तक यह अवसर उन्हें सीमित अर्थों में आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराता था। यह दीगर बात है कि सेना व पुलिस के भीतर आम सिपाहियों के साथ सेना के अधिकारियों द्वारा जो बर्ताव किया जाता है, उन्हें बैरकों में जिन हालात में रखा जाता है, उन्हें जो वेतन दिया जाता है, और जिस तरीक़े से उन्हें उनके बुनियादी जनवादी अधिकारों से वंचित रखा जाता है, वह अपने आप में “राष्ट्र सेवा” के सारे दावों का मख़ौल बना देता है। उन्हें हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि और राजनीतिक चेतना से दूर रखने का प्रयास किया जाता है। उनमें सोचने-विचारने की शक्ति को कुचल डालने का हर प्रयास किया जाता है और उन्हें बस आदेश पर अमल करने का आदी बनाया जाता है, यह प्रश्न उठाये बिना कि आदेश क्या है, किसके द्वारा दिया जा रहा है और किसकी सेवा के वास्ते दिया जा रहा है। उन्हें यूनियन या संगठन बनाने की कोई आज़ादी नहीं होती। दूसरे शब्दों में, उन्हें राजनीतिक चेतना विकसित करने से रोकने का हर-सम्भव इन्तज़ाम सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में किया जाता है। सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के भीतर अवसाद और आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों का कारण दरअसल इनके भीतर मौजूद भयंकर शोषण, उत्पीड़न और अपमान है। लेकिन इन सबके बावजूद बेरोज़गारी की मार झेलने वाले लाखों-लाख नौजवान परिवार के पालन-पोषण के लिए और सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली सहूलियतों के कारण सेना में भर्ती होने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं।

‘अग्निपथ’ योजना के ज़रिए रोज़गार का यह अवसर और आर्थिक सुरक्षा व निश्चितता भी अब ठेका प्रथा लाकर समाप्त की जा रही है।

ऐसे मेंदेश के क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का क्या रुख़ होना चाहिएइस सवाल का जवाब देने के लिए हमें कुछ बातें समझ लेनी चाहिए।

पहली बात, सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों और साथ ही पुलिस बलों में आम सिपाही वास्तव में वर्दी में ग़रीब किसान व मज़दूर-मेहनतकश ही हैं। मेहनतकशों की वर्ग एकता का बुनियादी प्रश्न है कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग उनके साथ एकजुटता ज़ाहिर करे, उनके दुखों-तकलीफ़ों में उनके साथ खड़ा हो और उनकी जायज़ राजनीतिक व आर्थिक माँगों का पुरज़ोर समर्थन करे। जो लोग इस प्रकार का तर्क दे रहे हैं कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को इन आम सिपाहियों के रोज़गार के अधिकार और उनकी सहूलियतों के वास्ते उनके साथ नहीं खड़ा होना चाहिए क्योंकि वे पूँजीवादी सेना के लिए काम करते हैं और उनका इस्तेमाल अक्सर आम मेहनतकशों के आन्दोलनों व संघर्षों को ही कुचलने के लिए किया जाता है, वे क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति का ‘क ख ग’ भी नहीं जानते हैं। इस तर्क से सरकार के तमाम विभागों में भी भर्ती के लिए हमें संघर्ष नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सभी विभाग वास्तव में पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को ही अलग-अलग रूप में क़ायम करने का काम करते हैं। सेना-पुलिस के लाखों-लाख नौजवानों को पूँजीपति वर्ग के रहमो-करम पर छोड़ देना, उनके पूँजीवादी प्रचार के सामने अरक्षित छोड़ देना और उनकी जायज़ माँगों व अधिकारों के लिए उनका समर्थन न करना एक सर्वहारा-विरोधी लाइन है। यह एक प्रकार की “वामपन्थी” लाइन है, जो वास्तविकता को नहीं समझती और मनोगत तरीक़े से वास्तविकता से सैंकड़ों क़दम आगे चलने का प्रयास करती है। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में काम करने वाली मेहनतकशों के बेटे-बेटियों की व्यापक संख्या तक अपनी बात अवश्य पहुँचानी चाहिए और उन्हें समूची व्यवस्था, शासक वर्ग और उनके शोषण-उत्पीड़न की कड़वी सच्चाई से वाक़िफ़ कराना चाहिए।

