मुकुल व्यास
आने वाले समय में लोग खाद्य पदार्थों के रूप में भी अपनी वैक्सीन की डोज लेने लगेंगे। पौधों पर आधारित वैक्सीन का विचार चौंकाने वाला है, लेकिन यह एकदम नया नहीं है। इस संबंध में पिछले कई वर्षों से रिसर्च चल रही है। कुछ वैज्ञानिकों का खयाल है कि हमें पौधों पर आधारित वैक्सीन विकसित करने के लिए अधिक प्रयास करने चाहिए। कनाडा में क्यूबेक स्थित लवाल विश्वविद्यालय के दो रिसर्चर, फास्टर-बोवेंडो और गेरी कोबिंगर ने साइंस पत्रिका में लिखा है कि इस तरह की वैक्सीन ‘मॉलिक्यूलर फार्मिंग’ के जरिए बनाई जा सकती है। इस विधि में पौधे की कोशिका में डीएनए रखा जाता है, जो प्रोटीन बनाता है। इस कोशिका का उपयोग वैक्सीन बनाने के लिए किया जाता है। दुनिया इस समय कोरोना वायरस से जूझ रही है। लोगों को वायरस के संक्रमण से बचाने के लिए वैक्सीन लगाने का काम चल रहा है। वैज्ञानिक और प्रभावी वैक्सीन की तलाश में भी जुटे हुए हैं। उनकी कोशिश एक ऐसी समग्र वैक्सीन विकसित करने की है, जो सभी तरह के कोरोना वायरसों के खिलाफ प्रभावी सिद्ध हो। इन्हीं प्रयासों के तहत कुछ वैज्ञानिकों ने वैक्सीन की वैकल्पिक किस्मों पर रिसर्च आरंभ की है। अपने रिसर्च पेपर में फास्टर-बोवेंडो और कोबिंगर ने कहा है कि पौधों पर आधारित वैक्सीन का विकास एक बहुत अच्छी एप्रोच है।
वैक्सीन आम तौर पर बैक्टीरियाई सिस्टम में उत्पन्न की जाती है। ऐसे सिस्टम को बायोरिएक्टर कहा जाता है। ऐसी वैक्सीनों की उत्पादन लागत बहुत ज्यादा होती है। वैक्सीन की बायोमैन्युफैक्चरिंग के विकल्प के तौर पर वैज्ञानिकों ने 1986 में मॉलिक्यूलर फार्मिंग का प्रस्ताव रखा था। इसके लिए वैज्ञानिकों को सिर्फ ग्रीनहाउस सेटअप की आवश्यकता पड़ती है, जो बायोरिएक्टरों की तुलना में बहुत सस्ते पड़ते हैं। रिसर्चरों का कहना है कि पौधों पर आधारित वैक्सीन बनाना सस्ता पड़ेगा और इसके दूसरे लाभ भी होंगे। एक बहुत बड़ा फायदा यह है कि इस तरह की वैक्सीन बनाने के लिए संसाधनों की तलाश पर अधिक ध्यान नहीं देना पड़ेगा। वैक्सीनों को बायोरिएक्टरों में तैयार करने के बजाय खेतों की फसलों में उत्पन्न किया जा सकता है। दूसरा बड़ा फायदा खुद पौधों के स्वरूप से है। पौधे मानव रोगाणुओं द्वारा संक्रमित नहीं हो सकते। इसके अलावा पिछली रिसर्च से पता चलता है कि पौधों पर आधारित वैक्सीन दूसरी विधियों से तैयार वैक्सीनों की तुलना में ज्यादा तगड़ा इम्यून रिस्पॉन्स उत्पन्न करती हैं। सामान्य विधियों की तुलना में पौधों पर आधारित वैक्सीन का उत्पादन ज्यादा होता है। एक और खास बात यह है कि कुछ मामलों में वनस्पति आधारित वैक्सीन को एक खाद्य उत्पाद के रूप में सीधे दिया जा सकता है।
इस समय गौशे रोग के इलाज के लिए इस तरह की वैक्सीन का उत्पादन किया जा रहा है। लीवर और स्प्लीन जैसे शरीर के कुछ अंगों में वसायुक्त पदार्थों के जमाव से गौशे रोग होता है। इन पदार्थों के जमा होने से इन अंगों का आकार बढ़ जाता है। वसायुक्त पदार्थ हड्डियों के ऊतकों में भी जमा होने लगते हैं, जिनसे हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है। गौशे रोग के इलाज में प्रयुक्त होने वाला ग्लूकोसेरिब्रोसिडेस नामक एंजाइम गाजर की सेल कल्चर में उत्पन्न होता है। अमेरिका के सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, फ्लू वैक्सीनों के निर्माण के लिए अंडा-आधारित विधि का प्रयोग किया जाता है। यह विधि 70 साल पुरानी है। वैक्सीन के कैंडिडेट वायरसों को मुर्गी के निषेचित अंडों में प्रविष्ट किया जाता है। इन अंडों को कई दिनों तक सेना पड़ता है ताकि वायरस रेप्लिकेट हो जाएं। इसके बाद अंडों से वायरस युक्त द्रव्य निकाल लिया जाता है। इस द्रव्य से वैक्सीन बनाई जाती है। दुनिया में कोरोना महामारी फैलने से पहले इन्फ्लुएंजा की वनस्पति-आधारित वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल शुरू हो चुका था और उसके उत्साहवर्धक नतीजे सामने आए थे। इस समय एक रिसर्च टीम कोविड-19 के लिए वनस्पति आधारित वैक्सीन पर भी काम कर रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि औषधियों के नियमन के लिए जिम्मेदार सरकारी संस्थाओं को वनस्पति-आधारित वैक्सीन के लाभों को समझना चाहिए ताकि इन्हें अपनाने के लिए उचित दिशा-निर्देश तैयार किए जा सकें।