दूसरी बात, सेना व पुलिस बलों में काम करने वाली इस आम मेहनतकश आबादी के लिए यह काम सर्वप्रथम एक रोज़गार है। कुछ लोग कहते हैं कि फिर तो क्रान्तिकारियों को सरकार के ख़ुफ़िया विभाग और रॉ जैसी एजेंसियों में भी भर्ती की माँग उठानी चाहिए जो कि क्रान्तिकारी आन्दोलनों के भीतर घुसपैठ कर उन्हें कुचलने के लिए ज़रूरी सूचनाएँ इकट्ठा करते हैं! यह भी एक अव्यावहारिक और “वामपन्थी” बचकानेपन की सोच है। यह दो स्तरों पर ग़लत है। ख़ुफ़िया एजेंसियाँ हों या फिर सेना व अर्द्धसैनिक बल, इन सभी जगहों पर एक वर्ग विभाजन है। हम हर जगह सर्वहारा वर्गीय लाइन को लागू करते हैं और एक को दो में बाँटते हैं। किसी भी सरकारी विभाग में काम करने वाले आम मेहनतकशों व मज़दूरों को संगठित करना, उनके बीच राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन के लिए काम करना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है। इसी के ज़रिए क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीति के वर्चस्व को समाज और राजनीति के हर क्षेत्र में क़ायम कर सकता है। सर्वहारा वर्ग किसी मसले पर कोई अवस्थिति ही न अपनाये, या वह आम मेहनतकश आबादी के ऐसे हिस्सों की जायज़ आर्थिक व राजनीतिक माँगों का समर्थन न करे, तो वह कभी व्यापक जनसमुदायों को नेतृत्व देने वाला हिरावल वर्ग बन ही नहीं सकता है। ऐसे सभी विभागों में भी यदि वहाँ काम करने वाली आम मेहनतकश आबादी यूनियन या संगठन बनाने के जनवादी अधिकार या बेहतर वेतन-भत्तों व कार्यस्थितियों की आर्थिक माँगों को उठाती है, तो क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को उसका समर्थन करना चाहिए, उनके बीच अपने लक्ष्य और आदर्श का प्रचार करना चाहिए, उनके बीच पूँजीपति वर्ग के शोषण और उत्पीड़न की सच्चाई को उजागर करना चाहिए और उनके बीच इस बात का प्रचार करना चाहिए कि उनकी एकजुटता वास्तव में देश के करोड़ों-करोड़ मज़दूरों, ग़रीब किसानों व निम्नमध्यवर्गीय मेहनतकश आबादी के साथ बनती है। इस प्रकार का तर्क जो दूसरी ग़लती करता है वह है ख़ुफ़िया विभागों और सेना व अर्द्धसैनिक बलों में फ़र्क़ न करना। ये दोनों एक ही चीज़ नहीं हैं। ख़ुफ़िया विभाग में उच्च अधिकारियों से लेकर मध्यम व निम्न-मध्यम स्तर तक के कर्मचारियों को विशिष्ट तौर पर विचारधारात्मक व राजनीतिक प्रशिक्षण दिया जाता है और उन्हें व्यवस्थित तौर पर जनविरोधी पूँजीवादी विचारधारा व राजनीति में ‘ट्रेन’ किया जाता है। सेना व पुलिस बलों के आम सिपाहियों का मसला इस अर्थ में बिल्कुल अलग है।

दुनियाभर में जनक्रान्तियों के दौरान सेना व पुलिस बलों का अच्छा-खासा हिस्सा क्रान्तिकारियों के साथ आ गया। इसमें एक ओर वस्तुगत स्थितियों की एक भूमिका थी तो दूसरी ओर इसकी भी भूमिका थी कि क्रान्तिकारियों ने सेना व पुलिस बलों में काम करने वाले मेहनतकशों के साथ भी व्यापक एकजुटता स्थापित की थी, उनकी भौतिक-आर्थिक माँगों का समर्थन किया था और उनके बीच अपने सन्देश को लेकर वे लगातार गये थे। आज जब सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में ठेका प्रथा को लागू किये जाने की पूरी तैयारी मोदी सरकार कर चुकी है, तो ऐसे में क्या सर्वहारा क्रान्तिकारियों को इसका विरोध नहीं करना चाहिए? ऐसा सोचने वाला कोई शेख़चिल्ली के जैसा “वामपन्थी” बचकानेपन का शिकार व्यक्ति ही हो सकता है, जिसे न तो क्रान्ति के विज्ञान की कोई जानकारी है और न ही दुनियाभर में क्रान्तियों के इतिहास के बारे में। इन माँगों का समर्थन करने का अर्थ पूँजीपति वर्ग द्वारा “दमन के अधिकार” का समर्थन नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग के इस अधिकार को भंग करने की दिशा में एक क़दम है।

‘अग्निपथ’ के विरोध में नौजवानों की जो बग़ावत फूटी, वह वास्तव में सिर्फ़ सेना में भर्ती के ठेकाकरण के ख़िलाफ़ नहीं थी। वह आम तौर पर बेरोज़गारी के विरुद्ध बेरोज़गार युवाओं का विद्रोह था। देश में बेरोज़गारी आज सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है। निजी क्षेत्र में भी रोज़गार सृजन की दर नगण्य है और जो भर्तियाँ हो भी रही हैं वे ठेका या कैज़ुअल मज़दूर के रूप में हो रही हैं, जिनमें मज़दूरों से ग़ुलामों की तरह काम करवाया जाता है। सरकारी नौकरियाँ तो लुप्तप्राय ही हो चुकी हैं और जो बची हैं वे भी समाप्त की जा रही हैं। सरकारी विभागों में भर्ती के लिए आवेदन हेतु फ़ॉर्म ही नहीं निकाले जा रहे, जहाँ फ़ॉर्म निकालकर बेचे जा रहे हैं वहाँ परीक्षाएँ नहीं करवायी जा रही हैं, जहाँ परीक्षाएँ हो रही हैं वहाँ परीक्षाओं के परिणाम नहीं निकाले जा रहे, जहाँ परिणाम निकाले जा रहे हैं वहाँ उत्तीर्ण होने वाले आवेदकों की भर्ती प्रक्रिया नहीं चलायी जा रही है। ख़ुद सेना में पिछले तीन वर्षों से कोई भर्ती नहीं की गयी है। नतीजतन, रोज़गार की आस में चप्पलें फटकाते-फटकाते, हज़ारों रुपये तैयारी करते हुए ख़र्च करते-करते और इन्तज़ार करते-करते नौजवानों की नौजवानी ख़र्च हो जा रही है और अन्त में उनके हाथों में बस टूटे सपनों का अम्बार लगता है। फ़ासीवादी मोदी सरकार के आठ वर्षों के कार्यकाल में बेरोज़गारी ने अब तक का सम्भवत: सबसे विकराल रूप धारण किया है।

लेकिन मौजूदा विरोध आन्दोलन का जारी रहना या टिके रहना मुश्किल है। वजह यह है कि ये आन्दोलन पूरी तरह से स्वत:स्फूर्त है। इसके पीछे इसे दिशा देने वाली और इसे सचेतन तौर पर एक निश्चित माँगपत्रक के इर्द-गिर्द एकजुट करने वाली कोई क्रान्तिकारी राजनीतिक शक्ति मौजूद नहीं है। ऐसे में, इस आन्दोलन के वक़्त बीतने के साथ बिखर जाने की सम्भावना ज़्यादा है। कांग्रेस समेत सभी चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ इस मसले का चुनावी लाभ उठाने से ज़्यादा सोचने की न तो मंशा रखती हैं और न ही क्षमता। वहीं दूसरी ओर काडर-आधारित संगठन के आधार पर संघ परिवार लगातार अपना प्रचार जनता के बीच ले जा रहा है। साथ ही समूचा कारपोरेट मीडिया (गोदी मीडिया) मोदी सरकार के इस फ़ैसले के पक्ष में राय बनाने में लगा हुआ है। नतीजतन, ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि ‘अग्निपथ’ योजना को ज़्यादा से ज़्यादा मामूली फेर-बदल के साथ मोदी सरकार लागू करेगी। साथ में, अलग-अलग सरकारी विभाग चार साल की सेवा के बाद निकाल दिये गये जवानों को अपने यहाँ नौकरी में आरक्षण देने का झुनझुना थमा रहे हैं जिससे कि नौजवानों का ग़ुस्सा कुछ शान्त हो। पूँजीपति वर्ग के तमाम सदस्य जैसे कि टाटा, महिन्द्रा आदि भी इस योजना का समर्थन करते हुए कह रहे हैं कि सैनिक प्रशिक्षण पाये हुए इन जवानों को नौकरी देने में निजी क्षेत्र भी पहलक़दमी दिखायेगा। उनका वास्तविक अर्थ यह है कि जिस प्रकार सेना में बिना सवाल उठाये आदेशों का पालन करना सिखाया जाता है, उसी प्रकार इन मालिकों को ऐसे मज़दूर भी चाहिए जो कि अपने शोषण पर बिना प्रश्न उठाये खटते रहें! भाजपा के नेता तो ऐसे सैनिकों को भाजपा कार्यालय में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी देने की पेशकश भी कर रहे हैं! साथ ही, चार वर्ष की सेवा के बाद सड़कों पर चप्पल फटकाती निम्न-मध्यवर्गीय युवाओं की हताश और दिशाहीन आबादी को फ़ासीवादी संघ परिवार का पैदल सैनिक बनाने की पूरी योजना भी संघ परिवार ने बना रखी है, हालाँकि उनके इस मंसूबे की कामयाबी या नाकामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि सर्वहारा वर्ग इस आबादी के बीच सतत् राजनीतिक प्रचार अभी से करता है या नहीं और उसे मौजूदा फ़ासीवादी शासन और समूची पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई से अवगत कराता है या नहीं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि एक सचेतन क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में नौजवानों द्वारा ‘अग्निपथ’ के मौजूदा प्रतिरोध के बिखर जाने की सम्भावना अधिक है और वोटों के मामले में भी यह भाजपा को कितना नुक़सान पहुँचायेगा, इसके बारे में अभी दावे से कुछ कहना मुश्किल नहीं है क्योंकि देश के स्तर पर और तमाम राज्यों के स्तर पर भी विपक्ष को फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार ने दन्त-नखविहीन बना दिया है और उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी किसी न किसी रूप में भाजपा और संघ परिवार ही निर्धारित करने लगे हैं। पूँजीपति वर्ग के भारी आर्थिक समर्थन के कारण भाजपा के पास पैसे की इतनी ज़बर्दस्त ताक़त है कि वह सभी पूँजीवादी विपक्षी दलों के विधायकों-सांसदों की खुलेआम ख़रीद-फ़रोख़्त करती है और जो बिकने में आना-कानी करते हैं, उनके कान उमेठने के लिए इनफ़ोर्समेण्ट डाइरेक्टोरेट, सीबीआई जैसी तमाम एजेंसिंयाँ तो हैं ही! महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराकर भाजपा-नीत गठबन्धन की सरकार बनाने की महान लोकतांत्रिक हरकत की है, उससे यह बात स्पष्ट तौर पर समझी जा सकती है।

ऐसे मेंक्रान्तिकारी सर्वहारा शक्तियों को अपनी क्षमता और शक्ति के अनुसार सर्वहारा वर्गीय लाइन को लेकर इस मसले पर चल रहे प्रतिरोध आन्दोलन में अधिकतम सम्भव हिस्सेदारी करनी चाहिएइसे एक ठोस दिशाएक ठोस माँगपत्रक और एक ठोस नेतृत्व देने का प्रयास करना चाहिए और इस प्रक्रिया में मौजूदा फ़ासीवादी मोदी सरकार और समूची पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को जनता के सामने बेपर्द करना चाहिए। ऐसे मौक़े पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना आत्मघाती है। मज़दूर  युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मुहल्लोंकॉलोनियोंबस्तियों में घरघर जाना चाहिए और विशेष तौर पर और छात्रोंयुवाओं के लॉजों में जाना चाहिए और इस मसले के बारे में सच्चाई से जनसमुदायों को अवगत कराना चाहिए। किसी भी प्रकार की अव्यावहारिक “वामपन्थी” ग़ैर-सर्वहारा लाइन को अपने दिमाग़ से निकाल देना चाहिए और ‘अग्निपथ’ के समूचे मसले पर व्यापक व सघन राजनीतिक प्रचार अभियान चलाना चाहिए। इसमें ज़रा भी देर और लापरवाही एक भारी ग़लती होगी।

मज़दूर बिगुल से साभार

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